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Editorial: सीखने की प्रक्रिया — सरकारी स्कूलों में अधिक जवाबदेही की आवश्यकता

सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या तेजी से घटी है, निजी शिक्षा महंगी होने के बावजूद माता-पिता का रुझान बढ़ा और शिक्षा व्यवस्था में असमानता और गहराती जा रही है

Last Updated- August 29, 2025 | 10:30 PM IST
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प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के नवीनतम समग्र मॉड्युलर शिक्षा सर्वेक्षण के नतीजों ने एक जाहिर तथ्य को रेखांकित किया है और वह यह कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था विफल हो रही है। यह हमारे जनसांख्यिकीय रुझानों को भी प्रभावित कर रहा है। सर्वेक्षण बताता है कि 2017-18 से शहरी और ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति कम हुई है। ग्रामीण भारत में तो उपस्थिति में गिरावट चिंताजनक स्तर पर रही है। वहां सरकारी स्कूलों में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी 68 फीसदी से घटकर 2025 में 58.9 फीसदी रह गए। शहरी इलाकों में कम गिरावट आई और यहां ऐसे विद्यार्थी 38.9 फीसदी से कम होकर 36.4 फीसदी रह गए। नए नामांकनों की बात करें तो उनमें भी सभी स्तरों पर भारी गिरावट आई है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर स्तर की बात करें तो प्राथमिक और माध्यमिक में तीव्र गिरावट आई है।

सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या इतनी तेजी से कम होने के बावजूद एक तथ्य यह भी है कि निजी शिक्षा भी कोई सस्ती नहीं है। सर्वेक्षण बताता है कि सरकारी स्कूलों में अभिभावकों द्वारा होने वाला शैक्षणिक व्यय, निजी स्कूलों में होने वाले खर्च की तुलना में बहुत मामूली होता है। ग्रामीण भारत में दोनों में सात गुने का अंतर है। विडंबना यह है कि कई प्रमाण बताते हैं कि निजी स्कूल भी बहुत स्तरीय शिक्षा नहीं प्रदान कर रहे हैं। सर्वे बताता है कि तकरीबन 27 फीसदी बच्चे निजी कोचिंग में पढ़ते हैं। इनमें 31 फीसदी शहरी और 25.5 फीसदी ग्रामीण इलाकों में रहने वाले हैं। सरकारी से महंगी निजी शिक्षा की ओर इस स्थानांतरण को बढ़ती समृद्धि और छोटे परिवारों में इजाफे के रूप में भी देखा जा सकता है जिसके चलते अधिक भारतीय अपने बच्चों को उन निजी स्कूलों में भेज पा रहे हैं जो उनकी दृष्टि में अच्छे हैं। हालांकि बहुत से निजी स्कूल किताब, गणवेश और अन्य चीजों के बदले भी पैसे लेते हैं।

परंतु सरकारी स्कूलों की लगातार खस्ता होती हालत ने भी निजी स्कूलों का चयन किए जाने में अहम भूमिका निभाई है। बुनियादी समस्या जवाबदेही की कमी में है जिसके चलते अधोसंरचना कमजोर है और शिक्षण के मानकों में भी काफी अंतर है। शिक्षकों की गैरमौजूदगी के रूप में इसे भलीभांति महसूस किया जा सकता है। देश के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन विकासशील देशों में तुलनात्मक रूप से सबसे बेहतर है। खासतौर पर छठे और सातवें वेतन आयोग के बाद इनमें काफी सुधार हुआ है। इसके बावजूद देशव्यापी सर्वेक्षण बताता है कि शिक्षकों की अनुपस्थिति 25 फीसदी तक और कुछ राज्यों में यह 46 फीसदी तक हो सकती है। एक ओर शिक्षक अपना काम नहीं कर रहे हैं तो वहीं सरकारी स्कूलों में बड़े पैमाने पर रिक्तियां समस्या को और बढ़ाती हैं। निजी स्कूलों में वेतन भत्ते सरकारी स्कूलों से कम होने के बावजूद वहां ऐसी समस्या नहीं है, जबकि वहां पेंशन या अन्य लाभ भी नहीं मिलते।

सरकारी और निजी शिक्षा में इस अंतर का नतीजा समाज में बढ़ती असमानता के रूप में सामने आ रहा है। जो लोग महंगे निजी स्कूलों की फीस चुका सकते हैं, वे अब वहां की ओर रुख कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि सरकारी शिक्षा प्रणाली, जो पहले से ही कई गंभीर समस्याओं से जूझ रही है, अब केवल गरीब और हाशिए पर रहने वाले वर्गों तक सीमित रह जाएगी। ऐसे एक बेहद खराब प्रदर्शन करने वाले शिक्षा तंत्र से निकलने वाले छात्र बेहतर वेतन वाली नौकरियों व अवसरों से और दूर होते जाएंगे और न्यूनतम वेतन वाली नौकरियों में फंसे रहेंगे। 

सरकारी शिक्षा एशियाई टाइगर्स कहलाने वाले देशों और चीन की सफलता की बुनियाद रही है। उससे दूरी बनाकर सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है।

First Published - August 29, 2025 | 10:07 PM IST

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