पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजरायल और फिलिस्तीन के बीच हमास के बगैर द्विराष्ट्र समाधान के पक्ष में भारी समर्थन मिला और गाजा में इजरायल के हमले की आलोचना की गई। फ्रांस संयुक्त राष्ट्र महासभा में न्यूयॉर्क प्रस्ताव लेकर आया था जिसके पक्ष में 142 मत पड़े जबकि 10 देशों (अमेरिका और इजरायल सहित) ने विरोध में मतदान किया। 12 देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यह 22 सितंबर को होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन से पहले आया है, तथा इसमें फ्रांस, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और पुर्तगाल जैसे अमेरिका के सहयोगी देशों द्वारा फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दिए जाने की बात कही गई है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दौरे के बाद ब्रिटेन ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि वह फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देगा। जर्मनी ने भी न्यूयॉर्क प्रस्ताव का समर्थन किया है मगर वह फिलिस्तीनी राज्य का समर्थन नहीं करेगा। इजरायल के साथ जर्मनी के संबंध पेचीदा रहे हैं।
मगर विडंबना यह है कि भारत सहित दूसरे देशों और अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा कड़ी निंदा के बाद भी इजरायल और उसका समर्थक अमेरिका अपने रुख से पीछे नहीं हट रहा है। हमास नेतृत्व को निशाना बना कर कतर की राजधानी दोहा में हुए इजरायल के हवाई हमलों के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो और इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने दोनों देशों के आपसी संबंधों को मजबूती देने पर यरुशलम में चर्चा की। इस बीच, गाजा पर इजरायली हमले बेरोक-टोक जारी हैं। इन हमलों के कारण हजारों फिलिस्तीनी विस्थापित हो गए हैं और पश्चिमी तट पर इजरायल द्वारा अवैध बस्तियां बनाने का सिलसिला भी जारी है। इस बीच, अरब लीग और इस्लामिक सहयोग संगठन की बहु-प्रतीक्षित बैठक के बाद कतर पर इजरायल के हमले की निंदा करने वाला एक नरम बयान जारी कर औपचारिकता पूरी कर ली गई। वास्तव में इजरायल-हमास के बीच वार्ता में प्रमुख मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले और खाड़ी में अमेरिका के सबसे बड़े सैन्य ठिकाने कतर के शीर्ष नेतृत्व ने एक ठोस रक्षा सहयोग समझौते के लिए रूबियो के साथ बातचीत की।
ये सभी बातें मौजूदा एवं बदलते वैश्विक भू-आर्थिक वास्तविकता की राजनीति को परिलक्षित कर रही हैं। 1970 के दशक में अरब राष्ट्रों ने योम-किप्पुर युद्ध में इजरायल का समर्थन करने के लिए अमेरिका पर तेल प्रतिबंध लगा दिया था। तब अरब राष्ट्रों के पास ऐसे कदम उठाने की ताकत थी मगर अब अमेरिका तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है और दुनिया की अकेली महाशक्ति होने के साथ ही हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता भी है। इजरायल के कुल हथियारों के आयात में अमेरिका की लगभग 70 फीसदी हिस्सेदारी होती है। कुवैत, कतर, सऊदी अरब, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के हथियार आयात में भी अमेरिका का 50-70 फीसदी तक दखल है। ये सभी देश फिलिस्तीन से आने वाले शरणार्थियों से परेशान रहे हैं। अमेरिका ने यूरेनियम पाने के लिए जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद वाले शासन पर गोल-मोल रुख अपनाया और वहां चार दशकों तक एक नस्लभेदी सरकार सत्ता में काबिज रही, ठीक उसी तरह अमेरिकी के द्वि-दलीय समर्थन (जो अब कमजोर पड़ा रहा है) की बदौलत पिछले सात दशकों से इजरायल, फिलिस्तीन के मानवाधिकारों पर चोट करता रहा है।
इस राय पर शंका जताई जा रही है कि अमेरिका अगर इजरायल को सैन्य मदद बंद या कम कर दे तो उसकी नीतियां बदल सकती है। नेतन्याहू के लंबे कार्यकाल के दौरान इजरायली नागरिकों में कट्टरता की बढ़ती भावना के बीच फिलिस्तीन को लेकर इजरायल अपनी मौजूदा नीतियां जारी रख सकता है। मगर एक बात तो साफ है कि गाजा में इजरायल के हमले की वैश्विक निंदा होने के बाद वास्तविक सह-अस्तित्व के बिना वह (इजरायल) उस जमीन पर दीर्घकालिक शांति का अनुभव नहीं कर सकता है जिस पर वह अपना दावा करता रहा है।