पश्चिम बंगाल विधान सभा ने सर्वसम्मति से एक कानून पारित कर दिया है जिसमें बलात्कार की अधिकांश श्रेणियों में मौत की सजा देने का प्रावधान है। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस ने पिछले महीने राज्य के एक सरकारी अस्पताल आर जी कर मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद जिस तरह की ढिलाई बरती थी, उसके बाद यह कानून खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने की कोशिश ही नजर आता है।
अपराजिता महिला एवं बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024 के माध्यम से केंद्रीय आपराधिक कानूनों और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संरक्षण (पोक्सो) के अंतर्गत आने वाली बलात्कार की विभिन्न श्रेणियों में कैद या कठोर दंड के बजाय सजा-ए-मौत का प्रावधान किया गया है।
सरकार की विश्वसनीयता सामने लाने के उत्साह में यह कानून ऐसे प्रचुर प्रमाणों की अनदेखी कर देता है कि मौत की सजा बलात्कार समेत किसी भी तरह के घृणित अपराध के खिलाफ प्रतिरोधक का काम नहीं करती। यह बात 2012 में न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति भी जोर देकर कह चुकी है।
अपराजिता विधेयक में जो अतिवादी रुख अपनाया गया है उसमें तथा अन्य राज्य सरकारों द्वारा पारित ऐसे ही अन्य कानूनों में यौन हमलों जैसे अपराधों की मूल प्रकृति की सही समझ नहीं होना ही सामने आता है। जैसा कि वर्मा समिति ने कहा था, बलात्कार केवल जुनून में किया गया अपराध नहीं है बल्कि वह एक किस्म का शक्ति प्रदर्शन भी है।
कानून की किताबों में बलात्कार तथा महिलाओं के विरुद्ध अन्य अपराधों मसलन दहेज हत्याओं आदि को लेकर दंड के प्रावधानों की कोई कमी नहीं है। परंतु भारतीय समाज में इस अपराध का इतना अधिक घटित होना यह दर्शाता है कि हमारे यहां शक्ति संतुलन बहुत अधिक असमान है और यही वजह है कि महिलाएं घरों में, सार्वजनिक स्थानों पर और कार्यस्थलों पर कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।
इससे पता चलता है कि महिला सुरक्षा के लिए व्यावहारिक कदम उठाने पर भी राज्यों को ध्यान देना चाहिए और इसमें उनकी अहम भूमिका है। इसमें कार्यस्थल पर उनके लिए अलग शौचालय और रेस्टरूम, खासकर छोटे और मझोले आकार की कामकाजी जगहों पर, रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना और सार्वजनिक परिवहन में उनके लिए सुरक्षा (दिल्ली मेट्रो इसका एक अच्छा उदाहरण पेश करती है) आदि पर ध्यान देना जरूरी है। सबसे बढ़कर पुलिस (ज्यादातर पुरुष) बलों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है ताकि महिलाएं हमलों की सूचना देने में घबराएं नहीं।
बंगाल के कानून में सुझाव दिया गया है कि जांच के लिए एक अपराजिता टास्क फोर्स का गठन किया जाए और ऐसे अपराधों के लिए विशेष न्यायालयों के गठन का सुझाव दिया गया है। पहला प्रस्ताव वर्मा समिति द्वारा रेखांकित अनुशंसाओं को ही दोहराता है और दूसरा राज्य की कमी को सामने लाता है।
2019 में ही एक केंद्र प्रायोजित योजना पेश की गई ताकि फास्ट ट्रैक विशेष अदालतें स्थापित की जाएं। इनमें विशेष पोक्सो अदालतें भी शामिल हैं। कई राज्यों जिनमें से ज्यादातर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा शासित हैं, ने इस पर प्रतिक्रिया भी दी।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में 218 ऐसी अदालतें हैं, बिहार में 46, मध्य प्रदेश में 67 और ओडिशा में 44। अन्य राज्यों से भी अनुकूल प्रतिक्रिया मिली। उदाहरण के लिए दिल्ली की आबादी 3.3 करोड़ है और वहां 16 ऐसी अदालतें हैं। पंजाब में 3.8 करोड़ की आबादी पर 12 ऐसी अदालतें हैं।
पश्चिम बंगाल की आबादी 10.3 करोड़ है और वहां तीन ही ऐसी अदालतें हैं। वह केवल मणिपुर और नगालैंड से आगे है। जो राजनीतिक नेतृत्व महिलाओं के संरक्षण के लिए प्रगतिशील कदम नहीं उठाएगा वह देश की आर्थिक महत्त्वाकांक्षाओं को ही नुकसान पहुंचाएगा।