आज यानी शनिवार 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूस के हमले को दो वर्ष पूरे हो रहे हैं। लेकिन कीव (यूक्रेन की राजधानी), मॉस्को और ब्रसेल्स (यूरोपीय संघ और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का मुख्यालय) में सबकी नजरें नवंबर में होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों पर लगी हुई हैं।
इन चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी की ओर से डॉनल्ड ट्रंप का नामांकन तय माना जा रहा है और उनके दोबारा राष्ट्रपति बनने की काफी अधिक संभावना है। यूरोपीय संघ और यूक्रेन के लिए ट्रंप की जीत से बुरा शायद ही कुछ घटित हो। यह बात 10 फरवरी को उस समय साबित हुई जब उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व में अमेरिका नाटो के ऐसे सदस्य देश का बचाव नहीं करेगा जो अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो फीसदी से भी कम हिस्सा रक्षा पर खर्च करता हो। इसके उलट उन्होंने जोर देकर कहा कि वह रूस से कहेंगे कि वह जो करना चाहता है करे।
यह वक्तव्य पिछले दिनों म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में छाया रहा और यह 75 साल पुराने इस समझौते के अनुच्छेद पांच का उल्लंघन करता है जिसमें कहा गया है कि नाटो के किसी सदस्य देश पर हमले को सभी सदस्यों पर हमला माना जाएगा। यह यूक्रेन के लिए जाहिर तौर पर बुरी खबर है क्योंकि वह पहले ही रक्षा उपकरणों की कमी से जूझ रहा है।
उधर अमेरिकी कांग्रेस के रिपब्लिकन बहुल निम्न सदन में यूक्रेन को सैन्य और नागरिक सहायता देने का विरोध किया जा रहा है। यूक्रेन नाटो का पूर्ण सदस्य नहीं है लेकिन वह उसके दशक भर पुराने एक कार्यक्रम का हिस्सा है जिसका अर्थ यह है कि वह नाटो के साथ करीबी सहयोग करता है। यूक्रेन को लगने वाला सैन्य झटका यूरोप की सुरक्षा के लिए भी खतरा होगा।
नाटो के सदस्यों द्वारा अपेक्षा से कम व्यय ने भी ट्रंप और उनके पहले के राष्ट्रपतियों को नाराज किया था। हालांकि उनकी नई धमकी में इस तथ्य की अनदेखी की गई है कि दो फीसदी निवेश का निर्देश बाध्यकारी नहीं है। सबसे पहले 2006 में नाटो के रक्षा मंत्रियों ने यह वादा इसलिए किया था कि इससे बोझ को वहन करने में आसानी होगी।
जब रूस ने 2014 में क्राइमिया का अधिग्रहण कर लिया तो इस बात को दोहराया गया। ट्रंप प्रशासन का यह कहना सही था कि अधिकांश नाटो सदस्य इस प्रतिबद्धता की अनदेखी करते हैं। वर्ष 2014 में केवल तीन सदस्य देशों ने अपने जीडीपी का दो फीसदी रक्षा पर खर्च किया था। उसके बाद से हालात में बदलाव आया है क्योंकि यूरोप को डर है कि रूस कभी भी आक्रमण कर सकता है। इस वर्ष नाटो के 31 में से 18 सदस्य देशों के इस लक्ष्य को हासिल करने की अपेक्षा है।
बाल्टिक देश जो रूसी आक्रमण की स्थिति में सुरक्षा की पहली पंक्ति के रूप में सामने आएंगे, उन्होंने अपनी पूर्वी सीमा को सुदृढ़ करने का काम आरंभ कर दिया है। पारंपरिक और परमाणु हथियार दोनों ही क्षेत्रों में यूरोप और रूस में जो असमानता है उसे देखते हुए यह स्पष्ट नहीं है कि नाटो बिना अमेरिकी सैन्य मदद के प्रभावी बचाव कैसे कर पाएगा। विश्लेषकों का कहना है कि यूरोप को अधिक व्यय करना होगा।
भारत के लिए सवाल यह है कि उसे अमेरिका के अलावा नाटो को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया देनी चाहिए। यह समूह विश्व युद्ध के बाद के सुरक्षा ढांचे में अहम रहा है। यह बात ध्यान देने वाली है कि गत वर्ष जून में भारत ने अमेरिका की उन भावनाओं को नकार दिया था जिनमें वह चाहता था कि भारत चीन पर केंद्रित नाटो प्लस में शामिल हो।
इस समूह में नाटो के अलावा अमेरिका के पांच सहयोगी देश- ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, इजरायल और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। यह अनौपचारिक समूह चीन के साथ क्षेत्रीय तनाव की स्थिति में सुरक्षा मुहैया करा सकता है। विदेश मंत्री का कहना था कि इसमें शामिल होने से देश की सामरिक स्वायत्तता सीमित हो जाएगी।
खासतौर पर यह देखते हुए कि भारत शांघाई सहयोग संगठन का भागीदार है। भारत का कूटनयिक संतुलन उसे अच्छी स्थिति में रखे हुए है। अटलांटिक पार के संबंधों में किसी भी तरह के बदलाव में इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।