हमारे देश में अक्सर सब्सिडी का इस्तेमाल कल्याण और सामाजिक मदद के लिए किया जाता है। उनकी उपयोगिता, जरूरत और लंबी अवधि के दौरान उनकी व्यावहारिकता हाल के वर्षों में गंभीर बहस का मुद्दा रही है। बहरहाल, देश के बढ़े हुए आम सरकारी ऋण और सीमित राजकोषीय गुंजाइश के संदर्भ में देखें तो सब्सिडी को युक्तिसंगत बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान के हालिया अध्ययन, ‘राज्य स्तर पर विशिष्ट सब्सिडी को युक्तिसंगत बनाना’ में राज्य सरकारों के प्रभावी व्यय प्रबंधन के महत्त्व को रेखांकित किया गया है।
अध्ययन राज्यों के वित्त में दो अहम रुझानों पर जोर देता है जो महामारी के बाद उभरे। पहला, राज्यों के राजस्व में महामारी के बाद उल्लेखनीय अस्थिरता आई है। दूसरा, राज्यों के पास राजकोषीय गुंजाइश और अधिक सीमित हुई है। उदाहरण के लिए वर्ष 2016 से 2022 के बीच पंजाब का कर्ज 44.23 फीसदी बढ़ा और फिलहाल वह राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 45 फीसदी के बराबर है।
राज्यों के लिए राजकोषीय गुंजाइश की सीमा की एक प्रमुख वजह है वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी जिसने राज्य सरकारों की कर लगाने की क्षमता को बहुत सीमित किया है। इसके परिणामस्वरूप राज्यों के पास अतिरिक्त कर राजस्व जुटाने की बहुत सीमित गुंजाइश बची है। अधिकांश राज्य पहले ही इन सीमित अवसरों का पूरी तरह दोहन करने में लगी है।
इसके अलावा राज्यों के बजट का बहुत अहम हिस्सा पहले से प्रतिबद्ध व्यय में जाता है जिनमें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनिवार्य सेवाओं और वेतन तथा प्रशासनिक लागत सभी शामिल हैं। इन सेवाओं के साथ अगर ब्याज भुगतान राज्यों के घरेलू बजट पर भारी पड़ते हैं और विवेकाधीन व्यय के लिए बहुत सीमित संभावना बचती है।
वर्ष 2017 से 2020 तक अधिकांश राज्यों के प्रतिबद्ध व्यय उनके कुल व्यय के 60 से 80 फीसदी के बराबर थे। इसके परिणामस्वरूप राज्यों के पास गैरप्रतिबद्ध व्यय के लिए सीमित गुंजाइश थी। व्यय की इस सीमित गुंजाइश के बीच सब्सिडी राज्यों के वित्त पर खासा बोझ डालती हैं। ये सब्सिडी जिनमें प्रत्यक्ष वित्तीय समर्थन, बीमा भुगतान, स्कॉलरशिप और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के लिए सहयोग आदि उपलब्ध हों, राज्य के विवेकाधीन बजट के बहुत बड़े हिस्से की खपत कर लेते हैं।
ऐसे में राजस्व तैयार करने तथा व्यय का लचीलापन दोनों वित्तीय प्रबंधन के महत्त्व को सामने रखते हैं। रिपोर्ट में सात राज्यों का अध्ययन शामिल है जिससे पता चलता है कि वे कौन से समान मुद्दे हैं जो विशिष्ट सब्सिडी में अहम योगदान करते हैं। इनमें सब्सिडी को कमजोर ढंग से लक्षित करना, पारदर्शिता की कमी, किसानों को ऋण राहत, मुफ्त बिजली आदि ने राज्यों के बिजली बोर्डों को गहरे कर्ज के जाल में उलझा दिया है। ऋण पर ब्याज सब्सिडी भी इसमें शामिल हैं। ये चुनौतियां सभी राज्यों में मौजूद हैं। अनुमान लगाया गया था कि कुछ राज्यों मसलन पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में स्पष्ट सब्सिडी राजस्व व्यय के 20 फीसदी से भी अधिक थी।
इन स्पष्ट सब्सिडी की भरपाई के लिए उधारी पर निर्भरता लंबी अवधि के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है क्योंकि यह अहम बुनियादी ढांचों और निवेश के लिए संसाधनों की उपलब्धता पर असर डालती है और आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करती है।
ऐसे में यह जरूरी है कि राजकोषीय गुंजाइश को बढ़ाया जाए। इसके लिए सब्सिडी को सावधानीपूर्वक युक्तिसंगत बनाना होगा। ऐसा करके राज्य सरकारें यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि सब्सिडी बेहतर लक्षित हों और सार्वजनिक फंड का सही इस्तेमाल किया जा सके। कुछ राज्यों में निरंतर राजकोषीय दबाव इस बात को रेखांकित करता है कि जीएसटी दरों और स्लैब को जल्दी युक्तिसंगत बनाया जाए। उच्च राजस्व केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर राजकोषीय क्षमता को बेहतर बनाएगा।