संसद के हालिया सत्र के आखिरी कुछ घंटों में सरकार ने तीन नए विधेयक पेश किए जो अगर पारित हो गए तो देश के नागरिकों के शासन पर दूरगामी प्रभाव डालेंगे। नए विधेयक देश में आपराधिक न्याय और निगरानी संबंधी पुरानी संहिताओं का स्थान लेंगे। उन्हें भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस कहा जाएगा और ये भारतीय दंड संहिता का स्थान लेंगे। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता अथवा बीएनएसएस को दंड प्रक्रिया संहिता के स्थान पर लागू किया जाएगा और भारतीय साक्ष्य अधिनियम इंडियन एविडेंस ऐक्ट का स्थान लेगा।
पहला सवाल जो कई लोगों की ओर से आ सकता है वह यह है कि नए नामों की क्या आवश्यकता है और अगर नए नाम आवश्यक ही थे तो क्या वे अंग्रेजी में नहीं हो सकते थे? इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार का जवाब यही होगा कि नए कानूनों का उद्देश्य ही भारत को औपनिवेशिक पहचान से मुक्त करना है क्योंकि पुराने कानून मूल रूप से ब्रिटिश राज में बनाए गए थे।
यद्यपि इनमें से कई कानून प्रासंगिक थे और इनमें विधायिका के प्रतिनिधियों द्वारा समय-समय पर बदलाव किया जाता रहा है। वहीं स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका इनकी व्याख्या करती रही है। इन्हें औपनिवेशिक संस्थान नहीं कहा जा सकता है।
वहीं कहीं अधिक गहन प्रश्न यह है कि आखिर इस पूर्ण परिवर्तन का लक्ष्य क्या हो सकता है? आपराधिक कानूनों का आधुनिकीकरण अनिवार्य है लेकिन चरणबद्ध तरीके से और मशविरे के साथ अंजाम दिया जाना चाहिए। एक साथ ढेर सारे नए कानूनों को लागू किया जाना नीतिगत नजरिये से भी सही नहीं है।
हाल ही में डेटा निजता विधेयक को लेकर जिस तरह खुला मशविरा किया गया, वैसा प्रयास करने से सरकार को यह समझने में मदद मिल सकती थी कि किन बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है और साथ ही प्रस्तावित सुधारों के कारगर होने की क्या संभावनाएं हैं। इन विधेयकों को जहां चर्चा के लिए संसद की स्थायी समिति के समक्ष भेजा गया है, वहीं कानून बनाने की प्रक्रिया शुरुआत से ही पारदर्शी और खुली होनी चाहिए।
सरकार अतीत में इस बात का खमियाजा भुगत चुकी है कि बिना प्रभावित समूहों को भरोसे में लिए कानून बना देने का क्या परिणाम हो सकता है। ऐसे में इस बार सरकार को और अधिक खुलापन बरतना चाहिए था। यह बात इसलिए खासतौर पर सही है कि बदले जा रहे कानूनों के कई प्रावधानों की प्रकृति बहुत संवेदनशील है।
उदाहरण के लिए राजद्रोह से संबंधित धारा में इस्तेमाल किए गए शब्दों पर काफी ध्यान दिया जाएगा ताकि यह पता लगाया जा सके कि कहीं यह राजनीतिक सत्ता द्वारा और अधिक दुरुपयोग करने लायक तो नहीं बन गई। ‘विध्वंसकारी गतिविधि’ संबंधी धाराओं को जोड़ा जाना एक और उदाहरण है जो बताता है कि पहले ही विस्तृत मशविरा करने से यह सुनिश्चित होता कि नए कानून नए दौर के अपराधों से निपटने की क्षमता रखने के साथ ही साथ संवैधानिक रूप से बचाव योग्य तथा व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति आदर रखने वाले होते।
देखा जाए तो ये तमाम बदलाव शायद अधिक फायदेमंद साबित होते अगर संसद में इनमें विशिष्ट संशोधनों पर खुलकर चर्चा की गई होती। इस सामान्य प्रक्रिया में भी ऐसा करना अनुशंसनीय है लेकिन दंड संहिता जैसे कानूनों के मामले में तो यह खासतौर पर आवश्यक है। ये ऐसे कानून हैं जिनका जिला अदालतों के हजारों अधिवक्ता रोज इस्तेमाल करते हैं, निचली अदालतों के न्यायाधीशों और पुलिस अधिकारियों का भी इनसे रोज पाला पड़ता है।
इन बदलावों के बारे में निचले स्तर तक समझ बनने में वक्त लगेगा और इसलिए इन्हें पूरे प्रचार के साथ सावधानीपूर्वक पेश किया जाना चाहिए। पहले से जाने पहचाने कानूनों को एकबारगी थोक में बदलने का सबसे बड़ा खतरा यह है कि इन्हें अपनाने की प्रक्रिया लगभग असंभव हो जाएगी और यह खराब शासन को खुले न्योते के समान होगा।
अक्सर गलत कानून लागू हो जाएंगे या सही प्रावधानों को गलत ढंग से लागू कर दिया जाएगा। इसके परिणामस्वरूप न्याय में देरी भी होगी और शायद न्याय न भी मिल पाए। सरकार ने ऐसा नहीं सोचा होगा। अभी भी देर नहीं हुई है। इन कानूनों के निर्माण की प्रक्रिया चरणबद्ध और मशविरे वाली की जानी चाहिए।