अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात पर जो 25 फीसदी शुल्क लगाने का निर्णय लिया है, वह शायद अंतिम दर न हो। अगर वह भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद बढ़ाने पर लगाने वाले जुर्माने की अपनी धमकी पर अमल करते हैं तो यह दर और भी अधिक हो सकती है। वहीं अगर भारत के वार्ताकार अंतिम समय में किसी तरह का व्यापक समझौता कर पाने में कामयाब होते हैं तो यह दर कम भी हो सकती है। यह भी गौर करने लायक है कि इस प्रमुख शुल्क दर के कई अपवाद भी होंगे। कुछ वस्तुएं जो भारत-अमेरिका व्यापार का एक बड़ा हिस्सा तैयार करती हैं जैसे मोबाइल फोन, उनके लिए ट्रंप की घोषणा से परे अलग शुल्क दर हो सकती है। अमेरिकी प्रशासन अपनी शुल्क दरों के मुद्रास्फीति संबंधी प्रभाव को कम से कम करने के लिए उत्सुक है। अमेरिकी बाजारों के लिए तैयार होने वाले आईफोन का अधिकांश हिस्सा अब भारत में असेंबल किया जाता है, चीन में नहीं।
इसके बावजूद भारत पर लगने वाले शुल्क की मौजूदा दर चिंताजनक है। विकसित देश मसलन जापान, कोरिया और यूरोपीय संघ आदि को 15 फीसदी शुल्क दर का सामना करना पड़ रहा है। भारत के अधिकांश समकक्ष विकासशील देश जिनमें बांग्लादेश और वियतनाम आदि शामिल हैं, उन पर 19-20 फीसदी का शुल्क लगाया गया है। भारत पर लगाया गया 5 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क देश के निर्यात को प्रभावित कर सकता है। ट्रंप एक चंचल प्रवृत्ति के नेता हैं और यह जरूरी है कि उनके प्रशासन के साथ लगातार संवाद कायम रखा जाए। ऐसा इसलिए आवश्यक है ताकि कहीं बेहतर दर हासिल करने का मौका हमारे हाथ से निकल न जाए।
स्वाभाविक सी बात है, भविष्य में कोई भी समझौता भारत के व्यापक हितों को प्रतिबिंबित करने वाला होना चाहिए। परंतु उन हितों को पहले की तुलना में और अधिक व्यापक ढंग से परिभाषित करना जरूरी है। अमेरिका जैसे बड़े उपभोक्ता बाजारों के साथ व्यापारिक संबंधों के महत्त्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए और विदेशी प्रतिस्पर्धा से भारत के उत्पादकों, खासतौर पर कृषि के क्षेत्र में होने वाले खतरे को भी बढ़ाचढ़ा कर नहीं बताना चाहिए।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बुनियादी चुनौती है उत्पादकता और प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाना। केवल तभी वेतन और रोजगार भी टिकाऊ ढंग से और निरंतर बढ़ सकेंगे। हाल के वर्षों में एक किस्म की निराशा का माहौल रहा है जिसके तहत यह माना जा रहा है कि भारत की उत्पादकता और प्रतिस्पर्धी क्षमता कभी उत्तर-पूर्वी एशिया या दक्षिण-पूर्व एशिया के स्तर पर नहीं पहुंचेगी। इस निराशा को जड़ नहीं पकड़ने देना चाहिए। इसका कोई तार्किक आधार नहीं है। वास्तव में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए व्यापार में खुलापन लाना और प्रतिस्पर्धात्मक अनुशासन जरूरी है।
ट्रंप की आक्रामक और टकराव भरी बातचीत की शैली को लेकर निराशा का भाव स्वाभाविक है लेकिन इसे भारत की अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधी जरूरतों के लिए व्यापक नकारात्मकता की वजह नहीं बनना चाहिए। भारत को अमेरिका के साथ व्यापक समझौते की तलाश जारी रखनी चाहिए। इसके साथ ही यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते को भी अंतिम रूप देने की जरूरत है। यह अब ट्रंप के शुल्कों के बाद पहले से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। भारत को उन बड़े व्यापार समझौतों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए जिनका वह संभावित हिस्सा बन सकता है।
उदाहरण के लिए व्यापक एवं प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी समझौता यानी सीपीटीपीपी। एक तरह से देखें तो अमेरिका के बाजार के लिए भारत को अपने सभी प्रमुख प्रतिस्पर्धियों (चीन के अलावा) की तुलना में अधिक शुल्क दर का सामना करना अच्छी बात नहीं है। भारतीय कूटनीति को इस हालत से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। परंतु वास्तव में सबसे खराब तो यह होगा कि भारत इन झटकों के उत्तर में व्यापार वार्ताओं से ही विमुख हो जाए।