देश में विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि में भूमि सर्वाधिक अहम और विवादस्पद कारक है। देश में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अक्सर धीमी और महंगी होती है। प्राधिकर की बहुतायत, भू-अभिलेखों का बिखराव, स्टांप शुल्क की असंगत दरें और स्वामित्व में अस्पष्टता आदि ऐसी समस्याएं हैं जो देरी और कानूनी विवादों की वजह बनती हैं। इससे निवेशक हतोत्साहित होते हैं। कंपनियों के लिए ये बाधाएं परियोजना लागत में इजाफे और धन जुटाने को मुश्किल बनाने का कारण बनती हैं।
सरकार ने बीते वर्षों में इन दिक्कतों को दूर करने के लिए कई पहल की हैं। उदाहरण के लिए इंडिया इंडस्ट्रियल लैंड बैंक (आईआईएलबी), डिजिटल इंडिया भू अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम के तहत डिजिटल भू अभिलेख, मॉडल किराएदारी अधिनियम 2021 और रेरा (अचल संपत्ति नियामक प्राधिकरण) जैसे ढांचे जिनका उद्देश्य पारदर्शिता और पहुंच को बेहतर बनाना है।
इसके बावजूद कुछ कमियां बरकरार हैं। उदाहरण के लिए आईआईएलबी मुख्य रूप से एक सूचना पोर्टल के रूप में काम करता है, न कि वास्तविक आवंटन के मंच के रूप में। इसके अलावा डिजिटलीकरण अभी भी सभी राज्यों में एकअसमान तरीके से लागू नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने उचित ही एक व्यापक सुधार की मांग की है।
उसके प्रस्तावों में वस्तु एवं सेवा कर परिषद जैसी ही भू परिषद की बात शामिल है जो केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय सुनिश्चित कर सके। उसने आवंटन, भू उपयोग में बदलाव, जोन निर्धारण और विवाद समाधान के लिए एकल एजेंसियों के रूप में कार्य करने हेतु प्रत्येक राज्य में एकीकृत भूमि प्राधिकरण की बात की है। इसके अलावा निर्णायक स्वामित्व और 3-5 फीसदी की समान स्टांप शुल्क दर जैसी चीजों को अपनाकर संचालन की समस्याओं और लागत संबंधी कमियों को दूर किया जा सकता है।
उम्मीद है कि अगली पीढ़ी के सुधारों के लिए बनने वाला कार्यबल जमीन के मुद्दे पर भी विचार करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से इस कार्यबल की घोषणा की थी। यकीनन सरकार ने पहले भी भूमि अधिग्रहण को सरल बनाने के प्रयास किए हैं। वर्ष2015 में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में एक अध्यादेश के जरिये भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 में बदलाव किया गया था।
जो बदलाव किए गए थे उनमें सामरिक परियोजनाओं, औद्योगिक गलियारों, ग्रामीण अधोसंरचना, सस्ते आवासों और रक्षा क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण हेतु सहमति प्रक्रिया को आसान बनाना शामिल था। बदलावों के मुताबिक ऐसी परियोजनाओं को सामाजिक प्रभाव आकलन से रियायत मिलनी थी और इन्हें तेजी से पूरा करने के लिए मंजूरियों को सुसंगत बनाना था। हालांकि इस अध्यादेश को जबरदस्त राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा।
किसान समूहों और विपक्षी दलों का मानना था कि यह किसान विरोधी है। उनका कहना था कि इसने सुरक्षा को कमजोर किया और इसका झुकाव कारोबारियों की तरफ था। हालांकि इसमें क्षतिपूर्ति और पुनर्वास को उदार बनाने की बातें शामिल थीं। बढ़ते प्रतिरोध के बीच आखिरकार इस अध्यादेश की अवधि समाप्त हो गई और एक अवसर गंवा दिया गया।
बिना भूस्वामियों को अलग-थलग किए या उनके अधिकारों को छीने विकास के लिए जमीन को किफायती ढंग से और जल्दी कैसे उपलब्ध कराया जाए, यह एक बड़ा सवाल है। भूमि सुधार राजनीतिक रूप से हमेशा महत्त्वपूर्ण रहेंगे लेकिन इसके आर्थिक निहितार्थ और भी अहम हैं। उनके लिए राजनीतिक सहमति और पारदर्शी उपायों की आवश्यकता होती है। सहमति निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि न केवल राज्यों और उद्योग जगत के बीच संबद्धता बढ़ाई जाए बल्कि किसान समूहों, नागरिक समुदाय और स्थानीय सरकारों के साथ भी चर्चा की जाए।
बहरहाल एक व्यापक स्तर पर देखें तो जमीन संबंधी अवरोध ही इकलौता लंबित सुधार नहीं है। चार श्रम संहिताएं, जिनका उद्देश्य देश के पुराने श्रम कानूनों को सरल और आधुनिक बनाना है, उन्हें अभी भी पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अस्थिरता और सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण के हिस्से को बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता के बीच, कारक बाजारों में अनसुलझे मुद्दे एक महत्त्वपूर्ण अवसर को गंवाने का खतरा पैदा करते हैं।