बुधवार को जारी किया गया उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण (एएसआई) 2023-24 यह संकेत देता है कि देश का विनिर्माण क्षेत्र वृद्धि कर रहा है लेकिन ढांचागत चिंताएं बरकरार हैं। वित्त वर्ष 24 में सकल मूल्यवर्धन (जीवीए) में मौजूदा मूल्य पर 11.9 फीसदी का इजाफा हुआ लेकिन समग्र उत्पादन 5.8 फीसदी की दर से बढ़ा जो वित्त वर्ष 23 की तुलना में काफी कम है। उस वर्ष महामारी के बाद इसमें 21 फीसदी की दर से वृद्धि हुई थी।
रोजगार में 5.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन प्रति व्यक्ति उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई और वित्त वर्ष 24 में प्रति व्यक्ति शुद्ध मूल्य वर्धन में पिछले वर्ष की तुलना में कोई सुधार नहीं हुआ। यह उत्पादकता में ठहराव को दर्शाता है। भारत जैसे श्रम-प्रधान देश के लिए, जहां विनिर्माण क्षेत्र को आय का समर्थन करना चाहिए, ये आंकड़े उत्साहजनक नहीं हैं।
असली चुनौती अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र की भूमिका में निहित है। वर्षों के नीतिगत ध्यान के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी केवल 17 फीसदी है और रोजगार में केवल 12 फीसदी। यह भारत के लिए वांछित स्तर से बहुत कम है। लाखों अर्द्ध कुशल या कम कुशलता वाले श्रमिक हर वर्ष श्रम शक्ति में शामिल हो रहे हैं। बिना फैक्टरियों में और रोजगार तैयार किए लोगों के पास कम वेतन वाले असंगठित क्षेत्र के काम करने के सिवा कोई विकल्प न रहेगा।
औद्योगिक गतिविधियों का प्रसार भी कुछ जगहों पर केंद्रित है। शीर्ष पांच राज्य ही विनिर्माण जीवीए में 54 फीसदी और रोजगार में 55 फीसदी के हिस्सेदार हैं। इसके अलावा उत्पादन में पांच उद्योगों का दबदबा है जो हैं-बुनियादी धातुएं, मोटर वाहन, रसायन, खाद्य उत्पाद और औषधि। ऐसा संघनन समावेशिता को सीमित करता है और विनिर्माण की व्यापक वृद्धि का वाहक बनने की संभावनाओं को भी प्रभावित करता है।
नीतिगत नजरिये से देखें तो भारतीय विनिर्माण बहुत विभाजित है। इसमें छोटी कंपनियों का दबदबा है जिनकी तकनीक और वित्त तक सीमित पहुंच है। इससे उत्पादकता कम और लागत अधिक बनी हुई है। यह बात स्वीकारी जा चुकी है कि संस्थागत सख्ती निवेश को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए भारत के श्रम कानून उद्यमियों को उनके काम के लिहाज से बहुत कम प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। अनुपालन के बोझ की आशंका और विवादों का भय उद्यमियों को बड़े पैमाने पर नियुक्तियां करने से रोकता है। खासतौर पर श्रम गहन क्षेत्रों में मसलन कपड़ा एवं वस्त्र, फुटवियर और खाद्य प्रसंस्करण आदि जहां भारत को तुलनात्मक बढ़त होनी चाहिए।
ऐसे में यह अहम है कि नीतिगत हस्तक्षेप केवल कर राहत और उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं तक ही सीमित नहीं रहे। उन्नत तकनीक के साथ कुशल श्रमिकों की तादाद बढ़ाना और भौगोलिक विविधता को प्रोत्साहित करना भी अहम है। निवेश को रोजगार से जोड़ने वाली संतुलित नीति भी विनिर्माण आधारित वृद्धि के लिए अहम है। ऐसे में भारत को श्रम गहन क्षेत्रों में कारोबार का आकार बढ़ाने को प्रोत्साहित करना चाहिए।
इसका अर्थ यह है कि सख्ती को शिथिल करना ताकि लोगों को काम पर रखना और औद्योगिक क्लस्टर्स का निर्माण करना आसान हो। उदाहरण के लिए नई श्रम संहिताओं को पारित कर दिया गया लेकिन क्रियान्वयन नहीं हुआ। इसके अलावा कौशल को बदलती तकनीक से जोड़ना आवश्यक है। क्योंकि इस क्षेत्र में डिजिटल उपाय, स्वचालन और पर्यावरण के अनुकूल विनिर्माण कार्यस्थलों को बदल रहे हैं।
अंतत: निवेश सहायता को रोजगार सृजन से जोड़ना आवश्यक है। यह स्वीकार करना होगा कि अमेरिका के साथ व्यापारिक तनावों ने विनिर्माण क्षेत्र में अनिश्चितता बढ़ा दी है, और निकट भविष्य में विशेष रूप से श्रम-प्रधान क्षेत्रों में उत्पादन प्रभावित हो सकता है।
हालांकि, नीति को मध्यम से दीर्घकालिक संभावनाओं पर केंद्रित होना चाहिए। भारत को भूमि, श्रम और पूंजी के क्षेत्रों में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण उत्पादन को बढ़ाया जा सके और बढ़ती कार्यबल के लिए रोज़गार उत्पन्न करने की परिस्थितियां तैयार की जा सकें। इस चरण पर सुधारों को लागू करने में देरी आने वाले वर्षों में विकास को असमान रूप से प्रभावित कर सकती है। इसलिए, सुधारों की दिशा में ठोस और समयबद्ध कदम उठाना अब अत्यंत आवश्यक हो गया है।