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Editorial: संकेंद्रण समस्या- ‘चैंपियनों’ के बजाय बाजार का हो समर्थन

नीति की दिशा ऐसी होनी चाहिए कि आर्थिक खुलापन बढ़े और सरकारी नियंत्रण घटे।

Last Updated- July 17, 2025 | 10:33 PM IST
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यह बात लंबे अरसे से समझी जा रही है कि एक तरफ शुल्कों की दीवार खड़ी कर दूसरी तरफ औद्योगिक नीति के जरिये देसी उद्योगों को सब्सिडी दी जाती है तो उसके कई बुरे नतीजे होते हैं। उनमें से एक है भारी भरकम देसी औद्योगिक समूह तैयार हो जाना। यह बात भारतीय नीति निर्माताओं को ज्यादा अच्छी तरह समझ आनी चाहिए थी क्योंकि यह आजादी के बाद भारत के आर्थिक इतिहास का हिस्सा है। सन 1990 के दशक में जाकर उदारीकरण ने अर्थव्यवस्था में कुछ हलचल पैदा की। लेकिन अब कुछ संकेत इस बात की चिंता पैदा करने लगे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे हालिया दौर में उदारीकरण के बाद के चलन के ये पहलू उलटने लगे हैं।

अर्थशास्त्री अजय छिब्बर ने हालमें हुए कुछ शोधों का जिक्र करते हुए इसी समाचार पत्र में लिखा कि किसी भी एक क्षेत्र के कुल उत्पादन में कुछेक बड़ी फर्मों की बड़ी हिस्सेदारी का चलन पिछले एक दशक में बढ़ गया है। साथ ही इन कंपनियों की कीमत तय करने की ताकत भी बढ़ गई है। ऐसे क्षेत्रों में होड़ नहीं होने के बारे में जो निष्कर्ष आए हैं वे भी परेशानी बढ़ाने वाले हैं। विरोधाभास यह है कि जो क्षेत्र ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उनमें कदम रखने में उतनी ही ज्यादा बाधाएं हैं। पहली बार कदम रखने वालों को उस क्षेत्र में पहले से काम कर रही कंपनियों के आकार के साथ तुलना कर कमतर समझ लिया जाता है।

अगर इन बातों को एक साथ रखकर देखें तो परेशान करने वाली तस्वीर उभरती है। भारत की वृद्धि अपेक्षाकृत छोटी संख्या में मौजूद बड़े कारोबारी घरानों के निवेश और उनके परिचालन विकल्पों पर निर्भर रह गई है। इनमें से कई पर अभी भी कुछ खास परिवारों का ही नियंत्रण है। ऐसा ढांचा जरूरी नहीं कि उत्पादक निवेश तैयार करे या उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी दबावों से संबद्ध लाभ दिलाए। निवेशक और टीकाकार आकाश प्रकाश इसी अखबार में लिखते हैं कि भारतीय कारोबार अल्पावधि के मुनाफे पर अधिक जोर देते हैं और निवेश पर कम। ऐसे में बाजार ढांचे का यह स्वरूप कैसे बरकरार है? आंशिक रूप से ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि वर्तमान के कुछ सर्वाधिक उत्पादक क्षेत्रों मसलन दूरसंचार और ई-रिटेल में नेटवर्क की ऐसी बाह्यताएं शामिल होती हैं जो पहले से मौजूद बड़े आकार की कंपनियों को लाभ पहुंचाती हैं। परंतु यह भी मानना होगा कि काफी हद तक दोष नीतिगत चयनों पर भी जाएगा।

देश ने सचेतन ढंग से ऐसी औद्योगिक नीति और सरकार द्वारा निर्देशित निवेश को चुना जिसने अनिवार्य ढंग से बड़े कारोबारी समूहों को सशक्त बनाया। सरकार के लिए यह आसान होता है कि वह ऐसी कंपनियों वाले कॉरपोरेट के साथ सहयोग करे बजाय ऐसी नीतियां बनाने के जो कई छोटे कारोबारियों को प्रोत्साहन दें। कुछ लोग कहेंगे कि यह वृद्धि और उत्पादकता के लिए बुरी खबर नहीं है। आखिर जापान, कोरिया जैसे देश और यहां तक कि अमेरिका ने भी 19वीं सदी के आखिर में जाइबात्सु, चाइबोल और रॉबर बैरंस जैसे धनवान समूहों की मदद से वृद्धि हासिल की। इन समूहों ने सरकार के साथ सहयोग किया और रेलवे तथा इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे नए क्षेत्र विकसित किए। बहरहाल अंतर यह है कि इससे कार्यकुशलता में भी सुधार हुआ है क्योंकि उन्हें हमेशा टैरिफ के जरिये बचाया गया और निर्यात बाजार पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

विदेश में कामयाब भारतीय कंपनियां कुछ संदिग्ध व्यापारिक उपयोगिता प्रदर्शित कर सकती हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कामयाबी का शिखर छूने वाली कंपनियां यकीनन एक समस्या हैं। जैसा कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कह चुके हैं, देश में सफलतम कारोबारियों की नई नस्ल विश्वस्तरीय उत्पाद या अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले ब्रांड नहीं तैयार कर रही है। यह भी कहा जा सकता है कि वे उस निवेश संसाधन की खपत कर रहे हैं जिसे अन्यथा किसी और जगह पर लगाया जा सकता था। बुनियादी समस्या इन कंपनियों में नहीं है क्योंकि ये तो बस अधिक से अधिक मुनाफा कमाने में लगी हैं। दिक्कत नीतिगत दिशा में है क्योंकि आर्थिक खुलापन बढ़ाने और सरकारी नियंत्रण कम करने की जरूरत है। परंतु हो इसका उलटा रहा है।

First Published - July 17, 2025 | 10:30 PM IST

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