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चुनावी वादों का आर्थिक गणित

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:30 PM IST

राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को की जाने वाली पेशकश समय के साथ बदलती रहती है। अतीत में अगर सातों दिन, 24 घंटे बिजली देने के वादे ने उनकी मदद की तो अब उसकी जगह सबको नि:शुल्क बिजली ने ले ली है। मुफ्त बिजली ने आम आदमी पार्टी (आप) को दिल्ली में जीत हासिल करने में एक हद तक मदद की। अनुमान के मुताबिक ही पार्टी अब यही पेशकश अन्य राज्यों में भी कर रही है। लेकिन अब अन्य दलों ने भी नि:शुल्क बिजली देने का वादा शुरू कर दिया है। पंजाब में जहां आप सत्ता की तगड़ी दावेदार है, उसने वादा किया है कि राज्य की सभी महिलाओं को हर माह 1,000 रुपये की राशि दी जाएगी। दूसरी ओर शिरोमणि अकाली दल ने कहा है कि वह गरीब परिवारों की महिला मुखियाओं को प्रति माह 2,000 रुपये की राशि देगी। प्रदेश कांग्रेस प्रमुख ने कहा है कि महिलाओं को प्रतिमाह 2,000 रुपये के अतिरिक्त नि:शुल्क गैस सिलिंडर भी प्रदान किया जाएगा।
निश्चित तौर पर लोकलुभावन मांग और इससे जुड़े निर्णय नये नहीं हैं लेकिन इस बात पर बहस हो सकती है कि दीर्घावधि में अर्थव्यवस्था पर इनका क्या असर होगा। राजनीतिक दलों को इस प्रकार के वादे करने से कोई नहीं रोक सकता। कांग्रेस पार्टी ने 2019 के आम चुनाव में यह वादा किया था कि देश के सर्वाधिक गरीब 20 फीसदी परिवारों को सालाना 72,000 रुपये की राशि दी जाएगी। किसी लक्षित समूह को नकदी हस्तांतरण करने में कुछ भी गलत नहीं है। बल्कि इसे सब्सिडी के बजाय समर्थन का बेहतर तरीका माना जाता है। बहरहाल, भारतीय संदर्भ में आय समर्थन को अन्य सब्सिडी का स्थानापन्न नहीं माना जाता है। इसके विपरीत, अन्य सब्सिडी मसलन मुफ्त बिजली का वादा आदि पहले से दबाव में चल रहे राजकोष पर व्यय का बोझ बढ़ाते हैं।
आय समर्थन की बढ़ती स्वीकार्यता तथा राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले अन्य वादे एक तरह से यही दिखाते हैं कि हमारी व्यवस्था जरूरी पैमाने पर आय के अवसर नहीं निर्मित कर पा रही है। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनके आंकड़ों पर नजर डालें तो पांच वर्ष पहले की तुलना में दिसंबर 2021 में उन राज्यों में रोजगारशुदा लोगों की तादाद कम हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर भी देखें तो भारत उन देशों में शामिल हैं जिनका रोजगार अनुपात दुनिया में सबसे कम है। श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी अब तक के निचले स्तरों में से एक पर है। शायद महिलाओं को नकद राशि देने का वादा इसी तथ्य से उपजा है। मध्यम अवधि में एक बड़ा जोखिम यह होगा कि रोजगार के अवसरों में व्यापक इजाफे के अभाव में किसी न किसी तरह लोगों की मदद करने का दबाव बढ़ेगा। अर्थव्यवस्था में फिलहाल जो बड़े बदलाव चल रहे हैं वे भी इस समस्या को बिगाड़ सकते हैं।
सन 2017 में अर्थशास्त्री डैनी रोड्रिक ने एक पर्चा लिखा था- लोकलुभावनवाद और वैश्वीकरण का अर्थशास्त्र। इसमें उन्होंने वैश्वीकरण के संदर्भों में लोकलुभावनवाद के आर्थिक संदर्भों के बारे में बात करते हुए कहा था कि तकनीकी बदलाव तथा विजेता को सबकुछ हासिल होने वाली व्यवस्था ने भी इस रुझान में योगदान किया है। भारत टेक स्टार्टअप में उछाल का जश्न मना रहा है और यहां यूनिकॉर्न स्टार्टअप (ऐसा स्टार्टअप जिसका मूल्यांकन एक अरब डॉलर से अधिक हो) की तादाद बढ़ती जा रही है। परंतु यह ऐसे समय हो रहा है जब श्रम शक्ति भागीदारी में कमी आई है। यह टिकाऊ स्थिति नहीं है और इससे नीतिगत जटिलताएं बढ़ेंगी। महामारी से हालात और बिगड़े हैं। वांछित और गुणवत्तापूर्ण वृद्धि की कमी से निपटने की प्रतिक्रियाएं दीर्घावधि में आर्थिक संभावनाओं को क्षति पहुंचा सकते हैं।
राज्यों द्वारा निजी क्षेत्र के रोजगार में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण भी इसका उदाहरण है। सुविचारित कृषि कानूनों को वापस लिया जाना भी इसका एक और उदाहरण है। यह बात तो सभी जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में मौजूदा हालात हमेशा नहीं बने रहेंगे, लेकिन अधिकांश विपक्षी दलों ने किसान प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया।
इस संदर्भ में व्यापक जोखिम यह है कि सब्सिडी में इजाफा करने या अन्य तरह के समर्थन में बढ़ोतरी करने से सरकार की व्यय क्षमता प्रभावित होगी। इसका असर सड़क निर्माण और स्कूलों के निर्माण आदि पर पड़ेगा। जैसा कि इस समाचार पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया, पंजाब में नकदी हस्तांतरण का वादा पूरा करने के लिए सालाना 12,000 करोड़ रुपये की राशि व्यय करनी पड़ सकती है। अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में प्रदेश स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण पर 4,662 करोड़ रुपये खर्च करेगा। हालांकि हाल के वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर सब्सिडी व्यय में कमी आई है।
अर्थशास्त्री सुदीप्त मंडल और शतद्रु सिकदर ने 2019 अपने पत्र ‘सब्सिडीज, मेरिट गुड्स ऐंड द फिस्कल स्पेस फॉर रिवाइविंग ग्रोथ: एन एस्पेक्ट ऑफ पब्लिक एक्सपेंडीचर इन इंडिया’ में बताया कि विभिन्न प्रकार की सब्सिडी 1987-88 के जीडीपी के 12.9 फीसदी से कम होकर 2015-16 में जीडीपी के 10.3 फीसदी तक आ गई। इस अनुमान में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं के तहत किया गया नकदी हस्तांतरण शामिल नहीं था। पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा जुटाए आंकड़े भी दिखाते हैं कि राजस्व के प्रतिशत के रूप में केंद्र का सब्सिडी व्यय कम हुआ है।
महामारी के कारण अब व्यय में इजाफा हुआ है लेकिन यह अहम है कि व्यापक रुझान को पलटने न दिया जाए। ऐसे में सरकार को ढांचागत रुख अपनाना होगा। चुनावी वादों की प्रतिस्पर्धा के कई अनचाहे परिणाम भी सामने आ सकते हैं। भारत में इस विषय पर बहस करने की आवश्यकता है कि सरकारी राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा सब्सिडी और नकदी हस्तांतरण में इस्तेमाल किया जा सकता है। केंद्र और राज्य दोनों मिलकर वित्तीय सहायता कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं ताकि संसाधनों का किफायती इस्तेमाल किया जा सके।
सब्सिडी को लेकर प्रस्तुत उपरोक्त पर्चा भी कहता है कि गैर जरूरी सब्सिडी को तार्किक बनाकर तथा अन्य सुधारों को अपनाकर जीडीपी के 6 फीसदी के बराबर गुंजाइश बनायी जा सकती है। इससे भारत की विकास संबंधी जरूरतों को पूरा करने तथा समावेशी वृद्धि को गति देने में बहुत मदद मिलेगी। इसके अलावा भारत का कर-जीडीपी अनुपात भी बहुत कम है। यह भी सरकार के व्यय को सीधे प्रभावित करता है। इस पर भी तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। आगामी बजट सत्र में सरकार के पास अवसर होगा कि इस दिशा में कुछ दूरी तय की जाए।

First Published : January 31, 2022 | 10:57 PM IST