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दोधारी तलवार: भारत और फ्रांस के बीच बढ़ते सामरिक संबंध

भारत और फ्रांस के बीच बढ़ते सामरिक रिश्ते के बीच समुद्री रिश्ते को रक्षा, अंतरिक्ष, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्तों के संरेखित करना बेहतर होगा।

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अजय शुक्ला   
Last Updated- June 16, 2024 | 9:08 PM IST

चार देशों के सुरक्षा गठजोड़ (QUAD) और उसकी सैन्य कवायद- मलाबार युद्धाभ्यास को हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता को रोकने में सीमित कामयाबी मिली है।

चीन पर दबाव बढ़ाने के लिए अमेरिका ने सितंबर 2021 में अपने दो सबसे मजबूत और सक्षम क्षेत्रीय सहयोगियों ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम को साथ लेकर एक ‘ऑकस’ समूह बनाया।

ऑकस ने तत्काल घोषणा की कि ऑस्ट्रेलिया को पारंपरिक सशस्त्र परमाणु हथियार संपन्न पनडुब्बी बेड़ा तैयार करने में मदद की जाएगी। ऑकस के दो स्तंभ होने थे: स्तंभ एक में ऑस्ट्रेलिया को बगैर परमाणु हथियारों के परमाणु पनडुब्बी प्रणोदन (प्रपल्शन) का असाधारण हस्तांतरण होना था।

जबकि दूसरे स्तंभ में आठ सैन्य एवं उच्च तकनीकी क्षेत्रों में सहयोग पर ध्यान केंद्रित करना था जो थे: आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, क्वांटम टेक्नॉलजी, नवाचार, सूचना साझेदारी, साइबर सूचना, समुद्र के भीतर की गतिविधि, हाइपरसोनिक और काउंटर हाइपरसोनिक तथा इलेक्ट्रॉनिक युद्ध।

हाल ही में निकट सहयोग से जुड़ी एक अन्य घोषणा करते हुए ऑकस ने कहा कि इस वर्ष के अंत तक उसके तीन सदस्य देश एक नई ‘त्रिपक्षीय व्यवस्था’ बनाएंगे जो उन्हें पी-8 पोसाइडन सोनोबॉय (यह उपकरण जो पानी में गतिविधियों का पता लगाता है) से सूचना साझेदारी का अवसर देगी। यह ऑकस पिलर2 की पहली तकनीक है जो सामने आ रही है।

ऑकस के सभी तीन सदस्य देश चीनी पनडुब्बियों का पता लगाने के लिए बोइंग निर्मित पी-8 पोसाइडन समुद्री निगरानी विमानों का प्रयोग करते हें जिन्हें दुनिया में पनडुब्बियों का पता लगाने में सबसे सक्षम विमान माना जाता है। पी-8 के काम करने के तरीके की बात करें तो वह सोनोबॉय को पानी में गिराकर पनडुब्बियों का पता लगाता है। सोनोबॉय ट्रैकिंग के आंकड़ों को साझा करना दिखाता है कि ये देश किस तरह सूचनाएं जुटा रहे हैं।

आधुनिक युद्ध कला में सॉफ्टवेयर की प्रमुखता को देखते हुए यह बात ध्यान देने लायक है कि ऑकस पहले ही पिलर 2 के माध्यम से सॉफ्टवेयर क्षमता प्रदान कर रहा है। अमेरिका के पास 120 पी-8 पोसाइडन हैं, ऑस्ट्रेलिया के पास 12 और यूके के पास नौ।

सोनोबॉय सूचना बहुत संवेदनशील होती है। यहां तक कि फाइव आई साझेदारों यानी ऑकस देशों तथा कनाडा और न्यूजीलैंड के लिहाज से भी। तीनों ऑकस देशों के पास उपलब्ध आंकड़े उनकी पहुंच तथा दायरा बढ़ाएंगे क्योंकि वे एक दूसरे के आंकड़े साझा कर सकेंगे।

सितंबर 2021 में की गई घोषणा में भारतीय नौसेना की चूक स्पष्ट रूप से देखी गई जो 12 पी-8 विमान संचालित करती है। परंतु ऑकस एक ऐसी व्यवस्था है जिसे बहुत करीबी साझेदारों के बीच रहना है। अमेरिका ने कुछ ऐसा करने का निर्णय लिया जो उसने पहले कभी नहीं किया था। उसने ऑस्ट्रेलिया को परमाणु संचालित पनडुब्बियां देने का निर्णय लिया। इससे दशकों पहले एक बार उसने ब्रिटेन को कुछ परमाणु तकनीक संबंधी सहायता प्रदान की थी। कोई अन्य देश, खासकर भारत को कभी परमाणु पनडुब्बी प्रौद्योगिकी की सहायता पेशकश अमेरिका ने नहीं की।

अमेरिका द्वारा अपनी इस सामरिक परंपरा को तोड़ना बताता है कि वह ताइवान को लेकर किसी और संकट की स्थिति में ऑस्ट्रेलिया की मदद को अनिवार्य मानता है। परंतु अमेरिकी सेना भारत को इन व्यवस्थाओं में शायद ही कभी अपरिहार्य माने अमेरिका मानता है कि ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन अमेरिकी सेना के साथ लड़ेंगे। यही वजह है कि उसकी नजर में ऑस्ट्रेलियाई सेना को उच्च तकनीक और उपकरणों से लैस करना जरूरी है।

ऑस्ट्रेलिया स्वयं को एशिया में अमेरिका का सबसे विश्वसनीय सहयोगी मानता है। पहले विश्व युद्ध से ही वह हर युद्ध में अमेरिका के साथ लड़ा है। अमेरिका के साथ उसके रिश्ते उसकी दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए अहम हैं। ऐसे में अमेरिका के लिए सवाल यह है कि चूंकि ऑस्ट्रेलिया हमारा समर्थन करता है तो हम उसे कितना अधिक क्षमता संपन्न बना सकते हैं? इस सवाल का जवाब ही बताता है कि अमेरिका ने ऑस्ट्रेलियाई सेना को मजबूत बनाने का निर्णय क्यों लिया।

पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के अन्य संभावित साझेदारों की बात अलग है। जापान का दावा है कि वह पिलर 2 के कई क्षेत्रों में अपने दम पर अहम प्रौद्योगिकी क्षमता रखता है। इसके चलते उसे किसी सहयोग की आवश्यकता नहीं है। जापान के समक्ष सीधा सवाल चीन का है। क्या उसे चीन के विरुद्ध अमेरिकी अभियान में शामिल होना होगा? पिलर 2 के मसले पर जापानियों का कहना है कि उन्हें आमंत्रित तो किया गया है लेकिन इससे उन्हें कुछ हासिल होगा या कुछ गंवाना होगा?

इस बीच अमेरिका और भारत की नौसेनाएं चीनी पनडुब्बियों का पता लगाने में सहयोग कर रही हैं। सवाल यह है कि यह सहयोग कितना मजबूत है? भारत के अपने पूर्वग्रह हैं। हमारे कूटनयिकों के मुताबिक भारत के पूर्वग्रह समझे जा सकते हैं क्योंकि अगर आप चीन के पड़ोसी देश हैं तो आप चाहेंगे कि ऐसा कुछ न करें जिससे वह भड़के। चीन कई तरह से मुश्किल खड़ी कर सकता है।

समुद्री क्षेत्र में भारतीय नौसेना के पास सहयोग के कई विकल्प हैं क्योंकि नौसेनाएं अक्सर जमीनी सीमा से दूर काम करती हैं जहां जल्दी ध्यान नहीं जाता। इतना ही नहीं समुद्र में दो नौसेनाओं के बीच का सहयोग साफ नजर आने के बजाय छिपा अधिक होता है।

अमेरिका और भारत का नौसेना सहयोग अभी संयुक्त अभ्यास के स्तर पर नहीं पहुंचा है हालांकि अमेरिका नॉर्वे और आइसलैंड समेत तमाम देशों के साथ ऐसे अभ्यास करता है। इसकी एक वजह है दोनों के बीच क्षमताओं का बड़ा अंतर। दूसरी वजह है भारत का सुर्खियों से बचने का प्रयास। भारत खामोशी से अभ्यास करना चाहता है हालांकि एक सीमा से परे ऐसा करना मुश्किल होता है।

भारत के लिए क्या सबक हैं? भारत हाशिये पर खड़ा होकर यह देखेगा कि एक परमाणु संपन्न पनडुब्बी ऑस्ट्रेलिया को दी जा रही है। परंतु अमेरिका कुछ खास करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि भारत के साथ परमाणु पनडुब्बी के मामले में सहयोग करने में भूराजनीतिक स्थितियां बाधा बन रही हैं। भू-सामरिक, आर्थिक और तकनीकी दृष्टिकोण से शायद अमेरिका के लिए यही बेहतर है कि वह हाशिये पर रहे और फ्रांस को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित करे।

भारत और फ्रांस के बीच पनडुब्बियों और विमानों को लेकर होने वाले सहयोग को देखते हुए यही मानना उचित होगा कि फ्रांस आगे आए और भारत के साथ पनडुब्बी के क्षेत्र में काम करे। फ्रांस की परमाणु पनडुब्बियों को तकनीकी दृष्टि से बेहतरीन माना जाता है। वे हमारी पनडुब्बियों की तुलना में ये छोटी होती हैं और परिचालन के नजरिये से भी ये बेहतर होती हैं। फ्रांस की समुद्री परमाणु तकनीक को अमेरिका से उन्नत माना जाता है।

अमेरिकी रिएक्टरों के उलट फ्रांस के परमाणु पनडुब्बी रिएक्टर कम समृद्ध यूरेनियम का इस्तेमाल करते हैं। भारत और फ्रांस के बीच बढ़ते सामरिक रिश्ते के बीच समुद्री रिश्ते को रक्षा, अंतरिक्ष, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्तों के संरेखित करना बेहतर होगा। दोनों देशों के बीच ये रिश्ते लगातार मजबूत हुए हैं।

First Published : June 16, 2024 | 9:02 PM IST