अभी 2025 शुरू ही हुआ है और लगता है कि ‘डीप स्टेट’ को ‘वर्ष का शब्द’ करार दे दिया जाएगा। कुछ भी गलत होता है तो ठीकरा डीप स्टेट के सिर फोड़ दिया जाता है। मगर यह कोई मिथक नहीं है। यह हमारे जीवन और शासन व्यवस्था का उतना ही अंग है, जितना शैलो स्टेट और नॉन स्टेट। हमें इन परिभाषाओं की पड़ताल करके देखना चाहिए कि ये किस तरह एक-दूसरे गुंथे हुए हैं। डीप स्टेट अब तमाम लोकतांत्रिक देशों में षडयंत्र सिद्धांतों को आगे बढ़ाने का जरिया बन गया है। सबसे पहले हमें शब्दकोष या विकीपीडिया में इसकी परिभाषा पर ध्यान देना चाहिए। इसके मुताबिक डीप स्टेट सत्ता का गोपनीय और अनधिकृत नेटवर्क हैं, जो देश के राजनीतिक नेतृत्व से अलग रहकर अपने एजेंडे और लक्ष्य के लिए काम करता रहता है। जाहिर है इसमें नकारात्मकता और साजिश की बू आती है। तो तीन उदाहरण देखते हैं।
1. बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन। यह सड़कों पर हिंसा भरा नेतृत्वविहीन और नाटकीय घटनाक्रम था। इसकी तोहमत अमेरिकी डीप स्टेट के मत्थे मढ़ दी गई। इसे अमेरिकी डीप स्टेट की कामयाबी भी बताया गया और कहा गया कि भारत में भी ऐसा ही करने की योजना है। वजह? बाइडन प्रशासन और अमेरिकी डीप स्टेट नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करते।
2. दो साल में अदाणी समूह के खिलाफ एक के बाद एक खुलासे। इनमें से कई खुलासे संदिग्ध से दिखने वाले शॉर्ट सेलर समूह हिंडनबर्ग ने लगाए, जो जिस तरह आया था उसी रहस्यमय तरीके से अचानक गायब हो गया। ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) से रकम पाने वाले कई अन्य संस्थानों से भी तमाम खबरें आईं। इंटरनैशनल कंर्सोटियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (आईसीआईजे) भी है। दोनों को ओपन सोसाइटी फाउंडेशन्स से मदद मिलती है, जिसकी बुनियाद जॉर्ज सोरोस ने रखी थी। सोरोस को वाम रुझान वाला अराजकतावादी कहा जाता है। उन्होंने ही 1992 में बैंक ऑफ इंगलैंड और पाउंड को तोड़ दिया था। 1997 के वित्तीय संकट में कई पूर्वी एशियाई देशों को कमजोर करने का आरोप भी उन पर ही है। इन दोनों संगठनों ने अदाणी के खिलाफ खबरों में मदद की। इसमें साजिश का सिद्धांत यह है कि अदाणी नहीं पर्दे के पीछे से असली हमला मोदी सरकार पर था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में मौजूदा बजट सत्र में कहा भी था कि कई सालों में पहली बार कोई सत्र विदेशी हरकतों के बिना आरंभ हुआ है।
3. तीसरी बात कनाडा और अमेरिका में हुई, जहां भारत शर्मिंदा करने वाले मुश्किल हालात में फंसा था। ये मामले वहां सिख चरमपंथियों की गतिविधियों से जुड़े हैं। दोनों मामलों में अमेरिकी मीडिया ने वैसे ही बढ़चढ़कर खबरें चलाईं, जैसे फाइनैंशियल टाइम्स ने अदाणी मामले में चलाई थीं। कहा जा रहा है कि यह सब संयोग तो नहीं है और जरूर यह डीप स्टेट का काम होगा। अब तो डॉनल्ड ट्रंप, ईलॉन मस्क और उनके साथी भी यही कह रहे हैं।
मगर क्या बांग्लादेश में हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि यह ‘संभावित गोपनीय और अवैध’ समूहों का काम है, जो अमेरिका सरकार की निगरानी में काम कर रहे थे? अगर आपने पिछले महीने जॉर्ज सोरोस के बेटे की वे तस्वीरें देखीं, जिनमें वह बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस से मिलने ढाका आए थे तो आपका शक पुख्ता हो जाएगा। इसके बाद वह तस्वीर भी देखें जिसमें जो बाइडन यूनुस के साथ गलबहियां करते नजर आ रहे हैं। अगर हसीना का पतन वाकई अमेरिका के इशारे पर हुआ तो क्या कोई डीप स्टेट अपने दम पर काम कर रहा था? या बाइडन प्रशासन के साथ मिलीभगत थी? ऐसा था तो यह डीप स्टेट की उस परिभाषा पर खरा नहीं उतरता, जो साजिश सिद्धांत के पैरोकार देते हैं।
ऐसे रहस्यमय और अस्पष्ट परिभाषा वाले संगठन होते हैं जो किसी नियमित सत्ता के उपकरण के तौर पर काम करते हैं। मगर अब उलझाने वाला सवाल है कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद को आप क्या कहेंगे? नॉन-स्टेट एक्टर यानी राज्य की सत्ता से अलग ताकत या डीप स्टेट? पाकिस्तान इन दोनों परिभाषाओं को आसानी से नकार देगा। वास्तव में वे की सत्ता से जुड़े हैं और भारत को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।
अदाणी का मामला जटिल हो सकता है क्योंकि हिंडनबर्ग या ओसीसीआरपी की अधिकतर खबरों में अमेरिकी सरकार की सीधी भूमिका नहीं दिखती। तो क्या डीप स्टेट काम कर रहा था? लेकिन अमेरिकी न्याय विभाग और प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग ने जो कहा वह हिंडनबर्ग से बहुत अधिक नुकसान पहुंचाने वाला था। अब सवाल है कि हिंडनबर्ग और ओसीसीआरपी राज्य से अलग काम कर रहे थे या उसके साथ मिलकर? या इसका उलट सच है?
और आखिर में भारत को कनाडा और अमेरिका में निज्जर और पन्नुन पर जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, उन्हें डीप स्टेट की गतिविधि इसलिए बताया गया क्योंकि अमेरिका और कनाडा के मीडिया का कुछ हिस्सा इन पर ज्यादा सक्रिय था। मगर उसकी तमाम खबरें इन देशों के खुफिया अधिकारियों से मिली जानकारी पर ही थीं। कुछ लोग डीप स्टेट को अफसरशाही, प्रशासनिक सेवा, पुलिस, सशस्त्र बल, न्यायपालिका, नियामक, चुनाव आयोग और अन्य संस्था मान सकते हैं, जो कई सरकारों के दौरान काम करती रहती हैं। वे कायदे से काम करती हैं, निरंतरता बनाए रखती हैं और विरासत की रक्षा करती हैं। 1996 से 1999 के बीच भारत में प्रधानमंत्री बदलते रहे मगर बेहतरीन नौकरशाहों, सैन्य नेताओं और परमाणु वैज्ञानिकों ने हमारा सामरिक कार्यक्रम जारी रखा, उसकी हिफाजत की और एक शब्द भी बाहर नहीं जाने दिया।
यही व्यवस्था अलग ढंग से भी काम कर सकती है। अगर उन्होंने इतने सालों तक परमाणु परिसंपत्तियों को गोपनीय रखा, शांतिपूर्ण उद्देश्य वाली बताया तो 1998 में उन्हें सैन्य बताते हुए सबके सामने क्यों ले आए? क्योंकि वाजपेयी सरकार ने ऐसा करने के लिए कहा। जो डीप स्टेट निरंतरता देता है और मोटे तौर पर नीतियों और संप्रभुता के प्रति निष्ठा अटूट रहने का भरोसा दिलाता है वह राजनीतिक नेतृत्व के कहने पर बदल भी जाता है। इसे हम शैलो स्टेट कहते हैं। शैलो या उथलेपन का मतलब कमजोरी नहीं बल्कि ढलना है। असली ताकत तो उन्हीं के पास होती है। राजनीतिक नेतृत्व उनका इस्तेमाल डीप स्टेट को नियंत्रण में रखने के लिए करता है। शैलो स्टेट कमजोर होता है तभी डीप स्टेट एजेंडा संभालता है। हमने परमाणु समझौते पर मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर होने के बाद ऐसा होते देखा था। समझौते का ज्यादातर विरोध उनके दफ्तर और विदेश मंत्रालय से लीक हुई जानकारी पर आधारित था। विरोध करने वाले अमेरिका के विरोधी और ऐसे लोग थे, जिन्हें यह समझौता पच नहीं रहा था। यही वजह है कि परमाणु जवाबदेही कानून ऐसा बना जिसने समझौते के लाभ समाप्त कर दिए। मोदी सरकार के बजट में इसे बदलने का वादा किया गया है और मोदी-ट्रंप के साझा बयान में भी इसका जिक्र है। आखिर में नॉन-स्टेट कहां नजर आता है? प्राचीन काल से संप्रभु देश अपना काम निकालने के लिए नॉन-स्टेट कारकों का प्रयोग करते रहे हैं। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अशोक के समय के भिक्षुओं से लेकर मध्यकालीन सूफियों तक और अब ऑक्सफैम, ओमिडयार तथा सोरोस तक नॉन-स्टेट कारकों के पास असली शक्ति तभी होती है जब वे राज्य की सत्ता के साथ मिलकर काम करते हैं।
उदाहरण के लिए यूएस एजेंसी फॉर इंटरनैशनल डेवलपमेंट (यूएसएड) क्या है? यह डीप स्टेट नहीं हो सकती है क्योंकि यह अमेरिका सरकार के हाथ में है। इतनी ज्यादा है कि अब तो मार्को रुबियो ने इसकी सीधी कमान संभालकर इसे विदेश मंत्रालय में जोड़ लिया है। ट्रंप की आपत्ति है कि इस पर वामपंथी विचारकों ने कब्जा कर लिया था, जो इसका इस्तेमाल अमेरिका के हित में नहीं बल्कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए कर रहे थे।
सहस्राब्दियां लांघकर आज के भारत में आएं और पूछें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है? भारतीय जनता पार्टी कहेगी कि यह नॉन-स्टेट संस्था और दुनिया का सबसे बड़ा गैर सरकारी संगठन है। कांग्रेस इसे भारतीय जनता पार्टी का डीप स्टेट बताएगी। अगर आप दोनों से सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बारे में पूछें तो दोनों का जवाब इसके एकदम उलट होगा। शैलो स्टेट के किसी मुखिया का डीप स्टेट दूसरे मुखिया के लिए नॉन-स्टेट कारक हो जाता है।