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डॉनल्ड ट्रंप लिखेंगे 2025 की इबारत

शुल्क तथा व्यापार पर ट्रंप का नजरिया अमेरिका में बहुसंख्यक आबादी के नजरिये से मेल खाता है और पूरी दुनिया को उसके हिसाब से ढलना होगा। बता रहे हैं

Last Updated- December 16, 2024 | 9:50 PM IST
Tariff War

हाल फिलहाल के अतीत में तो याद नहीं आता कि नए साल की देहरी पर खड़ी दुनिया का भाग्य किसी एक व्यक्ति पर इतना निर्भर रहा हो, जितना आज है। पिछले कुछ हफ्तों में ऐसा लगा है मानो तमाम देशों के प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक फैसले अगली जनवरी तक के लिए रोक दिए गए हैं, जब डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालेंगे।

अमेरिका निस्संदेह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। इसके राष्ट्रपति के कदमों का असर बाकी दुनिया पर पड़ना ही है। लेकिन ट्रंप अमेरिका के बाकी राष्ट्रपतियों की तरह नहीं हैं। विदेश और आर्थिक नीति के मामले में वह सबसे अलग लीक पर चलते हैं, जो अमेरिका के साथ बाकी दुनिया में भी उथलपुथल मचा सकती है। यही वजह है कि दुनिया दम थामे उन्हें देख रही है। भूराजनीति के क्षेत्र में विश्व पश्चिम एशिया और यूक्रेन पर ट्रंप के कदमों की प्रतीक्षा कर रहा है। ट्रंप ने अमेरिका में आने वाले आयात पर अधिक शुल्क लगाने और अवैध आव्रजन पर सख्ती बरतने के दो प्रमुख वादे किए थे। आर्थिक नीति निर्माता दोनों वादों पर ट्रंप की कार्रवाई देखने और झेलने के लिए तैयार हो रहे हैं।

पश्चिम में मुख्यधारा के मीडिया में ट्रंप को खलनायक बनाने की फितरत इतनी ज्यादा है कि उन्हें उस संकल्प का श्रेय भी नहीं दिया जा रहा, जिससे शायद ही कोई असहमति रखता हो। मार्च 2023 में ट्रंप ने अपने भाषण में एक बड़ी बात कही थी: दुनिया कम लड़ाइयों के साथ भी चल सकती है। उन्होंने कहा था, ‘हमें अमन चाहिए। साथ ही उस नियो-कंजर्वेटिव व्यवस्था को भी पूरी तरह खत्म करने का संकल्प लेना चाहिए, जो विदेश में आजादी और लोकतंत्र की लड़ाई की आड़ में हमें अनंत युद्धों की आग में झोंक रही है मगर असल में वह हमें तीसरी दुनिया का (बेहद गरीब) देश बना रही है और तीसरी दुनिया में चल रही तानाशाही हमारे देश में भी ला रही है। विदेश मंत्रालय, रक्षा अफसरशाही, खुफिया सेवाओं और बाकी सब को पूरी तरह बदलने और नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है ताकि सत्ता में काम कर रहे ऐसे बाहरी लोग (डीप स्टेट) खत्म हों और अमेरिका फर्स्ट का झंडा बुलंद हो।’

अगर यह क्रांतिकारी सोच नहीं है तो क्या है। बड़ा सवाल यह है कि डीप स्टेट ट्रंप को उनकी पसंद के एजेंडा पर काम करने देगा या नहीं। संयोग कहें या ट्रंप का भाग्य कहें, पश्चिम एशिया में सीरिया के असद शासन का तख्तापलट हो गया। मुद्दा यह नहीं है कि ट्रंप सीरिया से अमेरिकी जवानों को निकाल सकते हैं या नहीं। देखना यह है कि वह ग्रेटर इजरायल बनाने की योजना और ईरान जैसी दूसरी शत्रुवत सरकारों से निपटने की नियो-कंजर्वेटिव योजनाओं पर क्या कदम उठाते हैं। अमेरिका में इजरायल समर्थक खेमा काफी ताकतवर है। ट्रंप खुद भी ईरान पर सख्त रुख दिखाते रहे हैं। ट्रंप के लिए शांति के अपने सपने को पश्चिम एशिया के मामले में साकार करना बहुत चुनौती भरा होगा।

यूक्रेन पर काफी उम्मीद नजर आती है। ट्रंप जोर-शोर से कहते आए हैं कि यूक्रेन को रूस के साथ टकराव खत्म करने के लिए बातचीत करनी चाहिए। बाइडन प्रशासन ने रूसी इलाकों में लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें दागकर ट्रंप के लिए यह रास्ता भी मुश्किल बनाने की कोशिश की। रूस ने नई मिसाइल से उसका जवाब दिया, जिससे बचने या जिसे खत्म करने लिए नाटो के पास कोई रास्ता नहीं था। दो हफ्ते की शांति के बाद यूक्रेन ने एक बार फिर रूस में लंबी दूरी की मिसाइल दागी है। रूस से इसका कड़ा जवाब आना तय है। रूस स्पष्ट कर चुका है कि वह यथास्थिति स्वीकार करने पर राजी नहीं है और अब कोई भी समझौता रूस की ही शर्तों पर होगा। अगर ट्रंप यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को विवश कर वहां अमेरिका का दखल पूरी तरह खत्म करने का फैसला कर लें तो हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए।

अमेरिका में घरेलू मोर्चे पर किसी तरह का भ्रम नहीं है। शुल्क बढ़ना तय है और अवैध घुसपैठियों को वापस भेजा जाना भी तय है। सवाल यह है कि ट्रंप कितनी जल्दी और किस हद तक दोनों कदम उठाते हैं। ट्रंप के लिए शुल्क तो आस्था का मामला है। उन्हें गहरा और पूरा विश्वास है कि समृद्ध अमेरिका का उनका सपना शुल्कों से ही साकार होगा। शुल्कों में उनका यह भरोसा 1980 के दशक से ही रहा है, जब व्यापार घाटा कम करने के लिए 1989 में उन्होंने जापान से हो रहे आयात पर 15 से 20 प्रतिशत शुल्क लगाने की मांग की थी।

जिन्हें संदेह हो वे रॉबर्ट लाइथिजर की ‘नो ट्रेड इज फ्री’ पढ़ सकते हैं। लाइथिजर पिछली ट्रंप सरकार में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि थे और उनके विचारों को ट्रंप का भरपूर समर्थन मिलता था। इस बार वह वित्त मंत्री या वाणिज्य मंत्री पद के लिए होड़ में थे मगर बात बन नहीं पाई। यह सोचना भूल होगी कि मुक्त व्यापार के खिलाफ होना यानी बुनियादी आर्थिक समझ को नजरअंदाज करना है। यह विचार भी काफी सोच-समझकर बनाया गया है। लाइथिजर के इस विचार के मुख्य बिंदु इस तरह हैं। सबसे पहले मुक्त व्यापार ज्यादा कारगर होने की बात सही नहीं है क्योंकि इसके फायदे कुछ को ही मिलते हैं और नुकसान बहुत अधिक को होता है। ऐसा भी नहीं है कि नुकसान झेलने वालों को व्यापार के फायदों के जरिये भरपाई की जा रही है। उदाहरण के लिए विनिर्माण करने वालों को सेवा क्षेत्र के कुशल कामगारों की जगह नहीं दी जा सकती। पूरे समुदायों को नई जगह लाना भी कोई आसान काम नहीं है।

दूसरा सेवा क्षेत्र से उतने रोजगार नहीं आते, जितने विनिर्माण से आते हैं। केवल विनिर्माण से ही ज्यादातर अमेरिकियों को अच्छी कमाई वाली नौकरी मिल सकती हैं।

तीसरा, अमेरिका को विनिर्माण चाहिए क्योंकि इस्पात और दवाओं जैसे सामान के लिए पूरी तरह दूसरों पर निर्भर होना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं है। विनिर्माण का निर्यात सेवा के निर्यात से नौ गुना अधिक है और इसीलिए अमेरिका के व्यापार घाटे पर अंकुश रखने के लिए जरूरी है। विनिर्माण में नवाचार की बहुत गुंजाइश होती है और उसी से सेवा में भी नवाचार की प्रेरणा मिली है, इसीलिए सेवाओं को विनिर्माण से अलग नहीं किया जा सकता।

चौथा, यह सोचना सही नहीं है कि अमेरिका का व्यापार घाटा डॉलर की कीमत गिरने से खुद ही खत्म हो जाएगा। अमेरिका को दशकों से व्यापार घाटा हो रहा है और बढ़ता ही जा रहा है। अमेरिकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा है, इसलिए डॉलर में पूंजी आती ही रहती है, जो डॉलर की कीमत घटने नहीं देती। अमेरिका के अग्रणी व्यापार साझेदार खास तौर पर चीन अपनी मुद्रा के साथ हेरफेर करते रहते हैं ताकि उनकी विनिमय दर कम बनी रहे। वे ‘अनुचित व्यापार’ में भी लिप्त रहते हैं – देसी कंपनियों को सब्सिडी देते हैं और इस तरह शुल्क लगाए बगैर भी बाधाएं खड़ी करते हैं।

लाइथिजर ने जो सबसे अहम बात कही है, वह है: दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं संरक्षण की दीवार के पीछे तैयार की गई हैं और अक्सर उनमें सरकारी रकम लगी है। सब्सिडी और शुल्कों की मदद से विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यक्रम लाइथिजर और ट्रंप की सोच के मुताबिक ही हैं। अर्थशास्त्री ट्रंप के इस विश्वास का मखौल उड़ा सकते हैं कि अमेरिका को नए सिरे से गढ़ने के लिए शुल्क जरूरी हैं। मगर हाल के राष्ट्रपति चुनाव में उनकी धमाकेदार जीत बताती है कि उनका वैश्वीकरण विरोधी रुख अमेरिका के ज्यादातर मतदाताओं के विचारों से मेल खाता है। इसलिए नए साल में दुनिया के पास खुद को ट्रंप की सोच के हिसाब से बदलने के अलावा कोई और चारा नहीं है।

First Published - December 16, 2024 | 9:30 PM IST

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