जाने-माने अर्थशास्त्री बैरी आइटग्रीन ने मार्च 2011 में द वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित एक आलेख में कहा था, ‘डॉलर का दौर समाप्त हो रहा है। मेरा मानना है कि अगले 10 वर्षों में हम एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ जाएंगे जहां कई मुद्राओं के बीच दबदबे की प्रतिस्पर्धा होगी।’ उनकी पुस्तक एक्सोर्बिटैंट प्रिविलेज: द राइज ऐंड फाल ऑफ द डॉलर भी उसी वर्ष प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने इसी विषय पर विस्तार से लिखा था। वास्तविक नतीजा वैसा नहीं हुआ जैसा कि उन्होंने अनुमान जताया था। हालांकि समय बीतने के साथ वैश्विक रिजर्व में अमेरिकी डॉलर की हिस्सेदारी कम हुई है और अन्य मुद्राओं को लोकप्रिय बनाने के प्रयास भी लगातार किए गए लेकिन डॉलर के दबदबे को वास्तविक चुनौती नहीं दी जा सकी।
अब एक बार फिर यह सवाल उठाया जा रहा है कि आने वाले वर्षों में अमेरिकी डॉलर की क्या स्थिति रहेगी? तात्कालिक संदर्भ है रूस पर लगाये गए असाधारण प्रतिबंधों का। यह कहा जा रहा है कि अमेरिकी नेतृत्व वाला पश्चिमी गठजोड़ वैश्विक आर्थिक तंत्र का इस्तेमाल हथियार के रूप में कर रहा है ताकि रूस को वित्तीय रूप से पूरी तरह अलग-थलग किया जा सके। इन प्रतिबंधों के कारण 300 अरब डॉलर मूल्य के विदेशी मुद्रा भंडार को भी रोक दिया गया है। ये सारी बातें इस नजरिये को पुष्ट करती हैं कि समझदारी इसी बात में है कि विदेशी मुद्रा भंडार रखने वाले देशों को अपने फंड में विविधता लानी चाहिए और इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय भुगतान को क्लियर करने की वैकल्पिक व्यवस्था विकसित करने की भी मांग उठ रही है। अगर चीन के नजरिये से देखा जाए तो ऐसा तत्काल करने की जरूरत महसूस होती है। चीन के पास एक लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के अमेरिकी बॉन्ड हैं। वह यह प्रयास भी कर रहा है कि एक वैकल्पिक भुगतान प्रणाली विकसित की जा सके तथा अलग-अलग तरीकों से अपनी मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय लेनदेन के लिए लोकप्रिय बनाया जा सके। हालांकि हाल के दशकों में चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भी बहुत तेजी से बढ़ा है लेकिन उसमें कुछ कमजोरियां भी निहित हैं जो उसकी मुद्रा को सार्थक ढंग से अमेरिकी डॉलर को चुनौती नहीं देने देंगी।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी मुद्रा पूर्ण परिवर्तनीय नहीं है। इस बात की संभावना भी बहुत कम है कि चीन की सरकार जल्दबाजी में पूंजी पर से नियंत्रण हटाएगी। खासतौर पर ऐसे समय में जबकि वृद्धि में भी धीमापन आ रहा है और वित्तीय व्यवस्था जोखिम में नजर आ रही है। यह जोखिम अचल संपत्ति जैसे क्षेत्रों की बदौलत उत्पन्न हुआ है। पूंजी नियंत्रण चीन के वृद्धि मॉडल का एक अनिवार्य अंग रहा है और ऐसी कोई वजह नहीं है जिसके चलते नीति निर्माता अब उसे समाप्त करेंगे। चाहे जो भी हो चीनी मुद्रा में कारोबार निपटाने में इजाफा जरूर हुआ है। चीनी मुद्रा में मुद्रा का भंडारण भी बढ़ा है।
निश्चित रूप से चीन कारोबारी दृष्टि से बहुत बड़ा मुल्क है और हाल के वर्षों में उसने कई देशों को काफी कर्ज भी दिया हैै। ऐसे में यह समझ में आता है कि चीन के कारोबारी साझेदार और कर्जदार अपने कर्ज का कुछ हिस्सा चीनी मुद्रा में रखें ताकि लेनदेन की लागत और अस्थिरता दोनों कम हो सकें। आने वाले वर्षों में अगर चीनी मुद्रा रेनमिनबी को स्वीकार्यता मिल भी जाती है तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि चीन अमेरिकी डॉलर वाले अपने मुद्रा भंडार को कहां ले जाएगा।
डॉलर को चुनौती देने वाली दूसरी मुद्रा यूरो को माना जा रहा है। रिजर्व मुद्रा के रूप में यूरो, रेनमिनबी से बहुत अधिक लोकप्रिय है लेकिन यह भी अमेरिकी डॉलर के लिए कोई गंभीर खतरा नहीं है। वैश्विक रिजर्व में उसकी हिस्सेदारी 1999 से ही 20 फीसदी के आसपास स्थिर है। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि यूरो क्षेत्र को जहां आकार के मामले में बढ़त हासिल है, वहीं उसके प्रतिभागी समान स्तर पर नहीं हैं। बीते दशक के डेट संकट के दौरान यह महसूस भी हुआ। इतना ही नहीं यूरो को अपनाने के पहले भी डॉयचे मार्क (2002 तक जर्मनी की आधिकारिक मुद्रा) डॉलर के बाद आरक्षित मुद्रा में सबसे बड़ी भागीदारी थी। एक अनुमान के मुताबिक सन 1979 से 1998 के बीच इसकी हिस्सेदारी 10 से 18 फीसदी के बीच रही। जर्मन प्रतिभूति बाजार अमेरिकी प्रतिभूति बाजार की तुलना में बेहद छोटा है।
भूराजनीतिक तनाव और उभरती वैश्विक व्यवस्था में चीन की स्थिति को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक नये पर्चे (जिसके सह लेखक प्रोफेसर आइटनग्रीन हैं) में डॉलर के दबदबे के ऊपर बहस की गई है। द स्टेल्थ इरोजन ऑफ डॉलर डोमिनेंस: एक्टिव डायवर्सिफायर्स ऐंड द राइज ऑफ नॉनट्रेडिशनल रिजर्व करेंसीज, में इस बात को रेखांकित किया गया है कि मुद्रा रिजर्व में सन 1999 से डॉलर की हिस्सेदारी 71 फीसदी से घटकर 59 फीसदी रह गई है। परंतु डॉलर की हिस्सेदारी का नतीजा अन्य पारंपरिक रिजर्व मुद्राओं मसलन पाउंड, यूरो या येन में इजाफे के रूप में सामने नहीं आया है। पर्चे के अनुसार अधिशेष राशि गैर पारंपरिक मुद्राओं में गई। जरूरी नहीं कि इस बदलाव का परिणाम अन्य मुद्राओं को प्राथमिकता के रूप में सामने आया हो लेकिन यह उच्च प्रतिफल के लिए यह सक्रिय विविधता तो दर्शाता ही है। बहरहाल, कुछ बड़े अधिग्रहणकर्ताओं के भंडार के कारण भी गिरावट आई। मिसाल के तौर पर अगर स्विस नैशनल बैंक को आकलन से अलग कर दिया जाए तो रिजर्व में डॉलर की हिस्सेदारी दो फीसदी बढ़ जाएगी।
ऐसे में भले ही वैश्विक रिजर्व में डॉलर की हिस्सेदारी कम हो रही हो लेकिन इसका उसकी हैसियत पर बुरा असर नहीं पड़ रहा है क्योंकि केंद्रीय बैंक चाहेंगे कि वे अपना मूल रिजर्व सर्वाधिक नकदीकृत परिसंपत्तियों में रखें। यकीनन अमेरिका को अपनी मुद्रा की स्थिति से फायदा मिलता है। अन्य बातों के अलावा दुनिया भर का पूंजी प्रवाह उसे यह मौका देता है कि वह चालू खाते के घाटे की आसानी से भरपायी कर सके तथा पूंजी की लागत कम रखे। अधिकांश देश चाहेंगे कि उनकी मुद्रा को यह दर्जा मिले। लेकिन यह जानना भी अहम है कि डॉलर को अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती का सहारा मिला हुआ है। वह दुनिया की सर्वाधिक नकदीकृत प्रतिभूतियों वाला बाजार भी है।
