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धर्मेंद्र प्रधान: समर्पित कार्यकर्ता का शानदार सफर

धर्मेंद्र तलचर कॉलेज में पढ़ते समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता बन गए थे और कॉलेज के पहले ही वर्ष में छात्र संघ के अध्यक्ष भी बन गए।

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आदिति फडणीस   
Last Updated- October 11, 2024 | 9:31 PM IST

हरियाणा विधान सभा के चौंकाने वाले चुनाव नतीजों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने पहले से बेहतर प्रदर्शन करते हुए 90 में से 48 सीटें जीत लीं और अब उसे निर्दलीय विधायकों की कोई आवश्यकता नहीं। यह अलग बात है कि जीतने वाले तीन निर्दलीयों ने भाजपा को समर्थन का ऐलान किया है। उनमें कम से कम देवेंद्र कादियान के लिए यह घर वापसी है। कादियान भाजपा में थे, लेकिन पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर बगावत करते हुए सोनीपत की गन्नौर सीट से चुनाव लड़े और भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी दिनेश कौशिक को हरा दिया।

उन्होंने यह कहते हुए बगावत की थी कि भाजपा में टिकट खरीदे और बेचे गए हैं। एक अन्य विधायक राजेश जून बहादुरगढ़ से कांग्रेस के बागी उम्मीदवार थे, जो अब भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। हरियाणा चुनावों को इतनी बारीकी के साथ संभालना और बाद में बागियों का समर्थन पाना अगर मुमकिन हुआ तो उसके पीछे केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान हैं, जो हरियाणा में पार्टी के चुनाव प्रभारी थे।

बागियों को संभालना बहुत मुश्किल होता है और सत्ता में मौजूद भाजपा के लिए तो और भी मुश्किल था। निवर्तमान विधायकों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर होना लाजिमी है और उन्हें दोबारा टिकट नहीं देने पर बगावत और भारी नुकसान की आशंका भी होती है। पहली कोशिश तो यही होती है कि ऐसे विधायकों को बागी न बनने दिया जाए।

बातचीत से कामयाबी न मिले तो डराने और ललचाने की कोशिश की जाती है। कुछ मामलों में दूसरे दलों के बागियों को भी जमकर बढ़ावा देना पड़ता है। कांग्रेस ने सभी 28 विधायकों को दोबारा टिकट दे दिया। उनमें से 14 हार गए। किंतु ज्यादा बागियों से जूझ रही भाजपा ने कई से बातचीत और सौदेबाजी की, जिसकी बागडोर प्रधान के ही हाथ में थी। उन्होंने एक महीने से भी ज्यादा वक्त तक हरियाणा में डेरा डाला और साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर बागियों को अपने पाले में रखने की पुरजोर कोशिश की।

कहने की जरूरत नहीं कि उनकी कोशिशें सौ फीसदी कामयाब रहीं। कादियान तो एक उदाहरण भर हैं (पैसे लेकर टिकट देने के उनके आरोप अब अनदेखे किए जा रहे हैं), प्रधान की असली चुनौती यह पक्का करना था कि भाजपा के बागी चुनाव हारें और पार्टी टिकट पर लड़ रहे प्रत्याशी जीतें। नायब सिंह सैनी सरकार में मंत्री रहे रंजीत चौटाला जैसे भाजपा के ज्यादातर बागी हार गए। यह ऐसा हुनर है, जो प्रधान ने ओडिशा की राजनीति में लंबा समय बिताते हुए सीखा है। वह मध्य ओडिशा के तलचर से हैं। उनके पिता देवेंद्र प्रधान राजनीति में सक्रिय थे और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे थे। धर्मेंद्र तलचर कॉलेज में पढ़ते समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता बन गए थे और कॉलेज के पहले ही वर्ष में छात्र संघ के अध्यक्ष भी बन गए।

भाजपा के युवा कार्यकर्ता के लिए ओडिशा में काम करना मुश्किल था। वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी का बीजू पटनायक के साथ जो रिश्ता था, उसके कारण भाजपा राज्य में सत्तारूढ़ दल पर हमलावर नहीं हो सकती थी। हालत बिल्कुल वैसी थी, जैसे दोनों हाथ पीछे बांधकर लड़ने के लिए कहा जाए। जो दो नावों यानी भाजपा और बाद में बीजू जनता दल पर पैर रखकर भी संतुलन साध पाए, वे राजनीति में प्रधान जैसे जुझारू और लड़ाके नेता के मुकाबले अधिक कामयाब रहे।

अश्विनी वैष्णव ऐसे ही उदाहरण हैं। प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले वैष्णव ने नवीन पटनायक के आशीर्वाद के साथ वाजपेयी के लिए काम किया। बाद में वह राज्य सभा पहुंचे और अब नरेंद्र मोदी सरकार के अहम मंत्रियों में शुमार हैं। मगर अब भी वह अपने पुराने सरपरस्त पर हमला नहीं कर सकते, जो विपक्ष में हैं। उनके उलट प्रधान ने कदम-कदम पर संघर्ष किया।

उन्होंने ओडिशा में पार्टी की जड़ें जमाईं और उसे सत्ता तक पहुंचा दिया। इस समय राज्य विधान सभा में भाजपा के सबसे ज्यादा विधायक उनके प्रबल समर्थक हैं मगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। मोदी की पहली सरकार में प्रधान तेल एवं गैस मंत्रालय में पहले राज्य मंत्री और बाद में कैबिनेट मंत्री बने। उन्होंने उज्ज्वला योजना और एलपीजी सब्सिडी छोड़ने के अभियानों को आगे बढ़ाया। पार्टी अब इनके बारे में ज्यादा बात नहीं करती।

नोटबंदी के फौरन बाद 2017 में उन्हें कौशल विकास मंत्रालय दिया गया। नौकरी तलाश रहे लोगों के लिए वह बहुत बुरा दौर था। उसके बाद कोविड महामारी ने दूसरा बड़ा झटका दिया। अब शिक्षा मंत्री के तौर पर प्रधान नीट तथा पेपर लीक के विवादों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही वह इस क्षेत्र पर अपनी छाप भी छोड़ना चाहते हैं।

प्रधान करिश्माई नेता या अद्भुत वक्ता नहीं हैं। परंतु जमीनी राजनीति और संगठन की समझ उन्हें बेहतरीन पार्टी कार्यकर्ता बनाती है। हरियाणा के पहले वह कर्नाटक, उत्तराखंड, झारखंड और ओडिशा में भी पार्टी के लिए चुनाव का काम संभाल चुके हैं। ओडिशा में शायद ही ऐसा कोई भाजपा कार्यकर्ता होगा जिसे वह नाम से न जानते हों। वह बागियों को भी नाम से जानते हैं और उनसे बातचीत के लिए खुद पहल करने से भी नहीं हिचकते, चाहे उनकी वजह से ही वे बागी क्यों न बने हों।

यह सच है कि उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ेगा, लेकिन आने वाले महीनों में अगर उन्हें जेपी नड्‌डा के बाद भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए तो ताज्जुब नहीं होगा। वैसे भी पार्टी में पूर्वी भारत का कोई नेता कभी अध्यक्ष नहीं बन पाया है।

निजी जीवन में प्रधान की जरूरतें बहुत कम हैं। एक बार उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा था कि पेट्रोलियम मंत्री रहते हुए उन्हें अक्सर बाहर खाना पड़ता था लेकिन उन्हें घर का सादा खाना पसंद था, बिल्कुल वैसा खाना जैसा उनकी मां बनाया करती थीं। उन्होंने कहा कि वह उड़िया हैं, इसलिए उन्हें मिठाई तो पसंद होंगी ही।

उनके समर्थक कहते हैं कि प्रधान अपने साथ काम करने वालों के साथ जिस तरह व्यवहार करते हैं, उसमें बिल्कुल गृह मंत्री अमित शाह की झलक मिलती है। हो सकता है कि वे सही कह रहे हों।

First Published : October 11, 2024 | 9:25 PM IST