इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचिए जिसका एक छोटा सा घर है और जो एक छोटा कारोबार शुरू करने के लिए मामूली कर्ज लेता है। शायद किसी गलती की वजह से नहीं बल्कि विपरीत आर्थिक हालात के कारण वह अपने ऋण की किस्त चुकाने में चूक जाता है। इस हालत में क्या उसका घर छिन जाना चाहिए और उसे और उसके परिवार को केवल इसलिए बेघर कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उसने उद्यमिता शुरू करने का प्रयास किया?
ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया संहिता 2016 (आईबीसी) कानून इसका जवाब सहानुभूति के साथ देता है। आईबीसी का भाग तीन, जो व्यक्तिगत दिवालियापन से संबंधित है, एक मानवीय सुरक्षा उपाय को सम्मिलित करता है जिससे देनदार के एकमात्र आवासीय इकाई की रक्षा होती है। हालांकि, यह संरक्षण लगभग एक दशक से निष्क्रिय बना हुआ है क्योंकि भाग तीन अभी तक अधिसूचित नहीं हुआ है, जिससे उन लोगों को कोई उपाय उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, जिनकी रक्षा करने का इसका उद्देश्य है।
दो हालिया घटनाओं ने इस संरक्षण को प्रभावी बनाने से संबंधित संवैधानिक और विधायी तर्क को बढ़ा दिया है। पहला, मानसी बरार फर्नांडिस (2025), मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि आवास का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है। न्यायालय ने जोर दिया कि एक घर केवल सिर की छत नहीं होता है बल्कि इसके साथ उम्मीदें और सपने भी जुड़े होते हैं। यह परिवार को सुरक्षित जगह देता है और जीवन की अनिश्चितताओं से बचाव मुहैया कराता है। इस मामले ने उन घर खरीदारों के साथ बार-बार होने वाले अन्याय को उजागर किया, जिन्होंने अपनी जीवनभर की बचत आवासीय परियोजनाओं में निवेश की, लेकिन डेवलपर के चूक जाने के कारण असहाय छोड़ दिए गए।
न्यायालय ने उस विधायी पहल को मान्यता दी, जिससे घर खरीदारों को भी दिवालियापन कार्यवाही में आवाज मिली ताकि वे डेवलपर्स के वित्तीय संकट में फंसने पर अपने घर सुरक्षित कर सकें। यह दलील संवैधानिक न्यायशास्त्र की उस मजबूत सोच पर आधारित है, जो आवास को संविधान की नैतिक संरचना का हिस्सा मानती है। ओल्गा टेलिस (1985) मामले में न्यायालय ने माना कि आजीविका और आवास जीवन के अधिकार के अविभाज्य पहलू हैं, और अनुच्छेद 21 को एक सकारात्मक गारंटी के रूप में पढ़ा।
चमेली सिंह (1996) मामले में न्यायालय ने घर को उस स्थान के रूप में वर्णित किया जहां व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से विकसित हो सकता है। इन दोनों निर्णयों ने मिलकर राज्य के इस संवैधानिक दायित्व की पुष्टि की कि वह ऐसे कानूनी ढांचे बनाए और लागू करे जो आवास को सुरक्षित करें और मकान खरीदारों के शोषण को रोकें।
दूसरा, गत 9 अक्टूबर को केरल विधान सभा ने केरल एकल आवास संरक्षण विधेयक, 2025 पारित किया, जिसका उद्देश्य कमजोर परिवारों को छोटे ऋणों की वसूली में जब्ती से अपने एकमात्र घर को खोने से बचाना है। यह विधेयक लगभग 5 लाख रुपये तक के साधारण ऋणों को संरक्षण प्रदान करता है और ब्याज तथा दंड सहित बकाया राशि को लगभग 10 लाख रुपये तक सीमित करता है।
पात्रता आर्थिक कमजोरी के आधार पर तय की गई है: उधारकर्ता के पास शहरी क्षेत्रों में पांच सेंट (2,178 वर्ग फीट) से अधिक भूमि या ग्रामीण क्षेत्रों में दस सेंट (4,356 वर्ग फीट) से अधिक भूमि नहीं होनी चाहिए, और उसके पास वैकल्पिक संपत्तियों तथा वास्तविक पुनर्भुगतान क्षमता का अभाव होना चाहिए। कानून जिला और राज्य स्तरीय समितियों का गठन करता है जो मामलों का परीक्षण करेंगी, ऋणदाताओं से बातचीत करेंगी और जरूरी होने पर वित्तीय सहायता की अनुशंसा करेंगी ताकि मामलों को निपटाया जा सके। इसका डिजाइन लक्षित है और कर्जमाफी के बजाय लक्ष्य यह है कि छोटे से कर्ज के बदले लोगों को अपना घर न गंवाना पड़े।
आईबीसी का भाग तीन लोगों, एकल स्वामित्व और साझेदारी फर्मों की वित्तीय कठिनाइयों को सुलझाने की प्रक्रिया तय करता है और जहां आवश्यक हो, उनकी परिसंपत्तियों का नकदीकरण करता है। हालांकि, यह कुछ संपत्तियों को दिवालियापन प्रक्रिया की पहुंच से बाहर रखता है। इनमें आजीविका के लिए आवश्यक व्यावसायिक साधन, बुनियादी घरेलू फर्नीचर और सामान, तथा भावनात्मक या धार्मिक महत्व के सीमित व्यक्तिगत आभूषण शामिल हैं।
विशेष रूप से, यह एकल, बंधनमुक्त आवासीय इकाई को, जिसका मूल्य निर्धारित सीमा तक हो, दिवालियापन प्रक्रिया से बाहर रखता है। इसके पीछे सिद्धांत परिसंपत्ति को संरक्षण देना नहीं, बल्कि सम्मानजनक जीवन के लिए न्यूनतम आधार बनाए रखना, दोनों पक्षों के हितों में संतुलन स्थापित करना और लेनदारों को उनकी देय राशि पूर्वानुमेय तरीके से दिलाना, साथ ही यह सुनिश्चित करना कि प्रक्रिया लोगों को बेघर न कर दे।
चूंकि आईबीसी का भाग तीन अभी तक लागू नहीं हुआ है, छोटे व्यापारिक ऋणों या व्यक्तिगत उधारी वाले व्यक्ति अपने एकमात्र आवासीय इकाई की सुरक्षा के लिए संहिता का सहारा नहीं ले सकते। ऐसी परिवारों के लिए भाग तीन तक पहुंच बहुत अहम साबित हो सकती है। वर्तमान में उनके पास औपनिवेशिक काल के कानून हैं, अर्थात प्रांतीय दिवालियापन अधिनियम, 1920 और प्रेसीडेन्सी टाउन्स दिवालियापन अधिनियम, 1909। ये पुराने ढांचे अधिकांशतः अप्रभावी हैं और आधुनिक आर्थिक वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं हैं।
भाग तीन को अधिसूचित करने से व्यक्तिगत देनदारों को न्यायिक प्राधिकरण के समक्ष जाने, पुनर्भुगतान योजनाओं पर बातचीत करने और उचित प्रयास के बाद मुक्ति प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। यह लेनदारों और देनदारों के लिए एक पारदर्शी मंच प्रदान करेगा, जहां वे न्यायिक निगरानी में बातचीत कर सकें, जिससे वर्तमान में असंगठित प्रतिक्रियाओं वाले क्षेत्र में पूर्वानुमान लगाने की क्षमता आएगी। ऋणदाताओं के लिए, संरक्षित संपत्तियों के बारे में स्पष्टता जोखिम मूल्यांकन को बेहतर बनाती है और जिम्मेदार ऋण वितरण को प्रोत्साहित करती है। परिवारों के लिए, यह उन्हें ईमानदार समाधान की संभावना लौटाता है, बिना निर्धनता के दायरे में चले जाने के खतरे के।
इसके अतिरिक्त एक व्यावहारिक प्रशासनिक लाभ भी है। एक सक्रिय व्यक्तिगत दिवालियापन व्यवस्था विवादों को एक विशेष मंच पर ले जाती है, जिससे अनेक कार्यवाहियों और सामाजिक लागतों में कमी आती है। पंचाट मुद्दों को समेकित कर सकता है, पुनर्भुगतान योजनाओं की निगरानी कर सकता है और अनुपालन पर नजर रख सकता है, साथ ही परिवारों को नए सिरे से अर्थव्यवस्था में प्रवेश करने में सक्षम बना सकता है। भाग तीन के अंतर्गत नए सिरे से शुरुआत करने की प्रक्रिया विशेष रूप से उन व्यक्तियों की पीड़ा को कम करेगी जिनकी लगभग कोई आय या परिसंपत्ति नहीं है, साथ ही उन्हें असहनीय ऋण से बाहर निकलने का एक संरचित और गरिमापूर्ण मार्ग प्रदान करेगी।
यदि भाग तीन परिचालित होता तो केरल सरकार काे अलग कानून बनाने की जरूरत नहीं होती। अगर देरी जारी रही तो अन्य राज्य सरकारें भी ऐसे ही हल तलाश करेंगी जिससे निरंतरता पर असर होगा और कमजोर नतीजे हासिल होंगे। इसमें बंटा हुआ राष्ट्रीय ऋण बाजार भी शामिल है। हर बीतते वर्ष के साथ संवैधानिक वादे और व्यावहारिक संरक्षण के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। ऐसा उन परिवारों की कीमत पर हो रहा है जो पहले ही वित्तीय मुश्किलों से जूझ रहे हैं।
आखिर में, संवैधानिक आयाम पर बल देना आवश्यक है। न्यायपालिका इसकी बार-बार पुष्टि करती है कि आवास को जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा माना जाए और विधायिका एक ऐसा वैधानिक ढांचा प्रदान करती है जो ऋणी व्यक्तियों के अधिकार को ठोस रूप से आगे बढ़ाता है, जिसमें उनके आवासीय इकाई की सुरक्षा भी शामिल है। ऐसे में इसके क्रियान्वयन में कार्यपालिका की ओर से अनिश्चित विराम संवैधानिक निष्ठा और नैतिक जिम्मेदारी दोनों को कमजोर करता है।
(लेखक नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली में क्रमश: पूर्व विशिष्ट प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)