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सरकारी व्यय की मदद से बढ़ानी होगी मांग

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 14, 2022 | 11:26 PM IST

देश की अर्थव्यवस्था को लेकर तीन अहम नकारात्मक बातें इस समय हमारे सामने हैं। पहली नकारात्मक बात है वर्ष 2016 से 2019 के बीच केंद्र सरकार के गलत निर्णय, इसमें और इजाफा इस बात से हुआ कि सरकार यह मानने को तैयार ही नहीं हुई कि आर्थिक वृद्धि में धीमापन आ रहा है। वित्त वर्ष 2019-20 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि का आधिकारिक आंकड़ा 4.2 प्रतिशत के निराशाजनक स्तर पर था। दूसरी बात है मौजूदा कोविड-19 महामारी और तीसरी लद्दाख में भारत और चीन की सेनाओं के बीच आमने सामने का टकराव। भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ सीमित सशस्त्र संघर्ष और कश्मीर में अशांति के लिए हमेशा तैयार रहना होगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति रहे फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने 4 मार्च, 1933 को महामंदी के दौरान जो भाषण दिया था उसमें एक प्रसिद्ध उक्ति इस प्रकार थी, ‘…हमें जिस इकलौती चीज से डरना है…तो उस बेनाम, अतार्किक, अनुचित आतंक से डरना है जो पीछे हटने को, आगे बढऩे में बदलने की क्षमता को पंगु कर देती है।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24-25 मार्च की मध्य रात्रि जब देशव्यापी लॉकडाउन लगने की घोषणा की तब उनका संबोधन ऐसी ही सकारात्मक अभिव्यक्ति वाला होना चाहिए था। परंतु इसके बजाय अतिशय अपशकुन की भावना पनपने दी गई। इससे लोगों में बचत की भावना उत्पन्न हुई क्योंकि औपचारिक रोजगार के अवसरों में कमी आ रही थी।
प्रवासियों में कम कौशल वालोंं और ग्रामीण श्रमिकों की आय बढ़ाने के अल्पावधि में सिर्फ एक ही उपाय नजर आता है और वह यह कि सरकार बुनियादी ढांचे पर खर्च बढ़ाए। अकुशल और गरीब श्रमिकों को राजमार्ग निर्माण, ग्रामीण सड़क निर्माण, रेल की पटरी बिछाने, पुल और बंदरगाह बनाने जैसे कामों में लगाया जा सकता है। अगले दो वर्ष तक सरकारी राजस्व के अपर्याप्त बने रहने की पूरी आशा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक और ऋण नीतियों में और अधिक शिथिलता के भी प्रभावी होने की कोई आशा नहीं है। कई प्रमुख विकास वित्त संस्थानों (डीएफआई) जो लंबी अवधि की पूंजी मुहैया करा रहे थे उन्हें बैंकों में बदल दिया गया। तमाम ऐसी वजह हैं जिनके चलते वाणिज्यिक बैंकिंग क्षेत्र को व्यवस्थागत रूप से कमजोर बनाया गया और अब वह लंबी परिपक्वता का ऋण देने में प्राय: अक्षम हो चुके हैं। इस विषय पर हम आगे विस्तार से बात करेंगे। केंद्र सरकार को जीडीपी के 5 से 7 प्रतिशत तक अतिरिक्त राशि व्यय करनी होगी या उधार देनी होगी। उसे राज्यों का वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) बकाया भी चुकाना चाहिए, भले ही वह हालिया उत्पन्न दबावों को देखते हुए पहले तय की गई 14 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि प्रदान न करे। 11 सितंबर, 2020 को जब 18,000 करोड़ रुपये मूल्य के सरकारी बॉन्ड की नीलामी की गई तो निवेशकों में बिल्कुल इच्छाशक्ति देखने को नहीं मिली। प्रभावी ढंग से देखें तो आरबीआई के जरिये सरकारी उधारी का प्रत्यक्ष मुद्रीकरण ही एकमात्र उपलब्ध रास्ता नजर आता है। जहां तक राजकोषीय अनुशासन की बात है यदि बेरोजगारों से पूछा जाए तो वे कहेंगे कि वे किसी तरह जीवन बिता रहे हैं और उन्हें देश की सॉवरिन क्रेडिट रेटिंग के घटने की रत्ती भर परवाह नहीं है।
वित्तीय संसाधनों की कमी से इतर शायद सरकार के पास ढेर सारी बुनियादी परियोजनाएं ऐसी हों भी नहीं जिनके लिए बोली की शुरुआत की जा सके। राज्य सरकारों के साथ भी काफी तालमेल की आवश्यकता होगी। ऐसे में केंद्र सरकार को भाजपा शासित राज्यों में परियोजनाओं का पता लगाना होगा जिनका तेजी से क्रियान्वयन किया जा सके। इस दौरान ऐसी परियोजनाओ को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जहां भूमि अधिग्रहण बड़ा मसला न हो। ऐसे में प्रमुख व्यक्तियों की पहचान बतौर टीम लीडर करनी होगी जो समय पर परियोजना पूरी करने का दायित्त्व लें ताकि मुद्रीकरण से जुटाए गए फंड का इस्तेमाल परियोजनाओं में हो। गत दिसंबर में इसी समाचार पत्र में छपे एक आलेख में मैंने दलील दी थी कि सरकार उच्च परिसंपत्ति मूल्य वाले कर्जदारों के पक्ष में आरबीआई पर नियामकीय नरमी बरतने का जो दबाव बना रही है, उसने ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया संहिता के प्रभाव को कमजोर किया है। 16 सितंबर को आखिरकार आरबीआई ने कहा कि बैंकों द्वारा ऋण के रूप में दिया जाने वाला फंड जमाकर्ताओं से आता है। कहा गया कि अगर छह माह के ब्याज भुगतान स्थगन का बोझ उन पर डाला गया तो बैंक जमाकर्ताओं और अंशधारकों के प्रति अपना दायित्व नहीं निभा पाएंगे।
उपरोक्त संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का वह निर्णय कम समझदारी भरा था जिसमें उसने कहा कि वे खाते जिन्हें अगस्त 2020 तक फंसा हुआ कर्ज नहीं घोषित किया गया है, उन्हें अदालत के अगले आदेश तक इस श्रेणी में वर्गीकृत न किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ 28 सितंबर को इसकी समीक्षा करेगी। यदि वह वाकई बैंकों की गड़बड़ी को लेकर चिंतित है तो उसे आरबीआई के पूर्व गवर्नर ऊर्जित पटेल की बात का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। उन्होंने अपनी हालिया किताब में लिखा है कि केंद्र सरकार आरबीआई पर दबाव डालती है कि वह बड़े कर्ज दायित्व वाले देनदारों को लेकर नियामकीय संयम बरते। उसे आरबीआई के 12 फरवरी के परिपत्र की भी समीक्षा करनी चाहिए जिसमें बड़े आकार के डिफॉल्ट को राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट के समक्ष ले जाने के लिए कड़ी समय सीमा निर्धारित की गई है। गत 17 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय का वह निर्णय बरकरार रखा जिसमें स्टेट बैंक  के अनिल अंबानी से 1,200 करोड़ रुपये वसूलने के दावे को खारिज कर दिया गया था। यह वसूली रिलायंस कम्युनिकेशंस (आरकॉम) और इन्फ्राटेल के कर्ज पर व्यक्तिगत गारंटी के कारण होनी थी। आरबीआई के एक डिप्टी गवर्नर एसबीआई बोर्ड के सदस्य हैं। एसबीआई को यह मामला न्यायालय में ले जाने के पहले उचित जांच परख करनी थी। इससे पूर्व 23 मई को लंदन की एक अदालत ने अनिल अंबानी को निर्देश दिया कि वे तीन चीनी बैंकों को 70 करोड़ डॉलर चुकाएं। इन चीनी बैंकों ने 2012 में व्यक्तिगत गारंटी के आधार पर आरकॉम को कर्ज दिया था।
सन 2014 के बाद मोदी सरकार ने कई नवाचारी योजनाएं और साहसी विधायी बदलाव पेश किए लेकिन उनका प्रशासन भी बैंकिंग सुधारों से बचता रहा। इस समय भी घटती मांग का मुकाबला करने के लिए सरकारी व्यय बढ़ाने को लेकर वह बहुत बच रहा है। उस लिहाज से मोदी सरकार का आर्थिक मोर्चे पर प्रदर्शन काफी हद तक इंदिरा गांधी के कार्यकाल जैसा होता जा रहा है। खासतौर पर क्रियान्वयन कमियों को स्वीकार न करने और संरक्षणवाद तथा निर्णय प्रक्रिया के केंद्रीकरण के मामले में।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं विश्व बैंक फाइनैंस प्रोफेशनल हैं)

First Published : September 30, 2020 | 11:06 PM IST