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चीन ने दुर्लभ खनिज संसाधनों का खड़ा किया साम्राज्य — भारत अब भी खानों में

दुनिया के तीसरे सबसे बड़े ज्ञात rare earth भंडार की मेजबानी के बावजूद, ये महत्वपूर्ण खनिज भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बने रहेंगे। बता रहे हैं

Last Updated- July 28, 2025 | 11:29 PM IST
rare earth minerals

दुर्लभ खनिज तत्त्वों ने तब से सुर्खियां बटोरी हैं जब से चीन ने अमेरिका के साथ अपने व्यापार युद्ध में इन खनिजों के निर्यात (विशेष रूप से दुर्लभ खनिजों से बने स्थायी मैग्नेट) को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है। चीन में वैश्विक दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति का लगभग 70  फीसदी और दुर्लभ खनिज चुंबकों का लगभग 90  फीसदी उत्पादन होता है और इस क्षेत्र में उसका वर्चस्व इतनी जल्दी खत्म नहीं होगा। दुर्लभ खनिज तत्त्वों और मैग्नेट के निर्यात पर प्रतिबंध ने हमारे वाहन उद्योग, खासतौर पर इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) को बुरी तरह प्रभावित किया है। इनका इस्तेमाल चिकित्सा उपकरणों, स्मार्टफोन, पवन टर्बाइन, सेमीकंडक्टर, मिसाइलों और विमानों में भी होता है। ऐसे में अगर चीन और अमेरिका के बीच छह महीने का व्यापार युद्धविराम आगे नहीं बढ़ता है तब हमें और अधिक व्यवधानों के लिए तैयार रहना चाहिए।

भारत अब बड़े पैमाने पर मैग्नेट उत्पादन को बढ़ावा देने की योजना बना रहा है और दुनिया भर में दुर्लभ खनिज आपूर्तिकर्ताओं की तलाश कर रहा है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में ऐसे संसाधनों की पहचान की गई है। हालांकि, भूगर्भीय भंडार का पता लगाने से लेकर खनन, प्रसंस्करण और धातु उत्पादन तक की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि केवल भूगर्भीय संसाधनों की पहचान करना ही भू-राजनीतिक रूप से बहुत मायने नहीं रखता।

चीन ने दुर्लभ खनिजों के उत्पादन में अपनी मजबूत स्थिति दशकों में बनाई है जो एक औद्योगिक रणनीति, तकनीकी अनुसंधान और विकास के साथ ही अपने भूगर्भीय संसाधनों का उपयोग करने पर आधारित है। 1980 के दशक के आखिर में, चीनी योजनाकारों ने रणनीतिक सामग्रियों को चीन की आधुनिकीकरण की योजनाओं में एक महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में पहचाना। तंग श्याओ फिंग को 1992 की शुरुआत में यह बात कहने का श्रेय दिया जाता है कि ‘मध्य पूर्व में तेल है जबकि चीन के पास दुर्लभ खनिज हैं।’

ऑक्सफर्ड एनर्जी स्टडीज ने अक्टूबर 2023 के एक शोध पत्र में बताया कि चीन ने वैश्विक बाजारों पर अपना दबदबा कैसे हासिल किया (चीन का दुर्लभ खनिजों पर प्रभुत्व और नीतिगत प्रतिक्रियाएं), और इसके मुख्य कारकों की पहचान की गई जैसे कि उद्योग में शुरुआती कदम, आपूर्ति श्रृंखला के साथ सरकारी निवेश, निर्यात नियंत्रण, कम श्रम लागत और दशकों तक कम पर्यावरणीय मानक आदि। 1990 के दशक में, चीन ने दुर्लभ खनिजों को ‘संरक्षित और रणनीतिक खनिज’ घोषित किया। इसके अलावा निर्यात कोटा लागू किए गए और दुर्लभ खनिज तत्व सांद्रण के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

चीन में नीतिगत बदलाव वास्तव में उसकी पूरी आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने में मिली सफलता को दर्शाते हैं जिनमें हजारों टन चट्टानों का खनन और तुड़ाई, रासायनिक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अयस्क को और संसाधित करने तथा दुर्लभ खनिज तत्वों को अलग-अलग करने के लिए द्रव निष्कर्षण की प्रक्रिया शामिल है। खदान से धातु तक की लागत का लगभग 80 फीसदी ऊर्जा, श्रम और रासायनिक प्रतिक्रिया करने वाले घटकों में लगता था, जहां चीन की क्षमताओं और लचीले पर्यावरणीय नियंत्रण ने लागत में किफायत दी।

इसके बाद, चीन ने स्थायी मैग्नेट के लिए अमेरिका और जापान में तैयार हुई तकनीक को अपनाया और विश्व-स्तरीय पैमाने के उद्योग तैयार किए। 2000 के दशक की शुरुआत तक, चीन दुर्लभ खनिज और दुर्लभ खनिज उत्पादों का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया और इसकी लागत इतनी कम थी कि अन्य देशों को उत्पादन में कटौती करनी पड़ी या बंद करके अपनी जरूरतें चीन की कंपनियों के माध्यम से पूरी करनी पड़ीं। चीन ने विदेश से कच्चा माल भी हासिल किया। पड़ोसी देश म्यांमार में, उसने विद्रोही काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी के साथ सीधे व्यापार किया ताकि टर्बियम और डिस्प्रोसियम जैसी दुर्लभ खनिज सामग्री का आयात किया जा सके जो मिसाइलों और स्मार्ट हथियारों जैसे रक्षा प्रयोगों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

चीन ने वर्ष2010 में ही यह दिखा दिया था कि वह दुर्लभ खनिज को एक व्यापारिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। उसने एक समुद्री विवाद पर जापान को कुछ महीनों के लिए दुर्लभ खनिज के निर्यात रोक दिया था।

उसी साल निर्यात कोटा (खासतौर पर भारी दुर्लभ खनिज के लिए) में कमी ने अन्य औद्योगिक व्यापारिक साझेदारों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। जापान, यूरोपीय संघ और अमेरिका ने तब आपूर्ति स्रोतों में विविधता लाने की रणनीतियां अपनाईं, लेकिन इनका सीमित प्रभाव पड़ा, हालांकि जापान की चीन पर निर्भरता में कमी आई। (जापान ने ऑस्ट्रेलिया के खदानों और मलेशिया में एक प्रसंस्करण संयंत्र में निवेश किया। भारत के साथ ऐसे प्रयास हमारी नियामक बाधाओं के कारण विफल रहे।)

चीन से अलग, महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने के लिए मिनरल सिक्योरिटी पार्टनरशिप (एमएसपी) की स्थापना जून 2022 में 14 विकसित देशों द्वारा की गई थी। भारत एक साल बाद इस समूह में शामिल हुआ। एमएसपी का अपना कोई फंड नहीं है लेकिन यह निजी पूंजी और सरकार-समर्थित धनराशि को महत्त्वपूर्ण खनिज परियोजनाओं में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिसमें दुर्लभ खनिज प्राथमिकताओं में शामिल है। चीन ने एमएसपी को ‘पूर्ण प्रतिस्पर्धा’ के लिए एक पश्चिमी साधन के रूप में देखा, लेकिन वह आश्वस्त रहा कि दुर्लभ खनिज में उसके प्रभुत्व को कोई प्रभावित नहीं कर पाएगा क्योंकि उसके पास ऊपरी स्तर पर खनन, मध्यवर्ती स्तर पर गलाने और निचले स्तर की इलेक्ट्रोलाइसिस तकनीक के लिए उपकरण थे जिसका उसको लाभ मिला।

दशकों के अनुभव से पता चलता है कि चीन का आत्मविश्वास पूरी तरह गलत नहीं था। वह वैश्विक बाजारों में अपना दबदबा बनाए हुए है क्योंकि खदान से मैग्नेट बनाने तक का सफर तकनीकी रूप से बेहद जटिल और फिलहाल बहुत प्रदूषण फैलाने वाला है। निष्कर्षण, प्रसंस्करण और अलगाव की आर्थिक प्रक्रियाओं में चीन को मिले फायदे ने वहां की कंपनियों को प्रतिस्पर्धियों को रोकने के लिए कीमतों में हेरफेर करने में सक्षम किया किया है। चीन तकनीकी जानकारी पर सख्त नियंत्रण रखता है और विशेषज्ञों की विदेश यात्रा पर भी प्रतिबंध लगा रहा है। साथ ही, वह उन पर्यावरणीय लागतों का ‘प्रबंधन’ करता है जिनसे कहीं और की परियोजनाओं की मंजूरी में देरी होती है। अमेरिका में, पेंटागन ने अब घरेलू मैग्नेट उत्पादन में तेजी लाने के लिए एक दुर्लभ खनिज उत्पादक कंपनी का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है।

भारत के पास दुर्लभ खनिज, खासतौर पर हल्की दुर्लभ खनिज को मोनाजाइट और समुद्री रेत से निकालने का लंबा अनुभव है। लेकिन दुनिया के तीसरे सबसे बड़े ज्ञात भंडार होने के बावजूद, भारत का उत्पादन चीन के उत्पादन के 2  फीसदी से भी कम है।

नीतिगत और नियामक बाधाएं भविष्य में संसाधनों की खोज और इससे जुड़े विकास की राह में बाधा बनती हैं। खनन और प्रसंस्करण के प्रति जन विरोध की वजह से भी मदद नहीं मिली है। जब तक औद्योगिक दस्तूर में कोई बदलाव नहीं होता और सरकार तथा नागरिक समाज खनन के महत्त्व को नहीं पहचानते, तब तक महत्त्वपूर्ण खनिज भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बने रहेंगे।

(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं)

 

First Published - July 28, 2025 | 11:10 PM IST

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