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ट्रंप के टैरिफ युद्ध से बचने की चीनी जुगत और भारत

डॉनल्ड ट्रंप के आने के बाद शुल्कों की जंग तेज होने की आशंका भांपकर चीन विकासशील देशों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, जिससे भारत के लिए होड़ बढ़ जाएगी। बता रहे हैं

Last Updated- December 19, 2024 | 9:57 PM IST
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चीन की सालाना सेंट्रल इकनॉमिक वर्क कॉन्फ्रेंस (सीईडब्ल्यूसी) आम तौर पर साल के आखिर में होती है। इसका बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि इससे पता चलता है कि चीनी नेतृत्व को गुजरते साल में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कैसा लगा और आगे की चुनौतियों से निपटने के लिए वह क्या कदम उठाएगा।

इस साल सीईडब्ल्यूसी 11-12 दिसंबर को हुई, जब डॉनल्ड ट्रंप बतौर राष्ट्रपति अमेरिका की बागडोर संभालने जा रहे हैं। इससे पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के पोलित ब्यूरो की बैठक हुई, जिसमें अर्थव्यवस्था की स्थिति और भविष्य के लिए नीतियों की दिशा पर फैसला लिया गया। सीईडब्ल्यूसी में इन उपायों पर विस्तार से बात की गई मगर पहले की ही तरह बारीकियां नहीं बताईं। कॉन्फ्रेंस की रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक माहौल प्रतिकूल होने की बात तो कही गई है मगर अमेरिका में ट्रंप सरकार द्वारा शुल्क लगाए या बढ़ाए जाने से होने वाले खतरों की आशंका पर कुछ भी नहीं कहा गया।

2023 की सीईडब्ल्यूसी बैठक से तुलना करें तो इस बार कुछ उल्लेखनीय बिंदु नजर आते हैं। पहला, मांग में ठहराव और बिगड़ती बाहरी आर्थिक चुनौतियों के बीच चीनी अर्थव्यवस्था में लगातार मंदी की बात स्वीकार करते हुए नेतृत्व ने अधिक बड़े आर्थिक प्रोत्साहन का रास्ता चुना। पहले उसका जोर ‘दूरअंदेशी भरी मौद्रिक नीति’ और ‘व्यापक बदलाव के बजाय चुनिंदा हस्तक्षेप’ पर था मगर अब उसकी जगह ‘उदार मौद्रिक नीति’ पर रजामंदी बन गई है।

इसका मतलब है ब्याज दरें कम रहेंगी, बैंकों की रीपो दर भी कम रहेगी और लंबी अवधि के सरकारी बॉन्ड अधिक मात्रा में जारी होंगे। पिछली बार यह शब्दावली वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट के दौरान इस्तेमाल हुई थी, जब चीन ने अर्थव्यवस्था बचाने के लिए 600 अरब डॉलर का भारीभरकम राहत पैकेज जारी किया था। उस समय के लिहाज से यह रकम बहुत बड़ी थी। वह पैकेज मुख्य रूप से बुनियादी ढांचा निवेश के लिए था मगर इस बार का पैकेज देश के भीतर मांग और उपभोग व्यय बढ़ाने के मकसद से लाया गया है।

दूसरा, राजकोषीय नीति के मामले में चीन लीक पर चलने वाला रहा है और राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3 प्रतिशत की अनौपचारिक सीमा के भीतर ही रखता आया है। हाल के वर्षों में पहली बार राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी को स्वीकार किया जा रहा है। खबर हैं कि 2025 में देश का राजकोषीय घाटा 4 प्रतिशत रह सकता है।

तीसरा बिंदु यह है कि प्रोत्साहन के अधिक महत्त्वाकांक्षी उपाय करने के बाद भी तकनीक के बल पर उच्च गुणवत्ता वाली वृद्धि हासिल करने के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के पसंदीदा मॉडल पर बैठक में एक बार फिर मुहर लगाई गई है। नए प्रकार के औद्योगीकरण को बढ़ावा देने वाली औद्योगिक नीति जारी रहेगी, जिसमें डिजिटल अर्थव्यवस्था और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) से वृद्धि पाने पर जोर रहेगा। चौथा, 2023 में सीईडब्ल्यूसी बैठक में ‘समस्याओं से निपटने के बजाय विकास को प्राथमिकता’ देने पर जोर दिया था। इस बार भी आर्थिक वृद्धि ही ‘शीर्ष प्राथमिकता’ है मगर अब ‘विकास की रफ्तार और गुणवत्ता के बीच संतुलन’ होना चाहिए। निचोड़ यह है कि शी चिनफिंग अर्थव्यवस्था के नए उच्च तकनीक से चलने वाले क्षेत्रों के विकास की खातिर उच्च वृद्धि दर को कुछ समय के लिए त्यागने को राजी हैं।

रिपोर्ट में शी की पसंदीदा योजना बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) का कोई जिक्र नहीं है। शी ने विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक और एशियाई विकास बैंक समेत 10 अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों के प्रमुखों के साथ 10 दिसंबर को जो बैठक की थी, उसमें देश की आर्थिक सेहत को ट्रंप से होने वाले खतरों की चीनी चिंता ही केंद्र में रही। बैठक के दौरान शी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिकूल आर्थिक स्थिति की ओर सबका ध्यान खींचते हुए कहा कि ‘अभूतपूर्व वैश्विक परिवर्तन की रफ्तार तेज होने के साथ ही दुनिया उथलपुथल और बदलाव के नए दौर में दाखिल हो गई है तथा एक बार फिर चौराहे पर खड़ी हो गई है।’ उन्होंने भरोसा जताया कि चीन 5 प्रतिशत वृद्धि का अपना लक्ष्य हासिल कर लेगा और पिछले वर्षों की तरह वैश्विक जीडीपी वृद्धि में 30 प्रतिशत योगदान देता रहेगा।

शी ने बीआरआई का जिक्र भी किया और कहा कि ग्लोबल साउथ यानी विकासशील दुनिया को आगे बढ़ाने में उस योजना का बहुत योगदान है। उसे आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों से हाथ बंटाने का अनुरोध किया। उन्होंने चीन और अमेरिका के संबंधों का खास जिक्र किया और कहा कि दोनों पक्षों के आपसी लाभ के लिए वह बातचीत करने, मतभेद दूर करने और सहयोग करने को तैयार हैं।

लेकिन उन्होंने अमेरिका की ‘छोटा घर ऊंची चारदीवारी’ वाली रणनीति को सिरे से खारिज करते हुए चेताया कि शुल्क, व्यापार और प्रौद्योगिकी की जंग में विजेता कोई नहीं होता। इसमें चीन के पलटवार की धमकी छिपी थी और अपनी संप्रभुता, सुरक्षा तथा विकास संबंधी हितों को बचाने का संकल्प भी था।

यदि ट्रंप डरे बगैर शुल्क की जंग को आगे बढ़ाते हैं तो चीन के पास क्या विकल्प बचेगा? निकट भविष्य में तो बहुत कम विकल्प हैं क्योंकि चीन अमेरिका और पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं (यूरोप तथा जापान) से बहुत करीब से जुड़ा है। आगे जाकर वह स्पष्ट तौर पर दक्षिण-पूर्व एशिया, खाड़ी, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में व्यापार तथा निवेश के नए ठिकानों का रुख करेगा। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। चीन के लिए सोयाबीन और अन्य कृषि उत्पादों का प्रमुख स्रोत अमेरिका था, जिसकी जगह अब लैटिन अमेरिका ले चुका है।

पसंदीदा आर्थिक एवं वाणिज्यिक साझेदार के रूप में ग्लोबल साउथ का महत्त्व बढ़ रहा है। सजा देने के लिए व्यापार का रास्ता अपनाया गया तो जैसे को तैसा वाला जवाब फौरन मिलेगा। चीन पहले ही अमेरिका को गैलियम जैसी दुर्लभ धातु का निर्यात रोक चुका है। अमेरिका बैटरी एवं कंप्यूटर में इस्तेमाल होने वाली इन धातुओं के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है। चीन ने व्यापार के अनुचित तरीके अपनाने का आरोप लगाकर चिप बनाने वाली कंपनी एनविडिया के खिलाफ जांच भी शुरू कर दी है। मगर इसके साथ ही उसने भविष्य के व्यापार समझौतों में अमेरिका से तेल एवं गैस आयात में भारी बढ़ोतरी करने की अपनी मंशा भी जाहिर कर दी है।

चीन भू-राजनीतिक नजर से ही नहीं बल्कि व्यापार और निवेश के साझेदार के रूप में भी ग्लोबल साउथ को देख रहा है। इस मामले में बीआरआई की भूमिका बहुत अहम रहेगी। विकासशील देशों में राजनीतिक एवं आर्थिक होड़ में भारत को चीन के सामने कड़ी मशक्कत करनी होगी। हमें आगे की नीतियां और समीकरण तैयार करते समय चीन की नीतिगत दशा में इस बदलाव का ख्याल रखना होगा।

वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में जो बदलाव हो रहे हैं और चीन से जो निवेश बाहर जा रहा है, भारत कम से कम अमेरिका, यूरोप और जापान के मामले में तो उसका फायदा नहीं उठा पाया है। हमारा कंपनी जगत कह रहा है कि अमेरिका और पश्चिमी बाजार पर अपनी जरूरत से ज्यादा निर्भरता कम करने के लिए चीन जो कदम उठा रहा है, उनका ज्यादा फायदा हम उठा सकते हैं। चीन ऐसी सोच को बढ़ावा दे रहा है। यह पेचीदा मसला है और इस पर बहुत बारीकी से सोचने-विचारने की जरूरत है वरना हम फिर ऐसी स्थिति में आ जाएंगे, जहां हमारे नसीब का फैसला कोई और करेगा।

(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)

First Published - December 19, 2024 | 9:57 PM IST

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