पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन को एक वरिष्ठ अमेरिकी संसद सदस्य बेन कार्डिन को इस बात के लिए मनाना पड़ा कि वह भारत को हथियारबंद ड्रोन की बिक्री पर अपनी आपत्ति हटा लें।
सीनेटर कार्डिन ने भारत को 31 एमक्यू-9 प्रीडेटर ऐंड सी गार्डियन ड्रोन की आपूर्ति को तब तक के लिए ‘स्थगित’ कर दिया था जब तक कि अमेरिकी सरकार गुरपतवंत सिंह पन्नुन की हत्या की साजिश में ‘भारतीय एजेंसियों’ के शामिल होने के आरोप की ‘सार्थक जांच’ नहीं कर लेती।
न्यूयॉर्क में रहकर खालिस्तान के लिए काम करने वाले पन्नुन को भारत आतंकवादी मानता रहा है। हालांकि राष्ट्रपति प्रशासन कार्डिन को स्थगन हटाने के लिए मनाने में कामयाब रहा और ड्रोन आपूर्ति की राह आसन हुई लेकिन इस घटना ने दोनों देशों के रिश्तों में अमेरिका की अविश्वसनीयता की यादें ताजा कर दीं।
अमेरिका के साथ स्वतंत्र भारत के रिश्ते लंबे समय तक बहस-मुबाहिसे वाले रहे हैं। वर्ष 1954 में शीत युद्ध के परिदृश्य में अमेरिका और छह साझेदारों ने पाकिस्तान को दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सिएटो) में शामिल किया। इस संगठन का घोषित लक्ष्य था क्षेत्र में वामपंथ के प्रसार को रोकना लेकिन पाकिस्तान के लिए इसका मकसद था भारत के खिलाफ संघर्ष में सहयोग हासिल करना।
1959 में शीतयुद्ध की भूराजनीति के कारण अमेरिका ने सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन यानी सेंटो के सदस्य के रूप में पाकिस्तान की मदद करनी शुरू की। 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन तथा उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान का समर्थन किया।
उस समय उसने बंगाल की खाड़ी में भारत पर दबाव बनाने के लिए अपना सातवां जंगी बेड़ा भेजा था। अगले वर्ष अमेरिका ने पाकिस्तान की आड़ में निक्सन को चीन भेजा और शीत युद्ध की दिशा बदलने में कामयाब रहा। 1999 में भारत के परमाणु हथियार परीक्षण के बाद भारत के खिलाफ हथियार आपूर्ति समेत तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए।
सदी बदलने के बाद दोनों देशों के रिश्तों में भी सकारात्मक बदलाव आया। 2005 में भारत-अमेरिका रक्षा रिश्तों को लेकर समझौता हुआ तथा रक्षा तकनीक और व्यापार संबंधी पहल हुई। उसी दौरान तथाकथित 123 समझौता हुआ जिसने असैन्य नाभिकीय सहयोग के रास्ते खोले।
2015 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एशिया प्रशांत तथा हिंद महासागर क्षेत्र के लिए संयुक्त सामरिक दृष्टिकोण पर हस्ताक्षर किए तथा 2016 में अमेरिका ने भारत को प्रमुख रक्षा साझेदार घोषित किया। 2018 में द्विपक्षीय सुरक्षा साझेदारी मंत्रिस्तरीय वार्ता और अमेरिकी तथा भारतीय रक्षा और विदेश नीति नेतृत्वकर्ताओं की बैठक के साथ नए स्तर पर पहुंच गई।
उसी वर्ष अमेरिका ने भारत को रणनीतिक व्यापार ऑथराइजेशन में पहली श्रेणी का दर्जा प्रदान किया जिससे भारत अमेरिका की कई उच्च विनियमित तकनीकी वस्तुओं तक पहुंच बना सका। इसमें उपरोक्त विवादित ड्रोन शामिल हैं।
इससे एक अहम प्रश्न उत्पन्न होता है: क्या भारत-अमेरिका के रिश्ते मजबूत हैं? या फिर उनके रिश्ते में उथलपुथल जारी रहेगी और अमेरिका वक्त-वक्त पर अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्रता और विधि के शासन को लेकर अपना प्रेम जताता रहेगा? यह सब तीन मानकों पर निर्भर रहने की संभावना है: सैन्य सहयोग की मजबूती और गहराई, भारत को रक्षा उपकरणों की बिक्री की मात्रा और दोनों देशों के बीच रक्षा-उद्योग सहयोग के रिश्ते।
सैन्य सहयोग में संयुक्त युद्धाभ्यास शामिल हैं। इसमें विशेष बलों का अभ्यास वज्र प्रहार और चार देशों वाला मलाबार युद्धाभ्यास शामिल है। संयुक्त अभ्यास से रिश्ते मजबूत होते हैं और अमेरिकी सैन्य उपकरणों की आपूर्ति तब होती है जब अमेरिकी सैन्य सेवा अनुशंसा करती है। परंतु अमेरिका और भारत अभी भी साझा प्रतिबद्धता से दूर हैं। अमेरिका भारत की संबद्धता का स्वागत करेगा लेकिन भारत अमेरिकी जंगों में हिस्सा लेना का इच्छुक नहीं है।
2020-21 के दौरान चीन के साथ भारत की झड़प के दौरान भारतीय सेना ने हथियारों के बजाय सूचना और खुफिया जानकारी की ही मांग की। अमेरिका भी उन्हें मुहैया कराने को राजी था। इस क्षेत्र में दोनों देशों का सहयोग अच्छी तरह काम कर रहा है।
रक्षा बिक्री के आकार की बात करें तो भारत अमेरिका से करीब 25 अरब डॉलर मूल्य के हथियार खरीदता है और अमेरिका में ताजा गतिरोध समाप्त होते ही इसमें और इजाफा होगा। अमेरिकी प्रशासन भारत की इस प्रतिबद्धता से बंधा है कि वह पन्नुन की हत्या के षडयंत्र में अपनी भूमिका का पूरा हिसाब देगा। उसके बाद अमेरिका निर्णय लेगा कि भारत ने ऐसा किया है या नहीं।
ड्रोन के अलावा अन्य रक्षा प्रणालियां भी हैं जिनकी पेशकश अमेरिका भारत को करेगा। उदाहरण के लिए विमानवाहक पोत से उड़ान भरने में सक्षम विमान और पी-8आई बहुउद्देश्यीय समुद्री विमान जो अभी फंड की कमी के कारण अटके हुए हैं।
तीसरी बात, अमेरिका और भारत ‘मेक इन इंडिया’ के सवाल से भी जूझ रहे हैं। यह मिश्रित कहानी है क्योंकि भारत को विनिर्माण तकनीक हस्तांतरित करने की आर्थिकी तत्काल स्पष्ट नहीं है। मसलन भारत भविष्य के तेजस लड़ाकू विमानों में जनरल इलेक्ट्रिक के एफ-414 इंजन लगाना चाहता है। भारत में इन इंजनों का सफल निर्माण ही यह तय करेगा कि भारत को इनका विनिर्माण हस्तांतरित किया जा सकता है या नहीं।
भारत के नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि कम मात्रा में हथियार खरीदने के कारण भारत में उनका निर्माण मुश्किल हो सकता है। अमेरिका में उत्पादन और असेंबली लाइन बन चुकी हैं और वे अमेरिकी बाजार तथा कुछ हद तक साझेदार देशों तक सीमित हैं।
एफ-16 का उदाहरण लेते हैं: अमेरिका में इसकी एक असेंबली लाइन ने अपने जीवनकाल में 3,000 एफ-16 विमान बनाए। जब यूरोपीय साझेदारों ने अपने एफ-16 बनाने पर जोर दिया तो अमेरिका ने दो और उत्पादन केंद्र बनाए-एक इटली में और दूसरा जापान में। उन दोनों संयंत्रों में 2,000 और एफ-16 विमान बनाए यानी तीनों संयंत्रों में कुल मिलाकर 5,000 विमान बने।
अगर भारत कहता है कि वह भारत में एफ-16 विमान बनाना चाहता है तो इसको आर्थिक और औद्योगिक दृष्टि से उचित ठहराना बहुत मुश्किल होगा। चूंकि भारत की उत्पादन लाइन में 150 विमानों की अपेक्षाकृत छोटी तादाद होगी इसलिए लागत स्वाभाविक तौर पर अधिक होगी।
कम तादाद में विमान बनाने का संयंत्र लगाने के लिए भी उपकरण लागत उतनी ही आएगी जितनी कि 1,000 विमान बनाने के बड़े संयंत्र के लिए। भारत इसकी मांग नहीं कर सकता। चूंकि भारत केवल 150 विमान ही चाहता है तो उसे अधिक उपकरणों की आवश्यकता नहीं होगी। ऐसा उत्पादन संयंत्र तभी आर्थिक रूप से व्यवहार्य होगा जब भारत को वैश्विक बाजार के लिए निर्माण केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया जाए।
प्रीडेटर ड्रोन को लेकर भी ऐसी ही बातचीत हुई। भारत 31 ड्रोन खरीदना चाहता था लेकिन उसने जोर दिया कि इन्हें भारत में बनाया जाए। पेंटागन की वार्ता टीम ने कहा, ‘दुनिया भर में 1,200 प्रीडेटर ड्रोन उड़ रहे हैं और उनमें से प्रत्येक अमेरिका में एक ही संयंत्र में बना।’
एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु भारत सरकार का निमंत्रण है: ‘भारत आइए और यहां विनिर्माण कीजिए।’ परंतु इस पर वेंडर यह प्रश्न करते हैं कि जब वे अमेरिका में निर्माण कर ही रहे हैं और पूरी दुनिया को निर्यात कर रहे हैं तो वे दुनिया भर में निर्यात करने के लिए भारत में संयंत्र क्यों लगाएंगे?
विदेशों में स्थित मूल्य उपकरण निर्माता भी पूछते हैं: भारत में ऐसा क्या मिलेगा जो वहां निर्माण करने को वित्तीय दृष्टि से अधिक आकर्षक बनाएगा? भारत की ओर से अक्सर जवाब में कहा जाता है कि हमारे यहां दुनिया का सबसे सस्ता और कुशल श्रम उपलब्ध है। भारत यह नहीं समझ पा रहा है कि सबसे उन्नत सैन्य उपकरणों के निर्माण में श्रम कुल लागत में पांच फीसदी से भी कम का हिस्सेदार है।