बिहार का हालिया जाति सर्वेक्षण ऐसे आंकड़े मुहैया कराता है जो जाति और आर्थिक स्थिति को जोड़ते हैं। इससे पहले ऐसे आंकड़े उपलब्ध नहीं थे। यह मुख्य रूप से तीन चीजों पर ध्यान केंद्रित करता है: जाति समूह में आय से जुड़ी गरीबी, सरकारी नौकरी वाले समूहों का अनुपात और जाति समूहों में शिक्षा का औसत स्तर।
ये तीनों अर्थव्यवस्था में असमानता की व्यापक चिंता की दृष्टि से प्रासंगिक हैं और यह जाति समूहों में आय के स्तर तथा गरीबी की घटनाओं में अंतर में देखे जा सकते हैं। सरकारी नौकरी तक पहुंच मायने रखती है क्योंकि ये नौकरियां अभी भी वंचित वर्ग की आय और सामाजिक स्थिति में सुधार का मुख्य जरिया हैं। शिक्षा तक पहुंच भी मायने रखती है क्योंकि पारंपरिक पारिवारिक रोजगार से इतर दूसरी नौकरियों तक पहुंच का माध्यम शिक्षा ही है।
गरीबी से संबंधित जातीय आंकड़ों की बात करें तो पता चलता है कि 42.93 फीसदी परिवार अनुसूचित जाति से, 42.7 फीसदी अनुसूचित जनजाति से, 33.58 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग से, 33.16 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग से और 25.09 फीसदी सामान्य उच्च वर्ग से हैं। जब बात सरकारी नौकरियों की आती है तो सामान्य जातियां मसलन भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ जातियों की आबादी का 3.19 फीसदी सरकारी नौकरी में है।
अति पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की हिस्सेदारी क्रमश: 0.98 फीसदी, 1.13 फीसदी तथा 1.37 फीसदी है। शिक्षा तक पहुंच में अंतर का आकलन विभिन्न जाति समूहों में स्नातकों की तादाद से किया जा सकता है। सामान्य श्रेणी में 14.54 फीसदी, अन्य पिछड़ा वर्ग में 9.14 फीसदी, अति पिछड़ा वर्ग में 3.12 फीसदी अनुसूचित जाति में 3.12 फीसदी और अनुसूचित जनजाति में 3.53 फीसदी लोग स्नातक हैं।
यह संभव है कि जाति आधारित अंतर बिहार में अधिक स्पष्ट हो क्योंकि वहां पारंपरिक जाति व्यवस्था अधिक मजबूत है और वह न केवल अर्थव्यवस्था में बल्कि राजनीति में भी नजर आती है। परंतु देश के अधिकांश राजनीतिक हिस्से का गुणा-गणित सुझाता है कि अर्थव्यवस्था में जाति की असमानता का असर काफी व्यापक हो सकता है।
भारत की पारंपरिक जाति व्यवस्था तीन बातों पर आधारित रही है: पदसोपान, सामाजिक अलगाव, खासतौर पर विवाह के लिए और तीसरा पेशेगत विशेषज्ञता। हालांकि ये जजमानी के रिश्तों के माध्यम से जातियों के बीच सकारात्मक रूप से संबद्ध रहे हैं। इन रिश्तों ने हर जाति के कर्तव्यों के साथ अधिकारों को जोड़ा और ग्रामीण स्तर पर बहुजातीय एकता कायम की।
अब हम एक ऐसे भारत में है जो प्राचीन साम्राज्यों से बहुत आगे निकल आया है। वे साम्राज्य अर्द्ध स्वतंत्र गांवों से बने थे। परंतु पदसोपान व्यवस्था और सामाजिक अलगाव की व्यवस्था अभी भी कुछ हद तक बची हुई है। यहां तक कि जाति से जुड़ी पेशेगत विशेषज्ञता अभी भी कचरा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में देखी जा सकती है।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन ने एक आकलन तैयार किया कि आय वितरण के आखिरी 10 फीसदी से मध्य आय स्तर तक आने में कितनी पीढ़ियां लगती हैं। इसके लिए पिता और बेटे की आय में बदलाव की दर का परीक्षण किया गया। इस आकलन के मुताबिक सबसे निचले से मध्यम स्तर तक का बदलाव तय करने में सात पीढ़ियां लगती हैं।
इसकी तुलना चीन तथा उससे ऊपर यूरोप तथा अमेरिका से की जा सकती है। जातीय असमानता का बरकरार रहना इसकी वजह हो सकती है। कहा जा सकता है कि श्रेणीबद्धता की भावना भारतीय जातियों में निहित है और वह सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को बढ़ाती है।
आर्थिक असमानता की चुनौती से निपटने के लिए सामाजिक आर्थिक गतिशीलता आवश्यक है। विश्व असमानता डेटाबेस के मुताबिक सन 1990 से 2018 के बीच यह दायरा काफी विस्तारित हुआ है। इस अवधि के दौरान कर पूर्व आय के मामले में शीर्ष 10 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी 34.4 फीसदी से बढ़कर 57.1 फीसदी तक बढ़ी है जबकि अंतिम 50 फीसदी की हिस्स्सेदारी 20.3 फीसदी से कम होकर 13.1 फीसदी रह गई।
ध्यान देने वाली बात है कि शीर्ष एक फीसदी लोग ही शीर्ष 10 फीसदी की वृद्धि में आधे हिस्से के जिम्मेदार हैं। आय की असमानता यकीनन गरीबी रेखा के नीचे की आय के स्तर से अलग है। अधिकांश मूल्यांकनकर्ताओं के मुताबिक उसमें 1990 के बाद की उच्च वृद्धि की अवधि में काफी गिरावट आई है। बहरहाल एक लोकतंत्र में असमानता को कम करना और सामाजिक आर्थिक आवागमन को बढ़ाने की संभावना ही मायने रखती है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की एक हालिया रिपोर्ट तथा कुछ अन्य शोध पत्र सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता को लेकर उल्लेखनीय आंकड़े पेश करते हैं और बताते हैं कि इसे तेज करने के लिए क्या करने की आवश्यकता है। अंतरपीढ़ीगत गतिशीलता के नजरिये से हमें देखना होगा कि निचले स्तर के कामगारों के बच्चों ने कितनी प्रगति की है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘2004 में दैनिक कामगारों के 80 फीसदी से अधिक बेटे खुद ऐसे ही काम में लगे थे। अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग सभी के मामले में यही सच था। गैर अनुसूचित जाति-जनजाति के मामलों में 2018 तक यह आंकड़ा 83 फीसदी से कम होकर 53 फीसदी हो गया। इस दौरान बेहतर सवैतनिक रोजगार मिलने की घटनाएं बढ़ीं। अनुसूचित जाति और जनजाति के मामले में यह 86 फीसदी से घटकर केवल 76 फीसदी हुआ।’
रिपोर्ट यह संकेत भी करती है कि जहां गैर कृषि रोजगार इस अवधि में बढ़े वहीं ऐसा ज्यादातर दैनिक श्रमिकों के मामले में तथा असंगठित क्षेत्र में हुआ। गतिशीलता के नजरिये से जो बात मायने रखती है वह है छोटी जाति के कामगारों को संगठित क्षेत्र में नियमित वेतन वाला रोजगार मिलना। ध्यान रहे कि नियमित संगठित क्षेत्र के रोजगार में वेतन भत्ते दैनिक मजदूरी की तुलना में ढाई गुना तक अधिक हैं।
अंतरपीढ़ीगत गतिशीलता का एक सकारात्मक गुण यह है कि बेटों को अक्सर अपने पिताओं की तुलना में दोगुनी स्कूली शिक्षा मिलती है। बहरहाल, उनके शैक्षणिक संस्थानों में से कई अक्सर कम गुणवत्ता वाले होते हैं।
ऐसी घटनाएं भी नजर आती हैं जहां समाज के निचले तबके के स्नातक की डिग्री हासिल कर चुके ग्रामीण युवा मजदूरी करते पाए गए। ऐसे में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि अंतरपीढ़ीगत गतिशीलता में इजाफा किया जा सके। देश की अर्थव्यवस्था से असमानता कम करने के लिए वह आवश्यक है।
भारत का शहरीकरण और आधुनिकीकरण बढ़ने के साथ ही जाति आधारित श्रेणी एक बड़ी बाधा बन सकती है। अब वक्त आ गया है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर की वह सलाह मानी जाए जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में दी थी। उन्होंने कहा था कि शिक्षा को लोकतांत्रिक बनाकर तथा कौशल हासिल करके पेशेगत विशेषज्ञता को समाप्त करना जरूरी है।
उच्च वर्ग के लोगों के दिमाग में जातीय श्रेष्ठता का भाव भरा हुआ है और वरिष्ठ अफसरशाही तथा प्रबंधन की नौकरियों में वे अभी भी अच्छी खासी हिस्सेदारी रखते हैं। ऐसे में अभी कुछ समय तक जाति आधारित आरक्षण भी आवश्यक है। बहरहाल, प्राथमिक उपाय तो यही होना चाहिए कि सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग की पहुंच गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल विकास तक की जाए।