बीते कुछ महीनों में रूस के कच्चे तेल का आयात तेजी से बढ़ने के साथ ही देश की तेल अर्थव्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। हालांकि ऐसा लगता नहीं कि इन बदलावों ने ऐसी किसी बहस को जन्म दिया हो कि सरकार तथा तेल कंपनियों को कीमतों के निर्धारण की वर्तमान व्यवस्थाओं और प्रणालियों को नई हकीकतों के मुताबिक समायोजित करना चाहिए।
रूस अब भारत को कच्चे तेल की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश बन चुका है। उसने इराक, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को क्रमश: दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर छोड़ दिया है। अमेरिका जो चौथे स्थान पर आ गया था, वह अब भारत को कच्चे तेल की आपूर्ति के मामले में पांचवें स्थान पर है। रूस के कच्चे तेल अथवा यूरल की आपूर्ति में इजाफा फरवरी 2022 में यूक्रेन-रूस युद्ध शुरू होने के बाद हुआ।
अमेरिका और यूरोप के देशों ने रूसी तेल पर प्रतिबंध लगा दिया जिसके बाद यूरल को वैकल्पिक बाजारों का रुख करना पड़ा। भारत के लिए यह एक अवसर था क्योंकि यूरल की कीमत अन्य कच्चे तेलों से 20-30 फीसदी कम थी। भारत ने समझदारी भरी कूटनीतिक पहल के साथ इसका पूरा फायदा उठाया और रूस से तेल का आयात बढ़ा दिया। इस बीच वह पश्चिम की ओर से किसी प्रतिक्रिया से भी बचा रहा।
भारत को रूस से कच्चे तेल की आपूर्ति से कैसे फायदा पहुंचा? मार्च 2022 में जब भारत ने रूसी यूरल का आयात शुरू किया, तब भारत के कुल कच्चे तेल के आयात में इसकी हिस्सेदारी केवल 1.4 फीसदी थी। दिसंबर 2022 तक यह बढ़कर भारत के कुल कच्चे तेल के आयात में 28 फीसदी का हिस्सेदार हो गया।
इससे भारत के कच्चे तेल के स्रोतों में बहुत विविधता आ गई। निश्चित रूप से नीतिगत विशेषज्ञ इसे देश की ऊर्जा सुरक्षा में एक जरूरी इजाफा मानेंगे। पश्चिम एशिया पर भारत की निर्भरता में कमी एक स्वागतयोग्य कदम है क्योंकि भारत करीब दो तिहाई तेल आयात वहीं से करता रहा है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय तेल बास्केट में रूसी तेल की हिस्सेदारी अभी कम नहीं होने वाली है।
परंतु क्या इस विविधता से देश की कच्चा तेल खरीदने की कुल लागत में भी कमी आई है? याद रहे कि रूसी यूरल इंडियन क्रूड ऑयल बास्केट की तुलना में 20-30 फीसदी तक सस्ता पड़ता है। भारतीय रिफाइनरी भी कच्चे तेल की आयात लागत कम होने से लाभान्वित हुईं और उनकी अपेक्षाएं भी काफी बढ़ गईं। हालांकि सरकार द्वारा जारी आयात के ताजा आंकड़ों से इसे झटका लगा है।
तथ्य यह है कि रूसी कच्चा तेल आयात करने की भारत की लागत यूरल की पहले की अंतरराष्ट्रीय कीमतों से निरंतर ऊंची रही और 11 से 50 फीसदी का यह अंतर भी काफी अधिक रहा है। इतना ही नहीं भारतीय रिफाइनरी द्वारा आयातित यूरल की लागत और कच्चे तेल के इंडियन बास्केट की कीमत में भी शायद ही कोई अंतर हो।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या रूस से आयातित यूरल के परिवहन की लागत और उसका बीमा इतना अधिक हो सकता है कीमत में होने वाली बचत को निष्क्रिय कर दे। या फिर कुछ अन्य कारक भी हैं जो भारत की तेल रिफाइनरी को मूल्य में कमी का लाभ अर्जित नहीं करने दे रहे हैं?
यह अपने आप में एक पहेली भी है और चिंता का विषय भी है कि रूस आज भारत का सबसे बड़ा कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता है और इसके बावजूद किसी रिफाइनर ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि रूसी कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उल्लिखित बिक्री मूल्य से अधिक क्यों है?
दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसी अस्पष्टता तेल क्षेत्र में कीमतों के निर्धारण में भी शामिल है। उदाहरण के लिए कागज पर तो भारतीय तेलशोधक कंपनियां पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतें तय करने के लिए मुक्त हैं लेकिन हकीकत में ये कीमतें अक्सर सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों से प्रभावित रहती हैं।
ऐसे में भले ही कच्चे तेल के भारतीय बास्केट की कीमत जून 2022 के 116 डॉलर प्रति बैरल से घटकर दिसंबर 2022 में 78 डॉलर प्रति बैरल रह गई। मार्च 2023 के लिए जरूर यह थोड़ा बढ़कर 83 डॉलर प्रति बैरल हुई लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों की खुदरा कीमत पर इस गिरावट का असर नहीं दिखा।
कहा गया कि कम खुदरा कीमतों का लाभ ग्राहकों को न देकर रिफाइनरों और बाजार को अतीत में हुए लाभ की भरपाई करने का अवसर प्रदान किया गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों को बाजार से जोड़ने की जो बात कही जाती है वह काफी हद तक अभी भी कागजों पर ही है।
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय रिफाइनरी इस बात को कैसे स्पष्ट करेंगी कि आखिर उनकी प्रसंस्करण लागत में ज्यादा गिरावट क्यों नहीं आई जबकि उनके द्वारा परिशोधित किए जाने वाले कच्चे तेल में रूसी यूरल की हिस्सेदारी लगातार बढ़ती रही? इस विषय पर स्पष्टता आवश्यक है ताकि यह तय हो सके कि क्या रिफाइनरी का अंडर रिकवरी का दावा उचित
है।
देश के नीति निर्माताओं को एक और बड़ा प्रश्न हल करना है। कच्चे तेल के भारतीय बास्केट की कीमत के आधार पर ही पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतें तय की जाती हैं। इस बास्केट में केवल दो तरह का कच्चा तेल होता है सॉर ग्रेड यानी ओमान और दुबई एवरेज तथा स्वीट ग्रेड यानी ब्रेंट डेटेड। इन दोनों किस्मों के 75.62 और 24.38 के अनुपात से औसत तैयार किया जाता है।
ध्यान दीजिए कि ऐसे आकलन में रूसी कच्चे तेल अथवा यूरल का कोई उल्लेख नहीं किया जाता है। यह सच है कि रूसी यूरल पिछले एक साल से ही भारत के आयात बास्केट में सबसे बड़ा कच्चा तेल बना है लेकिन क्या वक्त नहीं आ गया है कि कच्चे तेल की भारतीय बास्केट की कीमतों के निर्धारण को लेकर नए सिरे से काम किया जाए?
आदर्श स्थिति में तो एक डायनामिक बास्केट होनी चाहिए जो भारतीय रिफाइनरों द्वारा प्रसंस्करण के लिए आयात की जाने वाली कच्चे तेल की विभिन्न किस्मों को दर्शाते हों। सरकार को तेल कीमतों में सुधार को हमेशा अपने एजेंडे में ऊपर रखना चाहिए। निश्चित तौर पर उस समय इन्हें एजेंडे में और ऊपर होना चाहिए जब हालात कुछ ऐसे हों कि रूस देश का सबसे बड़ा कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता बन गया हो।