केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने गत सप्ताह अमेरिका की वाणिज्य मंत्री जीना रायमोंडो से मुलाकात की। यह बातचीत दोबारा शुरू हुए भारत-अमेरिका वाणिज्यिक संवाद के एक हिस्से के रूप में आयोजित की गई। इस बैठक से जहां कुछ ठोस निकलकर नहीं आया, वहीं इस बात को एक सकारात्मक संकेत माना जाना चाहिए कि कम से कम नियमित चर्चाएं एजेंडे में वापस आ गई हैं।
दोनों मंत्री इस बात पर सहमत हुए कि उनकी अगली बैठक से पहले वरिष्ठ अधिकारी शेष मुद्दों की अर्द्धवार्षिक समीक्षा करेंगे। माना जा रहा है कि मंत्रियों की सालाना मुलाकात का सिलसिला नियमित रूप से शुरू होगा। कुछ ऐसे विशिष्ट क्षेत्र ऐसे थे जहां सहयोग को रेखांकित किया गया। इसमें चीन केंद्रित उत्पादन नेटवर्क से अलग आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत बनाने की बात शामिल थी।
हाल ही में घोषित अमेरिका-इंडिया इनीशिएटिव ऑन क्रिटिकल ऐंड एमर्जिंग टेक्नॉलॉजी (आईसीईटी) की भी संयुक्त वक्तव्य में सराहना की गई। आईसीईटी की मदद से दोनों देशों में भविष्योन्मुखी क्षेत्रों के नवाचार केंद्रों के बीच रिश्ते को मजबूत बनाना है। निश्चित रूप से जनता के बीच संपर्क और इन क्षेत्रों में मजबूत निवेश संपर्क की बदौलत साझेदारी अपने आप मजबूत हो जाएगी।
सवाल यह है कि क्या आईसीईटी की मदद से नियामकीय व्यवस्था को इतना अधिक सुसंगत बनाया जा सकता है कि दोनों देशों को अपने-अपने उच्च तकनीक वाले क्षेत्रों के एकीकरण से लाभ मिले।
बहरहाल, मौजूदा समस्याओं की बात करें तो भारत में कर नीति और अमेरिका में अंतिम इस्तेमाल तथा अन्य प्रतिबंध वाणिज्यिक बातचीत के एजेंडे में शामिल नहीं थे। जो अन्य क्षेत्र इसमें शामिल थे वे हैं हरित और डिजिटल अर्थव्यवस्थाएं, हालांकि इन क्षेत्रों में भी कुछ मौजूदा पहलों को समर्थन देकर विस्तार करने के अलावा कोई खास पेशकश नहीं की गई। इनसे इतर अभी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान दिया जाना शेष है।
प्रमुख समस्या यह है कि 10 वर्ष या उससे पहले की तुलना में व्यापार को लेकर दोनों देशों का रुख बदला है। भारत सरकार जिसने काफी समय इस आशंका में बिता दिया कि मुक्त व्यापार समझौतों के कुछ लाभ हैं भी या नहीं, अब उसने कुछ विकसित देशों के साथ समझौते किए हैं और कुछ अन्य से उसकी बातचीत चल रही है जिनमें उसका सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार यूरोपीय संघ शामिल है।
इस बीच अमेरिका जो एक समय व्यापार एकीकरण का अगुआ था, उसने खुद को व्यापार वार्ताओं से दूर किया है और वह विश्व व्यापार संगठन तथा बहुपक्षीय व्यवस्था पर अपना कब्जा बरकरार रखे हुए है। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन व्यापार को लेकर अपने पूर्ववर्ती की तुलना में अधिक सकारात्मक नहीं हैं।
उनकी वैश्विक आर्थिक पहल, इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क अथवा आईपीईएफ पर इस वाणिज्यिक वार्ता में अवश्य चर्चा हुई लेकिन भारत आईपीईएफ के उस हिस्से में शामिल नहीं है जो व्यापार पर चर्चा करता है। इसके अलावा आईपीईएफ के मूल में कोई वास्तविक आर्थिक बात है भी नहीं।
भारत समेत इस क्षेत्र में अमेरिका के साझेदारों के लिए बड़ा प्रोत्साहन है बाजार पहुंच लेकिन वह भी चर्चा के एजेंडे से बाहर रही। इस बीच अमेरिकी कंपनियां कुछ खास क्षेत्रों को लेकर उतनी अधिक उत्साहित नहीं हैं जबकि वे रोजगारपरक, औद्योगिक और अधोसंरचना से संबंधित हैं। ये क्षेत्र भारत के लिए सर्वाधिक हित वाले क्षेत्र हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि यूरोपीय संघ, जापान और यहां तक कि ब्रिटेन जैसे व्यापारिक साझेदार के साथ होने वाली वाणिज्यिक चर्चा भी अमेरिका के साथ हुई चर्चा की तुलना में अधिक ऊर्जावान नजर आती है।
बहरहाल, अमेरिका के साथ कई मोर्चों पर संबद्धता बरकरार रखने की रणनीतिक जरूरत को नकारा नहीं जा सकता है। अमेरिकी नकदी और अमेरिकी कंपनियों की भारत में भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। उच्चस्तरीय अधिकारियों के बीच नियमित संपर्क की कमी के कारण आर्थिक रिश्तों में दिक्कतें बढ़ती हैं जो व्यापक साझेदारी को प्रभावित करते हैं। नीतिगत स्तर पर नियमित चर्चाओं से आर्थिक रिश्तों को आगे ले जाने में मदद मिलेगी।