देश के बैंकिंग क्षेत्र के नियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने संवेदनशील और अस्थिर क्षेत्रों में बैंकों की भागीदारी पर अंकुश लगाने के लिए लगातार कई कठोर नियम बनाए हैं। ये नियम उचित कारणों से लागू किए गए और उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को पूरा किया है। 1992 के प्रतिभूति घोटाले में जब बैंकों के फंड का इस्तेमाल शेयर बाजार में सटोरिया गतिविधियों के लिए किया गया तब इस व्यवस्था को और मजबूत किया गया। उस समय यह स्पष्ट हो गया था कि भारत का बैंकिंग क्षेत्र कुछ खास तरह की गतिविधियों को वित्तपोषित करने की क्षमता या विशेषज्ञता नहीं रखता था। हालांकि, तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। बैंकिंग क्षेत्र परिपक्व हो गया है और नियामक क्षमता भी इसके साथ-साथ बढ़ी है।
इसलिए भारतीय बैंक संघ (आईबीए) का आरबीआई से बैंक वित्तपोषण पर लगे प्रतिबंधों की समीक्षा करने का अनुरोध करना उचित ही है। भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन सीएस शेट्टी ने कहा है कि आईबीए यह अनुरोध करेगा कि बैंकों को घरेलू कॉरपोरेट क्षेत्र में विलय और अधिग्रहण के लिए वित्तपोषण यानी ऋण देेने की अनुमति दी जाए और इसकी शुरुआत सूचीबद्ध कंपनियों से की जाए। यह स्वागतयोग्य होगा और नियामक को इस अनुरोध पर सकारात्मक ढंग से विचार करना चाहिए।
विलय एवं अधिग्रहण के मामलों में बैंक वित्तपोषण पर लगाए गए प्रतिबंधों के कुछ विपरीत और अनपेक्षित नतीजे सामने आए हैं। एक शिकायत यह है कि यह प्रतिबंध भारतीय कंपनियों को विलय एवं अधिग्रहण के क्षेत्र में नुकसान में डालते हैं। विदेशी प्रतिस्पर्धी अपने देश में उपलब्ध बैंक वित्त का लाभ उठाकर अधिग्रहण की दौड़ में स्थानीय कंपनियों से अधिक बोली लगा सकते हैं। खासकर तब जबकि भारत और अन्य देशों के बीच ब्याज दरों में अधिक अंतर हो।
भारत बैंक वित्त पर आधारित बाजार है, लेकिन अधिग्रहण की तलाश में लगी कंपनियों के लिए यह वित्तीय स्रोत उपलब्ध नहीं होता। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में वित्तीय संरचना बदल रही है। पिछले कुछ वर्षों में कंपनियों ने अपने कर्ज को कम किया है और अब वे अपनी वित्तीय आवश्यकताओं के लिए पूंजी बाजार की ओर रुख कर रही हैं। जैसे-जैसे वित्तीय बाजार विकसित होंगे, अधिक कंपनियां इस मार्ग को अपनाएंगी। इसलिए यह आवश्यक है कि बदलते बाजार परिवेश को ध्यान में रखते हुए बैंकों पर लगाए गए कुछ प्रतिबंधों की समीक्षा की जाए।
जब रिजर्व बैंक आईबीए के प्रस्ताव की परीक्षा करेगा तो उसे सावधानीपूर्वक यह आकलन करना चाहिए कि विलय एवं अधिग्रहण के धन हासिल करने के तरीके किस प्रकार अलग हैं। खासकर जोखिम प्रबंधन की आवश्यकताओं के मामले में यह बैंकों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले वर्तमान कॉरपोरेट ऋण से कैसे अलग हैं। अगर एक सूचीबद्ध कंपनी दूसरी को खरीदने का निर्णय लेती है और अगर दोनों की जोखिम प्रोफाइल पर्याप्त रूप से समान हैं, तो फिर बैंकों से वित्तीय सहायता नए प्रोजेक्ट के लिए उपलब्ध होती है, लेकिन अधिग्रहण के लिए नहीं।
ऐसा क्यों होता है? दोनों ही मामलों में जोखिम का मूल्यांकन, बैलेंस शीट की स्थिरता और भविष्य की आय धाराओं का विश्लेषण शामिल होता है। इसलिए यह उचित होगा कि रिजर्व बैंक यह भी विचार करे कि क्या इस क्षेत्र में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों जैसे विनियमित संस्थानों की भागीदारी से अधिक व्यापक वित्तीय स्थिरता प्राप्त की जा सकती है, या फिर यह क्षेत्र गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और विदेशी फंड्स के अधीन ही बना रहना चाहिए।
विदेश में निजी ऋण में तेजी ने यह भी दिखाया है कि जब बैंक पीछे हटते हैं तो क्या होता है। ऐसे संस्थानों द्वारा किए गए लेनदेन पूरी तरह पारदर्शी नहीं होते, और वे प्रणाली में जोखिम के संचय को छिपा सकते हैं। पिछले दशक में नियामक की प्राथमिकता यह रही है कि इस प्रकार की गतिविधियां बड़े, पारदर्शी और विनियमित संस्थानों द्वारा संचालित की जाएं, न कि निजी या मुखौटा संस्थाओं द्वारा। इस संदर्भ में, अब समय आ गया है कि रिजर्व बैंक यह स्वीकार करे कि भारतीय बैंक कॉरपोरेट को ऋण देने की अपनी कार्यप्रणाली का विस्तार करने के लिए तैयार हैं।
(डिस्क्लेमर: कोटक परिवार द्वारा नियंत्रित संस्थाओं की बिज़नेस स्टैंडर्ड प्राइवेट लिमिटेड में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी है।)