भारत सरकार ने 1969 में देश के बैंकिंग उद्योग के लिए एक बड़ा कदम उठाया था। अब पांच दशक से कुछ अधिक समय बीतने के बाद कई लोग यह प्रश्न पूछने लगे हैं कि क्या वह भारतीय वित्तीय प्रणाली के लिए एक वाकई क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला कदम था?
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई, 1969 को राष्ट्र के नाम संबोधन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी। इसके बाद उसी मध्य रात्रि 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। उस समय इनमें प्रत्येक बैंक के पास कम से कम 50 करोड़ रुपये जमा रकम थी। इसके बाद 1980 में छह से अधिक व्यावसायिक बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। इनमें प्रत्येक बैंक के पास 200 करोड़ रुपये से अधिक जमा रकम थी।
तब से बैंकिंग उद्योग आगे बढ़ता गया। जून 1969 में देश में 73 व्यावसायिक बैंक थे जिनकी संख्या अब बढ़कर 94 हो गई है। इनमें लघु वित्त बैंक और भुगतान बैंक भी शामिल हैं। हालांकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और स्थानीय क्षेत्र बैंक (लोकल एरिया बैंक) इनका हिस्सा नहीं हैं। बैंक शाखाओं की संख्या भी 8,262 से बढ़कर 1,58,373 हो गई है। जून 1969 में 1,833 ग्रामीण, 3,342 अद्र्ध शहरी, 1,584 शहरी और 1,503 महानगरीय शाखाएं थीं। अब क्रमश: इनकी संख्या बढ़कर 52,773, 43,683, 30,638 और 31,279 हो गई हैं। 1969 में 64,000 लोगों पर एक बैंक शाखा थी लेकिन अब यह अनुपात प्रति शाखा 9,500 हो गया है।
जून 1969 में बैंकों का कुल जमा आधार 4,646 करोड़ रुपये था और ऋण खाता 3,599 करोड़ रुपये था। जून 2021 तक जमा आधार बढ़कर 153 लाख करोड़ रुपये और ऋण खाता बढ़कर करीब 108.5 लाख करोड़ रुपये हो गए हैं। पिछले कुछ वर्षों से साार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की चर्चा चल रही हैं क्योंकि उनमें कुछ की वित्तीय सेहत डगमगा गई है। पहली बार फरवरी 2021 के केंद्रीय बजट में दो ऐसे बैंकों के निजीकरण की चर्चा हुई। हालांकि सरकार आईडीबीआई बैंक के निजीकरण करने की योजना का खुलासा पहले ही कर चुकी है।
आईडीबीआई बैंक के निजीकरण पर काम चल रहा है और इस पर भी कयास लगाए जा रहे हैं कि दो अन्य बैंक कौन हैं जिनका निजीकरण किया जाएगा। निजीकरण प्रक्रिया की तरफ बढऩे के साथ ही कई बैंकों का एकीकरण भी हुआ है और अब 2017 से 2020 के बीच इनकी संख्या कम होकर 27 से केवल 12 रह गई है।
वित्त सचिव टी वी सोमनाथन के बयान से बैंक निजीकरण पर चर्चा और तेज हो गई है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में सोमनाथन ने कहा था कि सरकार अंतत: सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों का विलय कर देगी और एक नीति के तौर पर इन पर न्यूनतम नियंत्रण ही रखेगी। हालांकि उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं और उनके बयान को भारत सरकार का आधिकारिक रुख नहीं माना जाना चाहिए।
सन 1969 से पहले भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण की पहल की गई थी। 1963 में इस संबंध में एक अध्यादेश तैयार किया गया था और इसके तहत पांच बड़े सरकारी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना था। राजनीति के अलावा बैंक राष्ट्रीयकरण के पीछे दूसरे कई कारण भी थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई बैंक धराशायी हो गए क्योंकि वे कयास के आधार पर विभिन्न गतिविधियों के लिए रकम दे रहे थे।
आरबीआई 300 से अधिक बैंकों के नियमन एवं निगरानी से जूझ रहा था। इनमें कई बैंक उद्योग एवं कृषि को वित्त मुहैया कराने के लिए तैयार नहीं थे और उन्होंने केवल व्यापार के लिए ऋण आवंटित किए।
सन 1960 में जब पलाई सेंट्रल बैंक और लक्ष्मी कमर्शियल बैंक धराशायी हो गए तो आरबीआई ने इनके उद्धार के लिए बड़े स्तर पर एकीकरण अभियान शुरू किया। इससे 1965 तक बैंकों की संख्या कम होकर 94 रह गई जो 1960 में 328 थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से बैंङ्क्षकग सेवाएं देश के सुदूर क्षेत्रों तक ले जाने और अधिक से अधिक लोगों को इसके दायरे में लाने में मदद मिली। अब इस रुख में बदलाव करने की जरूरत है। इसकी वजह यह नहीं है कि कुछ बैंकों की सेहत अच्छी नहीं है। इसकी वजह यह है कि कमजोरी तो लक्षण मात्र है, दरअसल हमें बीमारी दूर करनी होगी।
राष्ट्रीयकरण के बाद सरकार ने वित्त मंत्रालय में वित्तीय सेवा विभाग (डीएफएस) का गठन किया जिससे साबित हो गया कि बैकों के परिचालन में सरकार अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर वाई वी रेड्डी इसे संयुक्त परिवार रणनीति कहते हैं। बैंक, सरकार और आरबीआई ‘हिंदू अविभाजित परिवार’ का हिस्सा बन गए जिसमें किसी को पूरी तरह नहीं मालूम था कि दूसरा क्या कर रहा है। रेड्डी ने नवंबर 2000 में अपने एक भाषण में कहा कि वे सभी जनता की सेवा कर रहे थे। आरबीआई के एक और गवर्नर रघुराम राजन ने डीएफएस बंद करने तक की सलाह दे डाली।
अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लोगों की सेवा का राजनीतिक माध्यम हैं तो उन्हें कारोबारी इकाई के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
सरकार यह जानती है और यहां तक कि बैंक और उनके ग्राहक भी यह बात समझते हैं। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि सरकार को कारोबार में नहीं उतरना चाहिए। उन्होंने कहा था कि उद्यम एवं कारोबारों को समर्थन देना सरकार का कत्र्तव्य है लेकिन उनका मालिकाना हक भी वह अपने पास रखे यह जरूरी नहीं है। बैंक राष्ट्रीयकरण अपना लक्ष्य पूरा कर चुका है। अब आगे बढऩे का समय है और लोगों की सेवा करने के लिए सरकार को कुछ ही बैंकों पर अपना स्वामित्व रखना चाहिए।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)