जयराम रमेश के ऊर्जा राज्य मंत्री बनने के बाद से श्रमशक्ति भवन की खामोश फिजां में रौनक छा गई है।
अब इस जगह पर छुट्टियों के दिन जितनी हलचल रहती है, उतनी शायद पहले कामकाज के दिनों में भी नहीं होती थी। रमेश को मंत्रालय का कार्यभार संभाले हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ है और महज इतने ही दिनों में पब्लिक सेक्टर की हर कंपनी और यहां तक कि बड़ी प्राइवेट कंपनियां भी नए मंत्री को अपनी स्टेटस रिपोर्ट सौंप चुकी हैं।
वह एक-एक कर मुद्दों को उठाने में जुटे हैं। चाहे वह नैशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन में आईपीओ की देरी का मामला हो या आयातित उपकरणों की क्षमता बढ़ाने की बात हो, उनकी सक्रियता काबिल-ए-तारीफ है। हालांकि उन्होंने अपने लिए जो तीन प्राथमिकताएं तय की हैं, उन पर कुछ चिंता लाजमी है।
पहली प्राथमिकता : ऊर्जा क्षमता में बढ़ोतरी
ऊर्जा की कमी झेल रहे किसी भी देश में इस विभाग के किसी भी मंत्री की इस प्राथमिकता पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। पीक आवर में बिजली की आपूर्ति मांग से 17 फीसदी कम होती है, जबकि औसतन आपूर्ति मांग के मुकाबले 13 फीसदी कम है।
हर ऊर्जा मंत्री और सचिव की सबसे अहम प्राथमिकता यही होती है और इसके लिए पीईआरटी चार्टों (प्रोग्राम इवैल्यूएशन रिव्यू तकनीक) जैसे प्रोजेक्ट मैनेजमेंट उपायों का सहारा लिया जाता है, लेकिन नतीजा हमारे सामने है। पिछले 3 साल में ऊर्जा की क्षमता में बढ़ोतरी लक्ष्य से आधी या इससे भी कम रही है।
वर्तमान योजना के पहले साल भी कुछ ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। क्षमता में बढ़ोतरी के लिए रमेश की भी पुराने फर्ॉम्युले (सतत निगरानी और देखरेख) के तहत आगे बढ़ने की योजना है। यह फॉरम्युला अब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ है। ऊर्जा क्षेत्र के 15 साल के अनुभवों को देखते हुए इस प्राथमिकता के नतीजों के बारे में आशंका क्षमा के योग्य है।
अप्रैल में उर्जा क्षमता में बढ़ोतरी का काम सुचारू रूप से चल रहा है, लेकिन मई में इसमें कमी होने की संभावना है। इस साल 11,061 मेगावॉट अतिरिक्त क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है, जिसे हासिल किए जाने की संभावना के बारे में कोई भी शख्स अनुमान लगा सकता है।
हालांकि मंत्री जी लक्ष्य हासिल करने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं। हाल के कुछ साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे साल बीतता है, वैसे-वैसे सालाना लक्ष्य हासिल करने संबंधी आत्मविश्वास भी डगमगाने लगता है।
दूसरी प्राथमिकता : ग्रामीण विद्युतीकरण
यह इरादा काफी नेक है और साथ ही इसके लिए पर्याप्त राशि (28 हजार करोड़ रुपये) का प्रावधान भी किया गया है। इस राशि का इस्तेमाल 11वीं पंचवर्षीय योजना के बाकी 4 सालों में 1 लाख गांवों के विद्युतीकरण में किया जाएगा। इसके अलावा गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले 2 करोड़ घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध कराने में भी इस राशि का उपयोग किए जाने की योजना है।
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के लिए इस साल पहले ही 5,500 करोड़ रुपये की राशि मुहैया कराने का ऐलान कर चुके हैं। इस राशि को खर्च करना तो बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन इससे गांव के लोगों को किस हद तक फायदा पहुंच सकेगा, यह बहस का विषय है। ज्यादातर राज्य ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम को लगातार चलाने में (वित्तीय एवं अन्य कारणों से) सक्षम नहीं हैं।
इसके मद्देनजर सभी नीति निर्माताओं को गुजरात और राज्य की ज्योतिग्राम योजना से सबक लेने की जरूरत है। इस राज्य ने कृषि के लिए बिजली का इस्तेमाल करने वाले लोगों को अलग कर स्कूलों, अस्पतालों और गांवों के उद्योगों में 24 घंटे बिजली की सप्लाई सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की है। साथ ही इससे सब्सिडी का बोझ भी कम हुआ है।
दरअसल, ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम की वजह से ग्रामीण इलाकों के उद्योगों को फिर से दुरुस्त किए जाने में सफलता प्राप्त हुई है। राजीव गांधी विद्युतीकरण योजना के लिए इतनी बड़ी रकम के प्रावधान के बावजूद इसकी रणनीति में फिलहाल कोई बदलाव की खबर नहीं है।
तीसरी प्राथमिकता : पीएसयू पर फोकस
यह ऐसी प्राथमिकता है जो ऊर्जा संबंधी नीतियों की दिशा में बदलाव की ओर इशारा करता है। ऐसा लगता है कि मंत्री महोदय ऊर्जा उत्पादन का बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सौंपने को लेकर काफी उत्सुक हैं। ऐसा इस क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों का पलड़ा भारी हो जाने की वजह हो सकता है या फिर शुल्क आधारित बिडिंग की प्रक्रिया शुरू होने से।
हम जानते हैं कि सरकार के नवरत्नों में शामिल एनटीपीसी 3 अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्टों में से 1 भी हासिल करने में नाकाम रही। सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के मामले में एनटीपीसी ने 2.126 रुपये प्रति यूनिट बिजली मुहैया कराने का ऑफर किया, जो 9 ऑफरों में किफायत के लिहाज से अंतिम दूसरे स्थान पर था। यह टैरिफ बिड हासिल करने वाले टैरिफ 1.196 रुपये प्रति यूनिट से काफी ज्यादा था।
जहां तक पावर प्रोजेक्ट से संबंधित उपकरणों की बात है, अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट में शामिल कंपनियों द्वारा भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (बीएचईएल) को नजरअंदाज किया गया है, क्योंकि इन कंपनियों को काफी उच्च क्षमता वाले उपकरणों की जरूरत है, जिसकी पूर्ति करने में कंपनी पूरी तरह सक्षम नहीं है।
बहरहाल, अगर जयराम रमेश सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को प्राइवेट सेक्टर के मुकाबले प्रतिस्पर्धा में उतारने को कोशिश में जुटे हैं, तो इसके लिए उनकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि नैशनल हाइड्रो पावर कॉरपोरेशन, एनटीपीसी और भेल जैसी सरकारी कंपनियों को हिलाडुलाकर जगाने की जरूरत है।
लेकिन इस प्रक्रिया में हमें वैसी व्यवस्था की ओर नहीं लौट जाना चाहिए, जिसमे हमें सार्वजनिक कंपनियों की खातिर गुणवत्ता से समझौता करना पड़े। सरकारी कंपनियों को तवज्जो देने के पीछे कई दलीलें दी जा सकती हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश इन अनुभवों से पहले भी गुजर चुका है और हमें यह भी पता है कि इन अनुभवों की भरपाई करने के लिए 1991 से अब तक कितनी मशक्कत करनी पड़ी है।