एक और वर्ष बीत गया है और नई दिल्ली के रणनीतिक और कूटनीतिक दिग्गज एक धुंधले भूराजनीतिक परिदृश्य को लेकर विचार विमर्श करते रह गए। हमारी विदेश सेवा, खुफिया प्रतिष्ठान और सेना के तमाम प्रयासों के बावजूद भारत इकलौता देश है जिसे साढ़े तीन मोर्चों पर सैन्य चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जमीन पर भारत के सामने दो परमाणु हथियार संपन्न शत्रु देश हैं और कश्मीर तथा पूर्वोत्तर में अशांति का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इसके साथ ही भारतीय नौसेना को हिंद महासागर की निगरानी भी करनी है जिस पर चीन की नजर हमेशा रहती है। इस बीच चीन की सेना भारतीय जमीन पर तीन साल पहले किए अवैध कब्जे को बरकरार रखे हुए है। उसने ऐसा भड़ककर किया था क्योंकि 2019 में एक वरिष्ठ भारतीय मंत्री ने संसद में दावा किया था कि भारत अक्साई चिन और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जैसी अपने दावे वाली सारी जमीन चीन और पाकिस्तान से वापस लेगा।
भारतीय सेना के पास कोई दीर्घकालिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) नहीं है और उसके सामने बड़ी चुनौतियां हैं। हमारे शीर्ष निर्णयकर्ता यही मानते हैं कि सैन्य और सुरक्षा सेवाओं को अपनी रणनीतिक स्पष्टता स्वयं तैयार करनी चाहिए। इस बीच वैज्ञानिक और औद्योगिक आधार का विकास करके ऐसे उपकरण तैयार किए जाने चाहिए जो हमारी सैन्य आकांक्षाओं की पूर्ति में वास्तव में सहायक बनें। न कि आत्मनिर्भर भारत जैसी कोरी नारेबाजी बनें। उन्हें दोष नहीं दे सकते क्योंकि रक्षा बजट आवंटन राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में लगातार कम हो रहा है। ऐसे में निजी रक्षा उद्योग के सामने अपने संसाधनों के दम पर उच्च क्षमता वाले हथियार बनाने का जिम्मा रह जाता है।
इस परिदृश्य में देखें तो हाल के वर्षों में भारतीय सेना का सबसे अहम रणनीतिक परिवर्तन यह रहा है कि अब पाकिस्तान से लगी पश्चिमी सेना के बजाय उत्तर में जमावड़ा मजबूत किया जा रहा है। पुरानी स्थिति में बदलाव 2020 की गर्मियों में आना शुरू हुआ जब भारत ने पूर्वी लद्दाख में चीन की घुसपैठ का जवाब तीन इन्फैंट्री डिवीजन (प्रत्येक में 18,000 जवान) की तैनाती करके दिया जिसकी मदद से लद्दाख और उत्तराखंड में भारतीय सीमा का बचाव शुरू किया गया। इससे पहले यह काम एक ही डिवीजन के हवाले था। इसके बाद सैन्य मुख्यालय ने अपनी तीन स्ट्राइक कोर में से एक को पाकिस्तानी सीमा से चीन की सीमा पर लगाया। इसे माउंटेन स्ट्राइक कोर का नयाम नाम दिया गया और इसकी दो डिवीजन को तिबत में आगे बढ़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया था।
इस बदलाव के पहले सेना की 38 डिवीजन में से केवल 12 चीन के सामने थीं जबकि 25 को पाकिस्तान सीमा पर तैनात किया गया था। एक डिवीजन को सेना मुख्यालय में आरक्षित रखा गया था। अब नई व्यवस्था में 16 डिवीजन चीन के सामने होंगेी जबकि 20 पाकिस्तान के तथा दो को रिजर्व रखा जाएगा। चीन या पाकिस्तान इस संकेत की अनदेखी नहीं कर सकते। चीन की सेना के योजनाकारों को भारत पर किसी भी संभावित हमले को लेकर नए सिरे से सोचना होगा। वहीं पाकिस्तान में इस बदलाव ने जरूर कुछ राहत दी होगी।
सेना के भीतर सबसे अहम बदलाव 17 एकल सेवा कमांडों को छोटी तादाद वाली तीनों सेवाओं की थिएटर कमांड में बदलने के रूप में करना है। परंतु 2020 में तीनों सेनाओं के प्रमुख के रूप में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के गठन के बाद भी कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। सरकार की ढिलाई इस बात से महसूस की जा सकती है कि पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत के उत्तराधिकारी की नियुक्ति में 10 महीने लग गए। रावत की दिसंबर 2021 में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।
नए सीडीएस जनरल अनिल चौहान के सामने अहम सवाल बरकरार हैं: क्या थिएटर कमांडर युद्ध के समय सीडीएस को रिपोर्ट करेंगे या रक्षा मंत्री के अधीन रक्षा परिषद को? अगर सीडीएस को परिचालन का नेतृत्व देना है तो इसके लिए तीनों सेनाओं का परिचालन कक्ष बनाना होगा जहां हर सेना के तीन सितारा जनरल अपने-अपने अभियान की निगरानी करेंगे। ऐसे तमाम विवादित प्रश्न हैं। तीन वर्ष की चर्चा के बाद केवल पहली दो एकीकृत कमांड की रूप रेखा नजर आती है: राष्ट्रीय एयर डिफेंस कमांड जो देश के हवाई क्षेत्र की रक्षा करेगी और दूसरी मैरीटाइम थिएटर कमांड जो समुद्री ऑपरेशन की देखरेख करेगी। लेकिन अन्य एकीकृत कमांडों के मामले में अभी भी प्रगति है: स्ट्रैटेजिक फोर्सेज कमांड देश की परमाणु क्षमताओं पर नजर रखेगी, स्पेशल फोर्सेज कमांड गोपनीय ऑपरेशंस की प्रभारी होगी, वेस्टर्न थिएटर कमांड गुजरात से सियाचिन तक भारत-पाक सीमा का ध्यान रखेगी और नॉर्दर्न थिएटर कमांड काराकोरम दर्रे से पूर्वी अरुणाचल प्रदेश तक चीन सीमा का ध्यान रखेगी।
गत अप्रैल में सेवानिवृत्त हुए जनरल एमएम नरवणे ने एकीकृत थिएटर कमांड के निर्माण को लेकर चल रही बहसों के बीच सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि थिएटरीकरण के क्रियान्वयन के लिए एनएसएस जरूरी है। थिएटरीकरण की एक और पूर्व शर्त थी एक उच्च रक्षा संस्थान की स्थापना जिसमें सभी मंत्रालयों के प्रतिनिधि शामिल हों ताकि सेना के समक्ष राष्ट्रीय राजनीति सहमति पेश की जा सके। वह कहते हैं कि बिना इनके थिएटरीकरण सही नहीं होगा।
भारत शायद इकलौती बड़ी सैन्य शक्ति है जिसने एक अपने रणनीतिक लक्ष्यों को प्रकाशित नहीं किया है। यह दस्तावेज संभावित सुरक्षा चुनौतियों और उनसे निपटने के तरीके के बारे में बताता है। दशकों से सैन्य नेतृत्व इन कमियों के लिए सरकार की आलोचना करता रहा है और कहता रहा है कि एक स्पष्ट एनएसएस की मदद से ही हम भू राजनीतिक परिदृश्य सही तरीके से सामने रख सकेंगे और यह बता सकेंगे कि भारत की क्या भूमिका होगी। इसी से राष्ट्रीय रक्षा नीति निकलेगी जो हमारी सैन्य आकांक्षाओं को जाहिर करेगी।
आखिर में सकारात्मक ढंग से बात समाप्त करने के लिए सरकार ने जून में पेंशन बजट कम करने की दिशा में एक साहसी कदम उठाया। रक्षा क्षेत्र के सालाना आवंटन में 23 फीसदी हिस्सेदारी इसी की है। अगर सेवारत जवानों और अधिकारियों के वेतन भत्ते जोड़ दें तो यह हिस्सेदारी 54 फीसदी हो जाती है। हथियारों के आधुनिकीकरण पर और अधिक पूंजी व्यय के लिए तथाकथित अग्निपथ योजना में कम सेवा अवधि की व्यवस्था की गई है।
इसके जरिये सेवानिवृत्ति के पश्चात पेंशन पाने वालों की तादाद में भी कमी आएगी। इस योजना में जवानों को चार वर्ष के लिए भर्ती किया जाएगा और उनमें से 25 फीसदी को पूरी अवधि प्रदान की जाएगी। रक्षा मंत्रालय का दावा है कि इससे न केवल लागत में कमी आएगी बल्कि अग्निपथ योजना से जवानों की औसत आयु में कमी आएगी तथा वह 32 से घटकर 27 रह जाएगी।, वे ज्यादा चुस्तदुरुस्त रहेंगे तथा तकनीक के जानकार होंगे। यह सही हो सकता है और मानव संसाधन की लागत कम करना इतना आवश्यक है कि ऐसे अन्य नवाचारों की भी आवश्यकता होगी।