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कोविड-19 महामारी के संकट से इतर भी हो सुधार पर नजर

Last Updated- December 15, 2022 | 7:54 PM IST

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने कहा था कि सत्ताधारी राजनेताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती है लंबी अवधि की नीति पर ध्यान केंद्रित करना। सरकार के सामने हर रोज नई चुनौतियां उभरती हैं, ऐसे में दूरगामी नीति तैयार करना उसकी प्राथमिकता में पीछे हो सकता है।
भारत के मौजूदा नेतृत्व के समक्ष भी यह समस्या हो सकती है। कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया है और भारत में भी इसने उत्पादन पर बहुत बुरा असर डाला है। इसके अलावा तमाम आर्थिक दिक्कतें हमारे सामने हैं। कुछ मुसीबतों को तो हमने स्वयं न्योता दिया था मसलन नोटबंदी। यहां तक कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसी व्यवस्था जिससे चीजें आसान होनी चाहिए थीं, उसने ऐसी कई आपात परिस्थितियां पैदा कीं जिन्हें नीति निर्माता सही तरह से समझ नहीं सके। इससे प्रतिस्पर्धा में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ बल्कि इससे छोटे और मझोले उपक्रमों पर दबाव उत्पन्न हुआ। इससे राज्यों और केंद्र सरकार के बीच समय पर बकाया भुगतान को लेकर विवाद उत्पन्न हुए। सबसे अहम बात राजस्व के मोर्चे पर भी इसका प्रदर्शन अपेक्षा से खराब रहा। इससे भारी वृहद आर्थिक अस्थिरता पैदा हुई।
दिक्कत यह नहीं है कि सरकार आपात परिस्थितियों से जूझने के कारण दीर्घावधि की योजना नहीं बना पा रही है। दिक्कत यह है कि इसे इन आपात परिस्थितियों से इसलिए जूझना पड़ रहा है क्योंकि वह दीर्घावधि की नीति बनाने में नाकाम रही।
महामारी के बारे में कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता था कि यह आपूर्ति नेटवर्क और मांग को कितना नुकसान पहुंचाएगी। परंतु अगर अर्थव्यवस्था पहले से मजबूत होती तो वह महामारी और लॉकडाउन के असर से बेहतर ढंग से निपट सकती थी। गत सप्ताह जारी किए गए जीडीपी के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमापन तो पहले से आ रहा था। इसके बावजूद अगले एक वर्ष से 18 महीनों के दौरान सरकार और उसके विभिन्न साझेदार सारी आर्थिक समस्याओं के लिए कोविड-19 को उत्तरदायी ठहराने वाले हैं। उसे ऐसे दावे करके बचने नहीं देना चाहिए। आंकड़े स्पष्ट बताते हैं कि महामारी के पहले ही आर्थिक स्थिति में धीमापन शुरू हो चुका था। निजी निवेश कम था और सरकार व्यय बढ़ाकर क्षतिपूर्ति कर रही थी। परंतु इससे निवेश और निजी खपत का संतुलन बिगड़ रहा था।
जब महामारी का आगमन हुआ, तब स्वाभाविक रूप से सरकार की पहली प्राथमिकता थी लॉकडाउन से निपटना और तात्कालिक राहत उपलब्ध कराना। परंतु उसके बाद जब वृद्धि और मांग बहाल करने के नीतिगत उपाय शुरू हुए तो सरकार में व्यापक मशविरा शुरू हुआ। इसमें कुछ भी गलत नहीं। बल्कि अगर सरकार सलाह मशविरा ले तो उसके नोटबंदी जैसी चूक करने की आशंका कम होती है। परंतु इससे यह भी पता चला कि छह साल के कार्यकाल में सरकार आर्थिक सुधार के एजेंडे को लेकर अनिश्चित रही।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में यह बात इतनी स्पष्ट हो चुकी है कि अब कोई इस पर टिप्पणी भी नहीं करता। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार मेंं आपको पता होता था कि वे क्या चाहते हैं लेकिन उनमें इच्छाशक्ति का अभाव था। राजग में आपको पता है कि उनके अंदर इच्छाशक्ति है लेकिन इरादा नजर नहीं आता। क्रियान्वयन कौशल कभी नीतिगत दृष्टिकोण की जगह नहीं ले सकता।
यहां तक कि केंद्रीय वित्त मंत्री ने जो महामारी पैकेज घोषित किया उसमें भी कोई सुसंगत नीति नहीं नजर आई। कहने का मतलब यह नहीं कि कहीं कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हुआ। कृषि क्षेत्र में लंबे समय से लंबित सुधार किए गए। हालांकि अभी भी कारक बाजार सुधार से लेकर आपूर्ति शृंखला और खुलेपन को लेकर कई भ्रम बाकी हैं। बैंकिंग क्षेत्र भी इस सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही अद्र्ध पंगु अवस्था में है। इसके बावजूद इसे सुधारने के आधे-अधूरे प्रयास ही किए गए। हमें पता है कि संकट सुधार की दिशा में ले जाते हैं लेकिन उसकी एक पूर्व शर्त यह भी है कि हमें पता हो कि कौन से सुधार करने हैं। जब सन 1991 के सुधार किए गए तब सरकार को इस बारे में पता था कि क्या करना है। मौजूदा सरकार न केवल सुधार की परीक्षा में विफल रही है बल्कि वह तैयारी की परीक्षा में भी नाकाम रही है।
आखिर कहां गलती हुई? एक समस्या तो बिल्कुल स्पष्ट है- सरकार के भीतर ऐसी कोई अलग इकाई नहीं है जो स्पष्ट नीति लागू करने का काम करे। ब्लेयर ने सरकार के रोजमर्रा के विचलन से निपटने के लिए एक नई नीतिगत इकाई गठित की थी जिसमें 50 विशेषज्ञ शामिल थे। उसमें अफसरशाह, निजी क्षेत्र और अकादमिक जगत के लोग शामिल थे।
इस नीतिगत इकाई ने राजनेताओं के बयान को वास्तविक नीति के एजेंडे में बदल दिया और भविष्य की चुनौतियोंं का अनुमान लगाने तथा उनका आकलन करने का प्रयास भी किया। शुरुआत में आशा थी कि नीति आयोग ऐसी इकाई बनेगा लेकिन यह भी सरकार के लिए मानव संसाधन का आरक्षित पूल अधिक नजर आ रहा है जो विशिष्ट समस्याओं को दूर करने में काम पर लगाया जा सकता है।
बड़ी समस्या यह है कि शीर्ष स्तर पर संदेश और चुनाव स्पष्ट और निरंतरता भरा नहीं है। अब आत्मनिर्भरता पर जोर दिया जा रहा है लेकिन इसे लेकर भी अलग-अलग अधिकारी, मंत्री और एजेंसियां अलग-अलग तरीके से सोच रहे हैं। यह भी दिक्कत वाली बात है। क्या इसका अर्थ 21वीं सदी के स्वदेशी के विचार से है? क्या यह चीन के दबदबे को चुनौती देने का प्रयास है? क्या इसका अर्थ यह है कि निर्यात के विचार के रूप में मेक इन इंडिया को खारिज किया जा रहा है? इस बारे में सबकुछ गड्डमड्ड है। अगर नजरिया स्पष्ट नहीं होगा तो कोई योजना नहीं होगी और बिना योजना के सुधार नहीं होगा। बिना सुधार के वृद्धि हासिल नहीं होगी। संकट आते-जाते रहेंगे लेकिन बिना नीति के केवल वृद्धि ही जाएगी।

First Published - June 10, 2020 | 11:16 PM IST

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