कमला हैरिस नवंबर में अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में औपचारिक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी घोषित हो चुकी हैं। शिकागो में डेमोक्रेटिक पार्टी का सम्मेलन हैरिस के सफल अभियान के शिखर पर पहुंचने का साक्षी बन गया है। कुछ हफ्तों पहले तक हैरिस की पहचान एक मामूली राजनेता और कम प्रभावशाली उप राष्ट्रपति की थी मगर अब वह इस छवि से बाहर निकल चुकी हैं।
मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन ने जब अपनी पार्टी के दबाव में आकर चुनावी होड़ से हटने का निर्णय लिया तो हैरिस को बिना किसी विरोध के आनन फानन में अनौपचारिक रूप से पार्टी का प्रत्याशी घोषित कर दिया गया। हैरिस के लिए यह सब इतना आसान होगा इसकी उम्मीद तो शायद किसी को नहीं थी। उनके चुनाव अभियान के लिए अचानक धन का अंबार लगने लगा। कई हफ्तों तक बाइडन प्रशासन के अंदर इस बात पर जोर दिया जाता रहा कि वर्तमान राष्ट्रपति को दूसरे कार्यकाल के लिए भी दावेदारी पेश करनी चाहिए। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि बाइडन पीछे हटेंगे तो हैरिस स्वतः ही विकल्प बन जाएंगी, लेकिन उनमें ‘राष्ट्रपति बनने की खूबियां’ नहीं हैं। कहा जा रहा था कि वह रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप को आसान जीत हासिल करने से नहीं रोक पाएंगी।
आज की बात करें तो जनमत सर्वेक्षणों में हैरिस पूर्व राष्ट्रपति एवं अपने प्रतिद्वंद्वी ट्रंप से आगे चल रही हैं। राजनीतिक हवा हैरिस के पक्ष में है। पूरे देश में उन्होंने एक खुशनुमा माहौल बना दिया है और उनके प्रचार अभियान के शेष बचे छह हफ्तों में कोई गंभीर उलटफेर नहीं हुआ तो वह अमेरिका में पहली महिला राष्ट्रपति बन सकती हैं। हैरिस राष्ट्रपति बनने के करीब पहुंच चुकी हैं और अगर निर्वाचित होती हैं तो विश्व के अधिकांश हिस्सों के लिए यह बड़ी राहत होगी। अमेरिका में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग, विभिन्न देशों में कई नेता और समान विचारधारा के लोग हैरिस की जीत चाहते हैं।
हैरिस सर्वेक्षणों में आगे चल रही हैं और उनके पक्ष में हवा बन रही हैं लेकिन कुछ ऐसे कारण भी हैं, जो आने वाले दिनों में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। अमेरिका में रहन-सहन महंगा होना हैरिस के लिए नुकसानदेह हो सकता है किंतु नवीनतम आंकड़े इशारा कर रहे हैं कि कुछ सुधार हुआ है। आव्रजन एक अन्य विषय है, जिस पर ट्र्ंप अपने सख्त और मुखर नस्लवादी विचारों के कारण हैरिस पर भारी पड़ रहे हैं।
विदेश नीति के मोर्चे पर अगर बाइडन प्रशासन गाजा में संघर्ष विराम कराने में सफल रहता है तो फिलीस्तीन समर्थक, उदार एवं युवा मतदाताओं के बीच हैरिस की राजनीतिक पकड़ मजबूत हो जाएगी। मगर युद्ध जारी रहा और गाजा तथा पश्चिमी तट पर हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन के मामले कम नहीं हुए तो हमेशा डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट देने वाले मतदाता मतदान से दूर रह सकते हैं।
यह बात अलग है कि इसकी वजह से ट्रंप के मतों में इजाफा नहीं होगा। हैरिस गाजा में तत्काल संघर्ष विराम कराने और हिंसा रोकने के पक्ष में बाइडन की तुलना में मजबूती से अपनी बात रख पाई हैं। वह इस मुद्दे पर अपनी आवाज और बुलंद कर सकती हैं मगर वह इजरायल विरोधी रुख भी अख्तियार नहीं कर सकती हैं। उनका रुख इजरायल विरोधी दिखा तो यहूदियों के वोट ट्रंप को जा सकते हैं।
यूक्रेन युद्ध का महत्त्व शायद कुछ कम होगा। अमेरिका में लोग इस युद्ध से और अपनी सरकार से यूक्रेन को मिल रहे समर्थन से उकता चुके हैं। यूरोप में भी ऐसी ही बात है। रूसी क्षेत्र में हाल में यूक्रेन की सेना का अचानक और साहसिक आक्रमण जारी रहा तो जनता यूक्रेन को सहायता जारी रखने के फैसले को समर्थन दे सकती है। इसके उलट अगर रूस आने वाले हफ्तों में सफलतापूर्वक यूक्रेन की सेना को पीछे धकेल देता है और पूर्वी यूक्रेन में और जमीन पर कब्जा जमाता है तो तस्वीर बदल सकती है।
लोगों ने सोचा होगा कि भारतीय मूल की अमेरिकी राजनेता के शानदार उदय के बाद भारत में भी लोगों के मन में दिलचस्पी और उनके प्रति लगाव बढ़ जाएगा। विदेश में भारतीय मूल के लोगों की सफलता की भारत में काफी सराहना होती है और इसे गर्व समझा जाता है। इस बात की चर्चा भी हो रही है कि किस तरह हैरिस की माता नए मौकों और बेहतर जीवन की तलाश में अमेरिका गईं। अमेरिका में हैरिस की राजनीतिक यात्रा को भी लोगों का ध्यान खींचना चाहिए था मगर मगर ऐसा नहीं हो पाया है। यह असामान्य बात जरूर है।
अमेरिका में चुनाव के बाद अगले वर्ष जनवरी में जो भी प्रशासन (ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी या ट्रंप के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक पार्टी) सत्ता संभाले, भारत को उसके साथ तालमेल बैठाना होगा। अमेरिका में अगर आप अपने मित्रों से बात करें तो अक्सर सुनने में आता है कि डेमोक्रेट मान रहे हैं कि वर्तमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार हैरिस के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक प्रशासन की तुलना में ट्रंप की अगुआई वाली रिपब्लिकन पार्टी सरकार को अधिक पसंद करेगी। वाकई ऐसा है तो भारत को यह धारणा दूर करने के लिए अपनी तरफ से प्रयास करना चाहिए। सितंबर में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका जाएंगे। उन्हें वहां हैरिस से मुलाकात करनी चाहिए, जो इस मामले में फायदेमंद होगी।
पिछले एक दशक में भारत-अमेरिका संबंधों का दायरा बढ़ा है और इसमें काफी परिपक्वता भी आई है। कुछ मसलों जैसे बांग्लादेश आदि पर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं मगर सामरिक एवं अहम नीतिगत मोर्चों पर उनके विचार एक जैसे हैं। भारत और अमेरिका में कोई नहीं चाहता कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन का दबदबा हो। भारत विकास एवं बदलाव के महत्त्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है, इसलिए अत्याधुनिक तकनीक (असैन्य एवं रक्षा क्षेत्रों दोनों के लिए) तक पहुंच इसके लिए अहम है।
भारत के लिए अमेरिका खास तौर पर सेवा क्षेत्र के लिहाज से बड़ा बाजार है और भारत की आर्थिक तरक्की के लिए अमेरिका से पूंजी प्रवाह की अहमियत बढ़ गई है। पिछले कई वर्षों से अमेरिका में भारत को दोनों दलों का समर्थन मिलता रहा है। यह सिलसिला जारी रहना चाहिए और राजनीतिक एवं नागरिक समाज के साथ लगातार जुड़कर इसे मजबूत बनाया जाना चाहिए। पहले की ही तरह भारत की आंतरिक राजनीति एवं सामाजिक मुद्दों पर अमेरिका टीका-टिप्पणी करता रहेगा मगर हमारी प्रतिक्रिया सहज एवं परिपक्व होनी चाहिए।
एक ऐसा विषय भी है जिसे दोनों ही देशों को सावधानी से निपटना होगा। यह विषय कनाडा और अमेरिका में खालिस्तानी तत्वों की भारतीय सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े लोगों द्वारा कथित हत्या के प्रयासों से जुड़ा है। अमेरिका में इस पर मुकदमा शुरू हो चुका है, जिससे यह मामले पेचीदा हो गया है। मगर इसकी छाया दोनों देशों की उस साझेदारी पर नहीं पड़नी चाहिए, जो अनिश्चितता भरे माहौल में भू-राजनीतिक संबंधों का आधार बन चुकी है।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)