अफसरशाही यानी ब्यूरोक्रेसी में बड़े पदों पर निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति (लैटरल अपॉइंटमेंट्स) पर छिड़ी बहस के बीच एक बड़े मसले की अनदेखी हो गई है। यह मसला है आर्थिक सुधारों के साथ बड़े प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता। ई-सेवाओं में काफी इजाफा होने के बाद भी कारोबारियों और नागरिकों के लिए भारतीय ब्यूरोक्रेसी के साथ काम करना या सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन रहा है। इस बात की शिकायतें भी लगातार होती रही हैं।
अगर भारत दुनिया की शीर्ष कंपनियों के लिए चीन का विकल्प बनना चाहता है तो उसे यह बात अवश्य समझनी चाहिए कि चीन ने 1995 में एक बड़ा प्रशासनिक सुधार किया था। यह सुधार उसने आर्थिक उदारीकरण के 15 वर्षों बाद किया और अपनी सरकार को आधुनिक जामा पहना डाला। भारत में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के पहले कार्यकाल में प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता महसूस की गई और देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के 15 वर्ष बाद दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने 1,600 से अधिक सुझाव दिए। परंतु जैसा सुधार चीन में हुआ था वैसा बेहद आवश्यक और व्यापक प्रशासनिक सुधार भारत में नहीं हो पाया।
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत हो चुकी है और अब समय आ गया है कि हम लंबे समय से अटके प्रशासनिक सुधारों को आगे बढ़ाएं। क्या ये सुधार हो पाएंगे और उनके क्या मायने होंगे? अंतरराष्ट्रीय मानकों से तुलना करें तो भारत में सिविल सेवा का आकार बहुत छोटा है और इसकी बनावट में बड़े बदलाव की जरूरत है। इसमें क्लर्कों और प्रशासनिक कर्मियों की संख्या बहुत अधिक है किंतु तकनीकी विशेषज्ञों, शिक्षकों और स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या काफी कम है। 1990 के दशक में कुल रोजगार में सामान्य सरकारी रोजगार की हिस्सेदारी लगभग 1 प्रतिशत थी, जो उस समय एशिया में सबसे कम थी। उसके बाद से अनुपात बढ़ा जरूर है मगर ज्यादातर वृद्धि सुरक्षा एजेंसियों में हुई है। अधिकतर एशियाई देशों में यह 2 प्रतिशत से अधिक और मलेशिया तथा श्रीलंका में 3 प्रतिशत से अधिक है।
सिविल सेवा का आकार बेशक छोटा है मगर इस पर खर्च बहुत अधिक होता है। भारत में सामान्य सरकारी कर्मचारी के औसत वेतन और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात लगभग 4 है, जो दुनिया में सबसे अधिक अनुपातोंमें है। एशिया के अधिकतर देशों में यह अनुपात 1 (वियतनाम और चीन) और 2.5 (इंडोनेशिया, श्रीलंका, फिलीपींस) के बीच रहा है। दक्षिण कोरिया, थाईलैंड और मलेशिया में भी सामान्य सरकारी कर्मचारी के औसत वेतन और प्रति व्यक्ति जीडीपी अनुपात लगभग 3 से 4 के बीच रहा है। अरब देशों और तुर्किये में यह अनुपात लगभग 2 से 3 के बीच है। आम धारणा के उलट भारत में सरकारी तंत्र जरूरत से काफी कम है मगर देश की आय की तुलना में काफी खर्चीला है। यहां सरकारी तंत्र काफी हस्तक्षेप करने वाला माना जाता है, जबकि इसके पास न तो पर्याप्त लोग हैं और न ही कारगर परिणाम देने की क्षमता है।
भारत में ब्यूरोक्रेसी में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को काफी कम और निचले स्तर पर बैठे लोगों को काफी अधिक वेतन दिया जाता है। यह अंतर या कम्प्रेशन रेश्यो (सर्वोच्च और सबसे निचले दायरे में आने वाले लोगों के बीच औसत वेतन का अनुपात) काफी कम हो गया है। यह स्थिति इसलिए पैदा हुई क्योंकि शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का वेतन कम रखा गया और निचले पदों के लिए वेतन तेजी से बढ़ा दिया गया।
सातवें वेतन आयोग के अनुसार ग्रेड सी के शुरुआती स्तर के वेतन और ग्रेड ‘ए’ के शुरुआती वेतन में कम्प्रेशन रेश्यो 3.12 है मगर दोनों ग्रेड में सर्वाधिक वेतन पाने वाले कर्मियों के लिए रेश्यो 3.74 ही है। सिविल सेवा में शीर्ष स्तर पर वास्तविक वेतन निजी क्षेत्र की तुलना में काफी कम हो गया है जबकि निचले स्तर पर वेतन (अन्य लाभ सहित) निजी क्षेत्र की तुलना में अधिक है।
इसका मतलब हुआ कि ऊंचे स्तरों निर्णय लेने के अधिकार वाले कर्मचारियों का वेतन कम हुआ है, जिसके कारण उनकी गुणवत्ता में भी कमी आई है। इनकी तुलना में निचले स्तरों पर काम करने वाले लोग, जो सरकार के श्रम बल का 90 प्रतिशत हिस्सा हैं, निजी क्षेत्र की तुलना में काफी अधिक वेतन पा रहे हैं। ऐसे में सरकारी नौकरी की लालसा हैरत की बात नहीं है।
सरकारी नौकरी में सुरक्षा अधिक रहती है और निचले स्तरों पर वेतन-भत्ते भी काफी अधिक मिलते हैं। ब्यूरोक्रेसी के शीर्ष पर प्रशासनिक सेवा के लोग बैठते हैं, जो सक्षम भी हैं और चतुर भी हैं मगर अपने क्षेत्रों में दुनिया भर में हो रहे बदलावों के हिसाब से ढलने के लिए जरूरी विशेषज्ञता प्राप्त करने का समय ही उनके पास नहीं है।
भारत को होड़ में आगे रखने के वास्ते उन्हें अपने क्षेत्रों में सरकारी नीतियां आगे बढ़ाने के लिए जो तकनीकी हुनर चाहिए वह अक्सर उनके पास होता ही नहीं है। उन्हें अपने काम में लगातार अत्यधिक राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है। योग्यता को तवज्जो देने वाली संस्कृति बनाए रखनी है तो जिंदगी भर आरामतलबी के साथ प्रोन्नति का चलन छोड़कर नियमित परीक्षाओं के जरिये प्रोन्नति वाली अधिक पेशेवर और प्रदर्शन पर आधारित सिविल सेवा तैयार करनी होगी।
पूर्वी एशिया के देशों जैसे जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और ताइवान की सिविल सेवा प्रणाली से भारत काफी कुछ सीख सकता है। ब्यूरोक्रेसी में शीर्ष पर अधिक विशेषज्ञता की जरूरत है, औपनिवेशिक प्रणाली से विरासत में मिले पुराने ढर्रे वाले चालू तंत्र की नहीं। विशेषज्ञता लाने के लिए सिविल सेवा अधिकारियों को शुरू से ही कार्य कुशल एवं दक्ष बनाने की जरूरत है।
उदारीकरण के बाद से भारत में कई नियामकीय संस्थाएं बनी हैं, जिनकी कमान तकनीकी दक्षता वाले किसी विशेषज्ञ के बजाय अक्सर सेवानिवृत्त वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों को सौंपी जाती रही है। दुनिया के अन्य देशों में नियामकीय इकाइयों की कमान अमूमन विशेषज्ञ संभालते हैं। भारत को अधिक पारदर्शी और कम जटिल आधुनिक नियामकीय ढांचे की जरूरत है, जिसकी कमान संबंधित क्षेत्र की खास समझ रखने वाले पेशेवरों के हाथों में हो न कि सेवानिवृत्त अधिकारियों के पास। इनकी नियुक्ति खुली प्रतियोगिता से होनी चाहिए। भारत को ऐसी प्रणाली की जरूरत है, जो निजी निवेश की प्रक्रिया बाधित किए बिना नियामकीय स्तर पर सांठगांठ कम करे।
भारत का सार्वजनिक व्यय बहुत अधिक नहीं है मगर इसका आवंटन ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। सरकार के कुल व्यय का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा विकास कार्यों से अलग खर्च होता है। इसका एक बड़ा हिस्सा प्रशासनिक अधिकारियों के वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने में खर्च होता है। भारत केंद्र एवं राज्य स्तरों पर काफी रकम खर्च करता है मगर स्थानीय निकायों के स्तर पर बहुत ही कम रकम (4 प्रतिशत) आवंटित की जाती है। अगर स्थानीय निकायों के स्तर पर पर्याप्त रकम खर्च की जाए तो अधिक शिक्षक, नर्स और कंपाउंडर की भर्ती हो सकेगी क्योंकि इन स्तरों पर वेतन राज्य की राजधानियों या केंद्र की तुलना में कम होते हैं। इतना ही नहीं, इससे स्थानीय स्तर पर इन लोगों के प्रदर्शन की निगरानी भी हो सकेगी।
क्या मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में अपनी सरकार के आधुनिकीकरण के लिए जरूरी प्रशासनिक सुधार को आगे बढ़ाएगी? इसका अनुमान लगाना मुश्किल है क्योंकि फिलहाल देश में गठबंधन सरकार है इसलिए लेटरल अपॉइंटमेंट जैसे मसले पर भी बात अटक गई। अगर भारत 21वीं शताब्दी में ‘विकसित भारत’ का सपना साकार करना चाहता है तो यह औपनिवेशिक काल के तर्ज काम नहीं कर सकता। सरकार के व्यापक आधुनिकीकरण का समय संभवतः आ गया है। लेटरल अपॉइंटमेंट की भी अपनी भूमिका (खासकर विशेष एजेंसियों एवं नियामकीय ढांचों की अध्यक्षता में) है मगर प्रमुख सरकारी कार्यों के लिए पेशेवर रूप से अधिक दक्ष एवं कुशल सिविल सेवा की आवश्यकता है।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में अतिथि शिक्षक हैं)