इस वर्ष जनवरी में भारत सरकार ने ग्रीन हाइड्रोजन मिशन (GHM) की शुरुआत की। इस मिशन का लक्ष्य है ग्रीन हाइड्रोजन के लिए परिस्थितियां तैयार करने तथा इस उभरते क्षेत्र में उपलब्ध चुनौतियों और अवसरों को लेकर व्यवस्थित प्रतिक्रिया देने के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के वास्ते एक व्यापक कार्य योजना तैयार करना। भारत ने 2070 तक जो विशुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन हासिल करने का लक्ष्य तय किया है उसके लिए यह मिशन बहुत अहम है।
यह मिशन न केवल भारत के जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने की दृष्टि से अहम है बल्कि यह ऊर्जा का स्वच्छ और प्रचुर स्रोत मुहैया कराके देश की ऊर्जा सुरक्षा भी सुनिश्चित कर सकता है। चूंकि इस मिशन को बहुत व्यापक पैमाने पर अपनाया जा रहा है इसलिए GHM इसे एक अवसर के रूप में देख रहा है जहां भारत को हरित हाड्रोजन तथा उसके प्रकारों के उत्पादन, उपयोग और निर्यात का बहुत बड़ा केंद्र बनाया जा सकता है। इससे आत्मनिर्भर भारत बनाने का लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी।
चूंकि GHM देश की ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन संबंधी रणनीति का अहम हिस्सा है इसलिए इसके विभिन्न पहलुओं का परीक्षण करना उपयोगी होगा। साथ ही यह देखना भी कि यह कितना व्यवहार्य है और क्या इस मिशन के तहत लगाए जा रहे अनुमान विश्वसनीय हैं?
हमारे ब्रह्मांड में हाइड्रोजन सर्वाधिक प्रचुर उपलब्धता वाली गैस है। बहरहाल, यह स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं है जिसे आसानी से निकालकर इस्तेमाल किया जा सके। इसे जिस प्रक्रिया से निकाला जाता है उसमें फिलहाल जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल करना पड़ता है। ऐसी ही एक प्रक्रिया को स्टीम रिफॉर्मिंग कहा जाता है जिसके माध्यम से प्राकृतिक गैस को हाइड्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड में अलग-अलग किया जाता है।
चूंकि कार्बन डाईऑक्साइड इस प्रक्रिया का सह उत्पाद है इसलिए इससे उत्पन्न हाइड्रोजन को ‘ग्रे हाइड्रोजन’ कहा जाता है। हालांकि अगर इस दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन कैप्चर, यूज ऐंड स्टोरेज यानी सीसीयूएस तकनीक की मदद से संग्रहित किया जा सका तो इसे ‘ब्लू हाइड्रोजन’ करार दिया जा सकता है।
सीसीयूएस आज भी बहुत महंगी तकनीक है। यह केवल तभी व्यावहारिक साबित हुई है जब बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन को भंडारित करने के लिए तेल एवं गैस के खाली कुएं उपलब्ध रहे हैं।
एक अन्य प्रक्रिया इलेक्ट्रोलिसिस की है जो पानी के एटम को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में बांटती है। अगर इस प्रक्रिया के लिए जरूरी ईंधन स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोतों से आये तो इसे ‘हरित’ हाइड्रोजन करार दिया जा सकता है। भारत के GHM के लिए हमें यह मानना होगा कि नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता और ऊर्जा उत्पादन में भारी इजाफा करना होगा ताकि हाइड्रोजन को भारत के ऊर्जा बदलाव की प्रक्रिया में सटीक ढंग से इस्तेमाल किया जा सके।
हाइड्रोजन के जलने से केवल पानी बनता है इसलिए यह स्वच्छ ईंधन है। यह अधिक किफायती भी है। प्रति यूनिट हाइड्रोजन से बनने वाली ऊर्जा के समान वजन के पेट्रोल से तीन गुना और कोयले के सात गुना होने का अनुमान है। हाइड्रोजन एक लचीला ईंधन है और इस्तेमाल न होने पर इसे आसानी से भंडारित किया जा सकता है।
इसे तरल बनाकर पाइप या टैंक के जरिये भी सड़क, रेल या जहाज मार्ग से लाया-ले जाया जा सकता है। इसे ईंधन सेल में बदलकर बिजली बनाई जा सकती है। इसे दूर-दूर तक ढोया जा सकता है।
कई औद्योगिक प्रक्रियाओं में इसका इस्तेमाल होता है। परंतु स्वच्छ ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का इस्तेमाल इस बात पर निर्भर करता है कि इसका उत्पादन कैसे किया जाता है। केवल ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ को वास्तविक स्वच्छ ईंधन माना जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (IRENA) ने कहा है कि फिलहाल उत्पादित होने वाली 95 फीसदी हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन से बनाई जाती है। उसका अनुमान है कि 2030 तक 50 फीसदी कम कार्बन हाइड्रोजन का उत्पादन इलेक्ट्रोलिसिस से जबकि शेष स्टीम रिफॉर्मेंशन के माध्यम से आएगी।
100 डॉलर प्रति टन की दर पर हाइड्रोजन व्यवहार्य ईंधन है। इसकी मौजूदा लागत इससे तीन से छह गुना अधिक है। माना जा रहा है कि 2030 तक लागत 30 फीसदी तक कम होगी। हाइड्रोजन को ईंधन का मुख्य स्रोत बनने में अभी काफी वक्त है। सवाल यह है कि क्या भारत इस दिशा में अपेक्षित तेजी से बढ़ सकेगा?
GHM में परिकल्पना की गई है कि 2030 तक सालाना कम से कम 50 लाख टन हरित हाइड्रोजन उत्पादन की क्षमता विकसित की जा सकेगी। इस प्रक्रिया में 8 लाख करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा।
उच्च क्षमता वाले इलेक्ट्रोलाइजर का उत्पादन और उनका उपयोग करने की योजना बनाई गई है। इसके साथ ही विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन पर भी काम किया जाएगा। मसलन रूप टॉप सोलर, माइक्रो हाइडल प्लांट और बायोमास आदि की मदद से भी इलेक्ट्रोलिसिस के लिए स्वच्छ और सस्ती बिजली तैयार की जाएगी।
इन प्रक्रियाओं में बेकार हो चुके पानी का इस्तेमाल करने का उल्लेख है। बहरहाल, अभी तक इसे लेकर कोई ठोस आंकड़ा सामने नहीं आया है। GHM के लिए विस्तृत मॉडल तैयार करना होगा ताकि उसकी आर्थिक व्यवहार्यता परखी जा सके।
निस्संदेह हाइड्रोजन स्वच्छ ऊर्जा की प्रचुर उपलब्धता का माध्यम बन सकता है लेकिन यह कोई जादुई उपाय नहीं है। फिलहाल यह व्यवहार्य विकल्प भी नहीं है। परंतु तकनीकी मानक लगातार बदल रहे हैं और आगे चलकर लागत में कमी आएगी। हमने सौर ऊर्जा में ऐसा होते देखा है।
भारत के विकास की प्रक्रिया सस्ती ऊर्जा की उपलब्धता से जुड़ी हुई है। GHM समय पर उठाया गया कदम है क्योंकि इस दौरान प्रचुर मात्रा में स्वच्छ और संभवत: सस्ती ऊर्जा हासिल हो सकती है। ऐसे में भारत के पास तुलनात्मक बढ़त भी है। हमारी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता तेजी से बढ़ रही है और हरित हाइड्रोजन के उत्पादन में यह अहम है।
कई विकसित देशों में हाइड्रोजन को ईंधन विकल्प के रूप में अपनाने को लेकर अहम तकनीकी सुधार हो रहे हैं। जापान का हाइड्रोजन कार्यक्रम तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में है। GHM के हिस्से के रूप में भारत को उन देशों के साथ सहयोग करना चाहिए जो इस क्षेत्र में अग्रणी हैं।
अंतरराष्ट्रीय सौर गठजोड़ सरकार का एक दूरदर्शी कदम था जिसने देश में सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया और वैश्विक सहयोग का जरिया बना। अगर भारत अंतरराष्ट्रीय हाइड्रोजन गठजोड़ की स्थापना करने की पहल करता है तो यह भारत के हित में होगा। ऐसा करने से तकनीकी और वित्तीय संसाधन जुटाकर दुनिया भर में हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। आगामी G20 शिखर बैठक ऐसी पहल की घोषणा के लिए अच्छी जगह होगी।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)