भारत ने विगत 25 वर्षों में जहां बेहतरीन वास्तविक रिटर्न दिया है, वहीं उच्च मूल्यांकन के कारण इसका टिकाऊ बने रहना मुश्किल प्रतीत होता है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश
मुझे डीबी बैंक के जिम रीड और उनकी टीम द्वारा किया गया एक दिलचस्प अध्ययन पढ़ने को मिला जो वित्तीय बाजारों के विगत 25 वर्षों के रिटर्न पर आधारित है। इस अध्ययन में ढेर सारे आंकड़े शामिल हैं। अध्ययन में जनवरी 2000 से 2024 के अंत तक की अवधि के रिटर्न शामिल हैं।
हममें से अधिकांश लोग यह स्वीकार कर चुके हैं कि वित्तीय बाजारों में अमेरिका का प्रदर्शन असाधारण है। दुनिया भर के वैश्विक इक्विटी सूचकांकों में अमेरिका 65 फीसदी का हिस्सेदार है और वह सालाना 20 फीसदी रिटर्न के साथ लगातार नई ऊंचाइयां छू रहा है। पिछली चौथाई सदी जरूर उसके लिए बहुत खास नहीं रही है।
विगत 25 वर्षों में अमेरिकी शेयर (एसऐंडपी 500) ने सालाना 4.9 फीसदी का वास्तविक इक्विटी रिटर्न दिया है जो सन 1800 से अब तक 25 वर्ष की अवधि के नौ खंडों में दूसरे सबसे खराब 25 वर्ष हैं। बीते 100 वर्षों से अधिक समय में अमेरिकी प्रतिभूतियों ने 7.3 फीसदी का वास्तविक सालाना रिटर्न दिया है। ऐसे में 4.9 फीसदी काफी कम रिटर्न है।
यह कैसे सही हो सकता है क्योंकि बाजार तो नई ऊंचाइयों पर है। क्या हमारा मूल्यांकन बाजार इतिहास के शीर्ष एक फीसदी के साथ अब तक के उच्चतम स्तर पर नहीं है?
अमेरिकी शेयरों के कमजोर सापेक्षित प्रदर्शन का सच उनके शुरुआती मूल्यांकन में है। सन 2000 की शुरुआत इंटरनेट बबल के साथ हुई और एसऐंडपी 500 चक्रीय समायोजित मूल्य आय अनुपात के ऐतिहासिक रूप से उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। आज मूल्यांकन भले ही दोबारा उच्चतम स्तर के करीब पहुंच गया है और बाजार में तेजी है लेकिन मूल्यांकन की शुरुआत ही इतनी ऊंची थी कि रिटर्न पर असर पड़ा।
चौथाई सदी के आरंभिक 13 सालों में वास्तविक इक्विटी रिटर्न नकदी में पीछे रहा। इससे यही सामने आया कि शुरुआती मूल्यांकन के अधिक होने ने असर डाला है। इक्विटी ने जहां सभी बाजारों में नकदी और बॉन्ड को पीछे छोड़ दिया लेकिन 2000 से 2013 के बीच जैसी ऐसी अवधि भी रही जहां यह सही नहीं साबित हुआ। मूल्यांकन समय का संकेतक नहीं है लेकिन यह दीर्घावधि के रिटर्न के निर्धारण में अहम भूमिका निभाता है।
अमेरिकी शेयरों का प्रदर्शन अपने ही ऐतिहासिक प्रदर्शन की तुलना में कमजोर रहा। इसके बावजूद वे जर्मनी और ब्रिटेन जैसे अन्य विकसित बाजारों की तुलना में बेहतर स्थिति में रहे। 25 साल की अवधि में इन बाजारों का रिटर्न दो फीसदी रहा। विगत 25 वर्ष इस तरह भी विशिष्ट रहे कि पहली बार सोना इतने लंबे समय तक शेयरों पर भारी रहा।
सोने ने सालाना 6.8 फीसदी का वास्तविक रिटर्न दिया जबकि अमेरिकी शेयरों का रिटर्न 4.9 फीसदी रहा। यह बात ध्यान में रखने वाली है कि शुरुआती मूल्यांकन 25 वर्ष के रिटर्न के निर्धारण में अहम भूमिका निभाता है। खासतौर पर यह देखते हुए कि अमेरिका और भारत में अभी मूल्यांकन की क्या स्थिति है।
दूसरा सबक यह है कि किसी देश के इक्विटी रिटर्न में आर्थिक वृद्धि पूरी तरह अप्रासंगिक है। चीन के लिए यह चौथाई सदी स्वर्णिम रही। वह 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ। इन 25 सालों में उसका वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद 8.5 फीसदी सालाना की दर से बढ़ा। अमेरिकी डॉलर में उसकी अर्थव्यवस्था सन 2000 के आरंभ में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के केवल 12 फीसदी थी जो आज 70 फीसदी हो चुकी है।
डॉलर में चीन का सकल घरेलू उत्पाद 2000 के तीन फीसदी से आज 17 फीसदी हो चुका है। वह दुनिया का विनिर्माण केंद्र बना और उसने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला। इस तमाम प्रगति तथा वैश्विक वृद्धि में उसकी भूमिका के बावजूद चीन ने विगत 25 सालों में केवल चार फीसदी का इक्विटी रिटर्न दिया है जो अमेरिका और यहां तक कि भारत से भी कम है।
चीन ने 1979 में सुधार शुरू किया। उस समय उसकी अर्थव्यवस्था डॉलर में अमेरिका के 10 फीसदी आकार की थी। 28 साल में वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के 20 फीसदी के बराबर हुई। अगले केवल 15 साल में वह 70 फीसदी तक पहुंच गई। जाहिर सी बात है विनिमय दर का प्रभाव और वैश्विक वित्तीय संकट ने इसे बढ़ाया। परंतु क्या सुधारों को अर्थव्यवस्था पर असर डालने में इतना समय लगता है। ध्यान रहे भारत अपने सुधारों के तीस साल पूरे कर चुका है।
जहां तक दीर्घकालिक अनुमान की बात है तो 2000 के आंकड़े जबरदस्त हैं। हर किसी को यकीन था कि अमेरिका का फेडरल कर्ज 2013 तक समाप्त हो जाएगा। 2000 में उसका फेडरल कर्ज और जीडीपी अनुपात 32 फीसदी था। इस बात को लेकर चिंता थी कि एक ऐसी दुनिया में बाजार का प्रदर्शन कैसा रहेगा जहां अमेरिकी ट्रेजरी का कोई कर्ज नहीं होगा।
आज हम 100 फीसदी के ऋण-जीडीपी अनुपात को लेकर जूझ रहे हैं। इससे पता चलता है कि 25 वर्ष पहले की तुलना में ऋण और राजकोषीय असंतुलन को लेकर रुख में कितना बदलाव आया है।
रिपोर्ट 2025 से 2049 तक यानी भविष्य के 25 सालों की भी बात करती है। अगली चौथाई सदी के लिए सबसे बड़ा सबक है जनांकिकी का महत्त्वपूर्ण प्रभाव। यह पहली चौथाई सदी होगी जिसमें 57 प्रमुख उभरते बाजारों और विकसित बाजारों में से 26 की श्रम शक्ति की उम्र बढ़नी शुरू होगी। 24 में से 16 विकसित देशों की कामकाजी आबादी में कमी आएगी। चीन में ऐसे कर्मचारियों की संख्या में 22.5 करोड़ की, जापान में 1.8 करोड़ की, कोरिया में 1.2 करोड़ की और जर्मनी में एक करोड़ की कमी आएगी।
यूरोपीय संघ की बात करें तो वहां सात करोड़ श्रमिकों की कमी होगी। अमेरिका में ऐसे श्रमिकों की संख्या में 80 लाख का इजाफा होगा। भारत की श्रम शक्ति में अगले 25 सालों में 15 करोड़ की बढ़ोतरी होगी। 2050 तक भारत की आबादी चीन की आबादी से 30 फीसदी अधिक होगी जबकि हमारी श्रम शक्ति उससे 50 फीसदी अधिक होगी। भारत के लिए यह बेहतर बात है। हमें इस आबादी को कौशल संपन्न बनाते हुए उसके लिए रोजगार तैयार करने होंगे।
आपूर्ति श्रृंखला के चीन से दूर होने और विविधता अपनाने के बीच केवल हमारा देश ही जरूरी पैमाने पर काम कर सकता है। हमें ही उन बाधाओं को दूर करना होगा जो व्यापक विनिर्माण को भारत आने से रोक रही हैं। इनमें विनिर्माण संबंधी दिक्कतें भी हैं। जनांकिकी और भूराजनीति इसे भारत के लिए एक अविश्वसनीय अवसर बनाते हैं।
2000 से 2024 के बीच बुजुर्ग होती श्रम शक्ति वाले बड़े देशों में जापान, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल और ग्रीस शामिल हैं। इन पांच देशों की वृद्धि भी सबसे धीमी रही। यूरोप को भी प्रवासियों से आस है वरना उसकी वृद्धि भी प्रभावित होगी।
एक अन्य ध्यान देने वाली बात है भारतीय इक्विटी रिटर्न की स्थिरता। बीती चौथाई सदी में यानी 2000 से 2024 के बीच भारत ने 6.9 फीसदी सालाना का बेहतरीन रिटर्न दिया और अमेरिका तक को पछाड़ दिया। 50 साल के आंकड़े देखें तो भारत 9.9 फीसदी के बेहतरीन रिटर्न के साथ सभी उभरते देशों और यहां तक कि अमेरिका से भी आगे है। हमने साबित किया है कि हम लंबे समय तक मजबूत रिटर्न दे सकते हैं। यह एक ऐसी बात है जिसे वैश्विक निवेशक अभी पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं। अगले 25 साल चुनौतीपूर्ण रहने वाले हैं।
अमेरिका और भारत के सामने उच्च शुरुआती बिंदु वाले मूल्यांकन की चुनौती है जबकि यूरोप कमजोर जनांकिकी और धीमी उत्पादकता से जूझ रहा है। चीन उस समय भी उच्च रिटर्न नहीं दे सका जब उसकी अर्थव्यवस्था उफान पर थी और अब वह भूराजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा है। बीते 25 सालों में दुनिया का ऋण-जीडीपी अनुपात भी 100 अंकों से बढ़कर 330 अंक पहुंच गया है। यह कैसे हल होगा। क्या इसकी कोई सीमा है?
(लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं)