विराट कोहली ने कई मौकों पर भारतीय क्रिकेट टीम की जीत का श्रेय ‘निडर और आक्रामक क्रिकेट’ को दिया है। टी20 विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट में न्यूजीलैंड के हाथों परास्त होने के बाद विराट ने जब यह कहा कि ‘हमने बल्लेबाजी और गेंदबाजी में जरूरी साहस नहीं दिखाया’ तो यह सुनने में अटपटा लगा। उनके इस बयान से यह भी साफ हो गया कि क्यों काफी कम लोगों को भारतीय क्रिकेट टीम की टी20 टीम की कप्तानी छोडऩे के उनके निर्णय से दुख होगा।
विराट के शुभचिंतकों को उन्हें टेस्ट और एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों की कप्तानी भी छोडऩे की सलाह देनी चाहिए क्योंकि बतौर कप्तान वह अपनी भूमिका अच्छी तरह निभाने में लगातार विफल होते दिख रहे हैं। अब उनके उस बयान पर गौर करें जो उन्होंने नवंबर 2020 में ऑस्ट्रेलिया से पराजय के बाद दिया था। उस समय उन्होंने अपनी टीम के सहयोगी खिलाडिय़ों के ‘हाव-भाव’ पर सवाल उठाए और यहां तक कह दिया कि टीम के सभी खिलाड़ी सही ‘मंशा’ के साथ नहीं खेल रहे हैं।
महज सात महीने बाद जब भारत वल्र्ड टेस्ट चैंपियनशिप में न्यूजीलैंड से परास्त हुआ तो विराट ने एक बार फिर यह कहकर खिन्नता जताई कि कुछ खिलाड़ी रन बनाने की ‘ऌपूरी मंशा’ के साथ नहीं खेल रहे हैं। उन्होंने उस समय सही ‘मंशा’ रखने वाले और अच्छे प्रदर्शन के लिए तैयार रहने वाले खिलाडिय़ों को टीम में शामिल करने की बात कही थी। यह अलग बात रही कि मोटे तौर पर वही टीम इंगलैंड खेलने गई थी।
इस पूरी कहानी का अभिप्राय यह है कि अगर कप्तान का नजरिया रक्षात्मक होगा तो ड्रेसिंग रूम के भीतर साथी खिलाडिय़ों का मनोबल बढ़ाना काफी मुश्किल हो जाएगा। एक आश्चर्य की बात यह है कि विराट के करीबी लोगों ने भी उन्हें अपने साथी खिलाडिय़ों पर मानसिक रूप से कमजोर होने का आरोप लगाने से नहीं रोका। अपने सहयोगियों के मन से डर भगाने की जिम्मेदारी मोटे तौर पर टीम के अगुआ की होती है। अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो उसे नैतिक तौर पर नेतृत्व करने का अधिकार नहीं है। अगर पूरी टीम उत्साहविहीन और विफलता होने की आशंका के साथ मैदान में उतरेगी तो उसके बाद उत्पन्न परिस्थितियों की जिम्मेदारी टीम के अगुआ को ही लेनी होगी।
कार्यस्थलों पर भी यही बात लागू होती है। टीम का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की सोच एवं उसका व्यवहार उस टीम के प्रदर्शन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालता है। एक सक्षम नेतृत्व में कर्मचारियों का उत्साह एवं मनोबल बढ़ता है और वे कोई भी चुनौती स्वीकार कर लेते हैं। नेतृत्वकर्ताओं को अहसास हो जाता है कि आगे बढऩे की प्रेरणा से ओत-प्रोत टीम न केवल अच्छा प्रदर्शन कर सकती है बल्कि अधिक से अधिक प्रयास कर सफलता अर्जित करने के लिए लगातार काम करती रहती है। एक सक्षम नेतृत्व के बिना टीम में कोई जान नहीं बचती है।
इसके उलट खराब नेतृत्व का प्रतिकूल असर होता है और इससे चारों तरफ निराशा एवं कुंठा पैदा हो जाती है। शोध बताते हैं कि नेतृत्वकर्ताओं की भावनाओं एवं उनके व्यवहार का असर दूसरे खिलाडिय़ों पर भी होता है। अगर नेतृत्वकर्ता तनाव में रहता है तो इसका असर टीम के दूसरे लोगों पर भी होता है। सहयोगियों की नजर इस बात पर टिकी होती है कि उनका अगुआ किससे क्या बात करता है और किस ओर उसका ध्यान अधिक है। वे यह भी जानने की कोशिश करते हैं कि नेतृत्व करने वाले का रवैया आशावादी है या नहीं। निराश नेतृत्व में टीम आगे बढऩे से कतराती है और कई बड़े अवसरों का लाभ उठान से चूक जाती है।
अब सवाल है कि परिस्थितियां कठिन होने पर नेतृत्वकर्ता का व्यवहार कैसा रहना चाहिए? टीम के दूसरे खिलाडिय़ों पर सार्वजनिक रूप से दोषारोपण करने के बजाय उन्हें आंतरिक स्तर पर सहयोगियों के साथ खुलकर संवाद करना चाहिए।
यह बात मायने नहीं रखती है कि टीम में कोई एक व्यक्ति गलती कर रहा है या हरेक व्यक्ति कुछ हद तक जिम्मेदार है। नेतृत्वकर्ता का काम पूरी टीम को संभालना एवं उसे आगे बढऩे के लिए प्रेरित करना है। टीम के सदस्य अपने अगुआ का व्यवहार देखते हैं और नेतृत्वकर्ता को भी यह दिखाना होता है कि विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने की वह पूरी क्षमता रखता है। लिहाजा उसे कम से थोड़ी बहुत जिम्मेदारी पूरी पारदर्शिता के साथ उठानी चाहिए और खामियां दुरुस्त करने के लिए योजना तैयार कर उसका क्रियान्वयन करना चाहिए। इसके साथ ही आगे बढऩे का जज्बा भी कायम रहना चाहिए। नेतृत्वकर्ता को यह समझना चाहिए कि गलतियां किसी से भी हो सकती हैं और अपनी गलती स्वीकार करना कोई शर्म की बात नहीं है। श्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता अपनी गलतियों से सीखता है। जब नेतृत्वकर्ता अपनी गलती स्वीकार कर उसे ठीक करने की पहल करता है तो इसके साथ वह उन लोगों का विश्वास भी जीतता है जिनका वह नेतृत्व कर रहा होता है।
उदाहरण के लिए साथी खिलाडिय़ों की मंशा पर दोष मढऩे के बजाय विराट को गेंदबाजी में बदलाव की भूल और सलामी बल्लेबाजों पर असमंजस की स्थिति पैदा होने पर भी बयान देना चाहिए था। अगर वह अपनी भूल स्वीकार करते तो इसके कुछ परिणाम जरूर दिखते मगर कप्तान के रूप में उनकी छवि एवं नेतृत्व करने की उनकी क्षमता पर शायद सवाल नहीं उठता।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमन ने कहा था,’अगर आप आग की तपिश बरदाश्त नहीं कर सकते तो रसोई से निकल जाना ही बेहतर है।’ यहां इसका आशय है कि एक बार नेतृत्व एवं इससे जुड़ी जिम्मेदारियां संभालने के बाद आपको सभी चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए था और केवल आसान चुनौतियों से निपटने तक ही अपनी क्षमता सीमित नहीं रखनी चाहिए थी। इस संदर्भ में टी20 टीम की कप्तानी छोड़कर संभवत: विराट ने पहला जरूरी कदम उठाया है। भारत को एक सक्षम बल्लेबाज के तौर पर विराट की जरूरत है, न कि एक कप्तान के रूप में।
