सरकार भारत के प्रतिभूति कानून में सुधार करने और तीन अलग-अलग कानूनों को प्रतिभूति बाजार संहिता (एसएमसी) में शामिल करने की तैयारी कर रही है। लेकिन नियामकीय विश्लेषकों और बाजार के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि इससे शेयर बाजार नियामक के लिए फंडिंग की चुनौतियां हो सकती हैं।
नई संहिता से कई चीजें सरल बनेंगी। बाजार नियामक की जांच के लिए भी समय सीमा तय की गई है। लेकिन इसमें भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के खर्चों के लिए एक रिजर्व फंड के गठन और शेष राशि को भारत के समेकित कोष में हस्तांतरित करने का प्रस्ताव किया गया है।
प्रस्तावित बिल में कहा गया है, ‘किसी भी वित्त वर्ष में सामान्य कोष का सालाना सरप्लस का 25 फीसदी ऐसे रिजर्व फंड में जमा किया जाएगा, जो पिछले दो वित्त वर्षों के कुल सालाना खर्च से ज्यादा नहीं होगा।’ रिजर्व फंड में जमा रकम का इस्तेमाल सेबी के खर्चों को पूरा करने के लिए किया जाएगा।
प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है, ‘सालाना सरप्लस के हिस्से को क्रेडिट करने के बाद उस वित्त वर्ष में सामान्य कोष का बचा हुआ सरप्लस भारत के कंसोलिडेटेड फंड में जमा किया जाएगा।’ सेबी द्वारा इकट्ठा की गई सेटलमेंट रकम और पेनल्टी पहले से ही भारत के कंसोलिडेटेड फंड में जमा की जाती हैं और इन्हें 2003-04 से नियामक की आय में शामिल नहीं किया जाता है।
नियामकीय अनुभव वाले एक विश्लेषक ने कहा, ‘बाजार नियामक भारत के कंसोलिडेटेड फंड से पैसे नहीं निकाल सकता। इसलिए एक बार अतिरिक्त रकम ट्रांसफर हो जाने के बाद वह उसकी पहुंच से बाहर हो जाती है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के विपरीत सेबी फंड मैनेज नहीं करता है और मार्केट इंटरमीडियरीज पर लगाए जाने वाले शुल्कों के अलावा उसकी कोई आमदनी नहीं है।’
सूत्रों के अनुसार, इस समय सेबी के पास 3,000-4,000 करोड़ रुपये का अधिशेष है। इसका एक बड़ा हिस्सा इसके विस्तार में इस्तेमाल किया जाना है। बाजार के एक पुराने जानकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि प्रस्तावित रिजर्व फंड से सेबी पर दबाव पड़ सकता है, खासकर तब जब वह रीजनल ऑफिसों के साथ पूरे भारत में अपनी पहुंच बढ़ाने के चरण में है और जांच में तेजी लाने के लिए उसे ज्यादा संसाधनों की जरूरत होगी।
उन्होंने कहा, ‘नये कोड में जांच, निरीक्षण और अंतरिम आदेशों के लिए सख्त टाइमलाइन तय की गई है। इन टाइमलाइन को पूरा करने के लिए सेबी को टेक्नोलजी और दूसरे संसाधनों में ज्यादा निवेश करना होगा। सरप्लस पर सीमा के कारण ऐसे निवेश प्रभावित हो सकते हैं।’
बाजार नियामक विस्तार के अपने पहले चरण में चंडीगढ़, लखनऊ, जयपुर, हैदराबाद, बेंगलूरु जैसे शहरों में स्थानीय कार्यालय खोलने की योजना बना रहा है।
खेतान ऐंड कंपनी में पार्टनर अभिमन्यु भट्टाचार्य ने कहा, ‘विधेयक की संरचना ऐसी है कि सेबी अनिश्चित काल तक बड़ी मात्रा में सरप्लस यानी अधिशेष अपने पास नहीं रख सकता है। सेबी का परिचालन फंडिंग स्रोत जस का तस है- फंड अभी भी मुख्य रूप से फीस और शुल्क (इसके मूल आवर्ती राजस्व) का होता है, और संहिता में स्पष्ट रूप से बोर्ड से मंजूर योजना के तहत इसे पूंजीगत खर्च के लिए उपयोग करने की अनुमति दी गई है।’
कुछ विशेषज्ञों ने नई संहिता के तहत शिकायतों के समाधान के लिए सेबी में लोकपाल ढांचे के दायरे पर अधिक स्पष्टता की जरूरत पर भी जोर दिया। साथ ही दूसरे वित्तीय नियामकों की तुलना में अलग नजरिया अपनाने पर तर्क दिया। उदाहरण के लिए, आरबीआई का बैंकिंग लोकपाल एक योजना के माध्यम से बनाया गया है, न कि कानून के माध्यम से। भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) के पास एक बाहरी लोकपाल है जिसे सरकार ने अधिसूचित नियमों के जरिए बनाया है।
भट्टाचार्य ने कहा, ‘प्रतिभूति बाजार संहिता का दृष्टिकोण लोकपाल ढांचे को प्रमुख कानून में शामिल करना है और इसे ढांचे में जानबूझकर बदलाव के रूप में माना जा सकता है।’
सेबी के पास पहले से ही शिकायत निवारण के तंत्र मौजूद हैं। जैसे, सेबी शिकायत निवारण प्रणाली प्लेटफॉर्म, जिसे ‘स्कोर्स प्लेटफॉर्म’ के नाम से जाना जाता है और एक ऑनलाइन डिस्प्यूट रिजोल्यूशन (ओडीआर) तंत्र भी है, जिस पर शिकायतों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से जारी की गई मध्यस्थता जैसी प्रक्रिया के माध्यम से समाधान के लिए एक्सचेंजों को बताया जाता है।
सिरिल अमरचंद मंगलदास में पार्टनर वन्या सिंह ने बताया कि एक लोकपाल तभी दखल देगा जब किसी नियमित निवेशक की कोई शिकायत का 180 दिन तक कोई समाधान नहीं निकला होगा जो उसने सेबी या संबंधित सिक्योरिटीज मार्केट सर्विस प्रोवाइडर या जारीकर्ता या उसके एजेंट के पास दर्ज कराई होगी। उन्होंने कहा, ‘इसलिए, ऐसा नहीं लगता कि इसका मकसद दूसरी सभी शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को बदलना है, बल्कि निवेशकों के लिए निश्चित, समय-सीमा वाले नतीजों के साथ उन्हें मजबूत बनाना है।’