पिछले कुछ हफ्तों के दौरान नीति निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिक महकमे में भी तेल एवं गैस कारोबार पर विंडफॉल टैक्स लगाने को लेकर बहस जारी थी।
इससे पहले की विधायिका इस मसले पर कोई निर्णय ले यह जरूरी है कि विभिन्न पैमानों पर इसकी दुरुस्त तरीके से जांच कर ली जाए ताकि फैसला लेने के बाद अचानक से असहज प्रतिक्रियाएं न आने लगें। यानी कोई ऐसा फैसला जिसका विभिन्न दिशाओं से विरोध किया जाने लगे।
क्या है विंडफॉल
विंडफॉल से तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों से है जो अचानक से पैदा हो जाती हैं, जिसे भाग्य भी कहा जा सकता है और जिसके आने से अचानक से अनपेक्षित कमाई पैदा हो जाती है। अब इस शाब्दिक अर्थ को लेकर आगे बढ़ें तो पता चलता है कि विंडफॉल टैक्स ऐसे मुनाफे पर लगाया जाता है जो किसी कंपनी को अचानक से प्राप्त हो जाती है।
कई मामलों में इस मुनाफे के साथ यह पहलू भी जुड़ा होता है कि यह आय अवैध तरीकों से कमाई गई होती है। उदाहरण के लिए हम लॉटरी से होने वाली कमाई को ले सकते हैं, जिसके प्राप्त होने का पता तब तक नहीं होता जब तक लॉटरी के नतीजों की घोषणा नहीं हो जाती। विंडफॉल टैक्स की अवधारणा अमेरिका से ली गई है, जहां यह कर कच्चे तेल के उत्पादन पर उत्पाद शुल्क के तौर पर वसूला जाता है।
यह कर सबसे पहले अमेरिका में 1980 के दौरान लगाया गया था जब देश में कच्चे तेल के उत्पादन पर से सरकारी नियंत्रण को खत्म करने से अचानक से मुनाफा बढ़ गया था। हालांकि 1988 में इस कर को वापस ले लिया गया था। अमेरिकी सरकार ने यह कर कार्टर एडमिनिस्ट्रेशन और कांग्रेस के बीच कच्चे तेल पर से विनियमन को लेकर हुए समझौते के बाद लगाया था। कच्चे तेल की बाजार कीमत और 1979 के वैधानिक मूल्य के बीच जो अंतर पाया जाता था उसे देखते हुए ही यह कर लगाया गया था।
हालांकि हर तिमाही के दौरान इसमें मुद्रास्फीति और स्टेट टैक्सों को ध्यान में रखते हुए बदलाव किया जाता था। बाजार में अगर किसी कमोडिटी का कारोबार सबसे अधिक होता है तो वह कच्चा तेल ही है और भले ही ऐसा किसी दूसरी कमोडिटी में देखने को न मिले पर कच्चे तेल की मांग और आपूर्ति विभिन्न राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से बदलती रहती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि कच्चे तेल की कीमतों में भी उतार चढ़ाव देखने को मिलता ही रहेगा। इसकी दूसरी खासियत यह है कि किसी दूसरे प्राकृतिक संसाधन की तुलना में यह कई इलाकों में नहीं पाया जाता।
दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ सीमित स्थानों पर ही इसकी उपलब्धता सबसे अधिक पाई जाती है। इस तरह का कर लगाने से एक नुकसान यह हो सकता है कि कच्चे तेल की घरेलू आपूर्ति कर लगाने से पहले जो होती थी उससे घट सकती है। अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो यह कर लगाने से उत्पादन खर्च बढ़ेगा जिससे घरेलू उत्पादन भी कम हो सकता है। ऐसा होता है तो पेट्रोलियम पदार्थों को लेकर हमारी निर्भरता आयात पर बढ़ जाएगी और इससे आखिरकार हाइड्रो कार्बन उत्पादन और रिफाइनरी क्षमता में घरेलू और विदेशी निवेश को धक्का पहुंच सकता है।
वर्ष 1988 में इस कर को वापस लिए जाने के बाद से ही अमेरिकी सरकार इसे फिर से लागू करने को लेकर विचार विमर्श कर रही है। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बराक ओबामा ने भी तेल पर विंडफॉल टैक्स लगाने की बात कही है। अमेरिका में चुनावी गहमागहमी का माहौल होने की वजह से काफी हद तक मुमकिन है कि विंडफॉल टैक्स लगाए जाने को लेकर बहस गरमा जाए। चाहे जो भी हो पर पेट्रोलियम रिफाइनिंग पर अगर विंडफॉल टैक्स लगाया जाता है तो इससे तेल का अर्थशास्त्र गड़बड़ाएगा इतना तो तय है।
सच्चाई तो यह है कि जिस तरह से कच्चे तेल की कीमतों में उतार चढ़ाव होता है उस तरीके से रिफाइनिंग का मुनाफा घटता बढ़ता नहीं है। रिफाइनिंग कारोबार में जो प्रतियोगिता का माहौल है और वैश्विक स्तर पर रिफाइनिंग क्षमता में कमी की वजह से इस मुनाफे का बढ़ना बहुत जरूरी है ताकि उत्पादन और कार्यक्षमता का विकास हो सके।
भारत में एक तरीके से नियंत्रण मुक्त माहौल है, कम से कम पेट्रोलियम उत्पादों की मार्केटिंग के बारे में तो सच्चाई यही है। पर यह सरकार के हाथ में है कि वित्तीय शुल्कों का निर्धारण करे और पेट्रोलियम उत्पादों के अंतिम मूल्य का निर्धारण करे ताकि वित्तीय अनुशासन और राजनीतिक स्वीकृति दोनों ही उद्देश्य पूरे हो सकें।
बिगड सकता है तेल उत्पादन का गणित
शायद ही कोई ऐसा नीति निर्माता होगा जो यह चाहता होगा कि हाइड्रो कार्बन क्षेत्र में निजी निवेश न हो। भारत सरकार और ऑयल इंटरप्रिनुअर्स के बीच प्रोडक्शन शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट (पीएससी) एक ऐसा ढांचा उपलब्ध कराता है जिससे तेल की कीमतों और तेल भंडारों में उतार चढ़ाव से निपटा जा सके। हम जरा उन पीएससी पर नजर डालते हैं जिन पर भारत ने निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों के साथ हस्ताक्षर किए हैं। स्लाइडिंग स्केल फार्मूले के अनुसार अगर उद्यमियों को अधिक मुनाफा होता है तो इससे सरकारी हिस्सेदारी में भी बढ़ोतरी होती है। इसे समझने के लिए यह उदाहरण लेते हैं।
अगर इनवेस्टमेंट मल्टीपल 1.5 से कम है तो सरकार को पेट्रोलियम मुनाफे का 25 फीसदी और उद्यमी को 75 फीसदी प्राप्त होता है। ठीक उसी तरह अगर इनवेस्टमेंट मल्टीपल बढ़कर 3.5 फीसदी हो जाता है तो दोनों की हिस्सेदारी 50-50 फीसदी की हो जाती है। इनवेस्टमेंट मल्टीपल का पता लगाने के लिए कुल आय को इनवेस्टमेंट से भाग दिया जाता है। ऐसे में जैसे ही कच्चे तेल की कीमतें ऊपर चढ़ती हैं तो तेल पर मुनाफे में सरकार की हिस्सेदारी भी बढ़ जाती है। यही वजह है कि सरकार मौजूदा पीएससी ढांचे के तहत ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी लेने की कोशिश में है।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य:
भारत न तेल का बहुत बड़ा उत्पादक है और न ही भारतीय कंपनियों को विश्व बाजार में बढ़ती तेल की कीमतों से कुछ खास फायदा हुआ है। लंबी अवधि के निवेश के लिए देश बहुत अधिक उत्साहित नहीं है और अगर वित्तीय ढांचा और पारदर्शी नहीं होता तो रिफाइनरी कुंओं की और अधिक खोज प्रभावित होगी।
अगर कुछ समय के बाद तेल की कीमतों में ठहराव आ जाता है तो हम इन शुल्कों से कैसे निपट पाएंगे। अगर हम ऐसा कहते हैं कि हाल के दिनों में कच्चे तेल की कीमतों में जो तेजी आई है, उस वजह से भारत में तेल उत्पादकों पर विंडफॉल टैक्स लगाया जाना चाहिए तो शायद यह सही नहीं होगा क्योंकि तेल की कीमतों के बढ़ने से भारतीय उत्पादकों को कोई खास फायदा नहीं हुआ है कि क्योंकि भारत तेल का बहुत बड़ा निर्यातक नहीं है। हम यह क्यों भूल रहे हैं कि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का मतलब है कि मुनाफे में सरकार की हिस्सेदारी बढ़ना, फेडरल की ऊंची दरें, स्टेट और स्थानीय कर और रॉयलटीज।
अंत में शायद इतना कहना ही ठीक होगा कि भारत में विंडफॉल टैक्स लगाने के पहले हमें बहुत सोचने विचारने की जरूरत है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ऐसे देश जो ऊर्जा के मामले में काफी हद तक दूसरे देशों पर निर्भर है, वहां क्या कदम उठाए जा रहे हैं। इस क्षेत्र पर बिना कुछ सोच विचार कर कर लगाने से आखिरकार निवेशकों में निराशा ही बढ़ेगी और उनका उत्साह कम होगा।