सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई से शुरू हुई ‘मुफ्त सौगात’ के संबंध में मौजूदा बहस गंभीर मोड़ पर आ गई है। सार्वजनिक वित्त के विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर संदेह जताया है कि क्या किसी सटीक परिभाषा पर पहुंचा जा सकता है।
बिज़नेस स्टैंडर्ड के साथ जिन विशेषज्ञों और सेवारत सरकारी अधिकारियों ने (नाम न जाहिर करने की शर्त पर) बात की, उनका कहना है कि चुनावों से पहले या अन्य किसी समय योजनाओं की घोषणा करना और उन्हें लागू करना राजनीतिक कार्यकारिणी का विशेषाधिकार है, लेकिन अक्षमता और फर्जी लाभार्थियों को हटाकर तथा अपने घोषित उद्देश्य को पूरा नहीं करने वाले कार्यक्रमों में कटौती करते हुए केंद्र और राज्यों में सार्वजनिक वित्त में और अधिक सुधार की जरूरत है।
योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष और पूर्व वित्त सचिव मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कहा ‘यह परिभाषित करना नामुमकिन है कि मुफ्त सौगात क्या है। किसी परिभाषा के आधार पर आप किसी योजना को खारिज नहीं कर सकते। यह पूरा मसला गंभीर चर्चा का विषय है, विशेष रूप से इस बात पर कि आप राजकोषीय जिम्मेदारी कैसे संभालते हैं।’
देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने मंगलवार को अदालत में मुफ्त सौगात को परिभाषित करने का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा ‘मान लीजिए कल कोई विशेष राज्य यह कहता है कि वह मुफ्त सौगात दे रहा है या किसी योजना की शुरुआत कर रहा है, तो क्या हम कहते हैं कि यह राज्य सरकार का विशेषाधिकार है और इसे ज्यों का त्यों छोड़ दीजिए? एक संतुलन होना चाहिए।’
आईआईटी-दिल्ली की एसोसिएट प्रोफेसर रितिका खेड़ा ने इस अखबार को बताया कि बिजली, लैपटॉप, सोने की चेन आदि जैसे चुनावी वादों के संबंध में अलग से चर्चा की जानी चाहिए जैसे स्वास्थ्य और शिक्षा तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत सब्सिडी वाला राशन जैसे विधायी अधिकार के संबंध में होती है। खेड़ा ने कहा ‘उद्योग को छूट दिए जाने से उत्पन्न खजाने पर दबाव, फंसे कर्ज पर माफी वगैरह पर भी इस बहस में चर्चा की जानी चाहिए। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि इस बात का फैसला करना सीधा-सरल है कि मुफ्त सौगात क्या है।
इसलिए इस बात की संभावना नहीं है कि हम इस सवाल को आसानी से सुलझा सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि जनता को इस संभावना के संबंध में शिक्षित किया जाए कि चुनावी वादे चुनावों को महत्त्वहीन बना देते हैं या अच्छी लोकतांत्रिक परिपाटी की भावना के खिलाफ हो सकते हैं।’सरकार में सेवारत अधिकारियों के बीच इस बात पर आम सहमति नजर आती है कि हालांकि मुफ्त सौगात या लोकलुभावन योजनाओं के संबंध में और अधिक जोरदार, जानकारीपरक चर्चा की आवश्यकता है, लेकिन इसे राजनीतिक और सार्वजनिक नीति के क्षेत्र के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए, न कि कानूनी क्षेत्र के लिए। एक शीर्ष अधिकारी ने कहा कि आप लोकलुभावन योजना को परिभाषित नहीं कर सकते, हालांकि 15वें वित्त आयोग ने प्रयास किया था। अक्षमताओं को दूर करके और फर्जी या नकली लाभार्थियों को हटाकर बेहतर लक्ष्य तय किया जा सकता है। अधिकारी ने कहा कि केंद्र और कुछ राज्य अपनी क्षमता से ऐसा कर रहे हैं, लेकिन समन्वित प्रयास की जरूरत है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने कहा मुफ्त में कुछ उपलब्ध कराना उचित हो भी सकता है और नहीं भी, इसे मुफ्त सौगात कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। स्कूल में भोजन जैसे कुछ मुफ्त प्रावधान अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। अन्य बेकार हो सकते हैं। सभी सब्सिडी की तरह उन्हें उनके गुणों के आधार पर आंका जाना चाहिए।
द्रेज ने कहा कि भारत में बेकार सब्सिडी का सबसे बड़ा लाभार्थी विशेषाधिकार प्राप्त और कॉरपोरेट क्षेत्र हैं। उन्होंने कहा बेकार की कुछ सब्सिडी से गरीब लोगों को भी लाभ हो सकता है, लेकिन वह तुलनात्मक रूप में काफी कम है।