सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह कहा कि मध्यस्थ के जरिये होने वाले समझौते में अदालत को तकनीकी पहलुओं पर जोर नहीं देना चाहिए।
अगर अदालत ऐसा करती है, तो यह मध्यस्थ एवं सुलह कानून और संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय व्यापार कानून (यूनएनसीआईटीआरएएल) की भावना का उल्लंघन होगा। ग्रेट ऑफशोर लिमिटेड और ईरानियन ऑफशोर इंजीनियरिंग ऐंड कंस्ट्रक्शन कंपनी के विवाद में कहा गया कि समझौते में मध्यस्थ नियुक्त करने का कोई उपबंध उल्लिखित नहीं है।
ग्रेट ऑफशोर लिमिटेड ने सर्वोच्च न्यायालय से मध्यस्थ की नियुक्ति का आग्रह किया था, वहीं ईरानी कंपनी ने इस बात पर जोर दिया था कि मध्यस्थ का कोई प्रावधान है ही नहीं। इसके बाद न्यायालय ने दोनों पक्षों के बीच हुए पत्राचार का अवलोकन करने के बाद कहा कि उसमें मध्यस्थ का उपबंध उल्लिखित है।
उसने कहा कि अनुबंध में स्टांप, सील और मूल पर जोर देना जरूरी नहीं है। इससे न्यायालय की भूमिका कम होने के बजाय और बढ़ जाती है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश एस एन वरियावा से मध्यस्थ बनने का आग्रह किया गया था।
मध्यस्थ चयन का विदेशी मामला
इंडटेल टेक्निकल सर्विसेज लिमिटेड और डब्ल्यूएस ऐटकिंस रेल लिमिटेड के बीच हुए विवाद में भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक सेवानिवृत न्यायाधीश बी एन श्रीकृष्णा को मध्यस्थ नियुक्त किया था। दोनों कंपनियों को भारतीय रेल की एक डिजाइनिंग, निर्माण और इंस्टॉलेशन परियोजना के लिए आपसी सहयोग से निविदा भरनी थी।
बोली लगाने के बाद संबंधित पक्षों को डब्ल्यूएस ऐटकिंस से संपर्क करने के लिए कहा गया ताकि अनुबंध की बातचीत हो सके। लेकिन विदेशी कं पनी ने बोली से अपना नाम वापस ले लिया। इस वजह से यह मामला पांच सालों तक खिंचता रहा।
एपीएमसी भी कर के दायरे में
सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि कृषि उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली समिति भी आयकर के दायरे में आती है। न्यायालय ने उसके इस दावे को खारिज कर दिया जिसमें उसने कहा था कि वह स्थानीय अथॉरिटी है और इसलिए आयकर कानून के तहत उसे कर में राहत मिलनी चाहिए।
दिल्ली की एक कमिटी ने जब इस संबंध में अपील की, तो सर्वोच्च न्यायालय ने उसे खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि वित्तीय कानून 2002 में संशोधन के बाद धारा 10 (20) के तहत इन इकाइयों को कर में राहत देने का कोई प्रावधान नहीं है।
उच्च न्यायालय का आदेश हुआ निरस्त
सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब राज्य बिजली प्राधिकरण आयोग से कहा है कि वे 2002-03 की अवधि के लिए अपनी टैरिफ दर की घोषणा करे। बिजली बोर्ड के मुताबिक वार्षिक लागत 7,437 करोड़ रुपये बताई गई है, जबकि आयोग ने 6,341 करोड़ रुपये का आकलन किया है।
औद्योगिक उपभोक्ताओं ने सिएल लिमिटेड के नेतृत्व में इसे चुनौती दी थी और वे जीत भी गए। बोर्ड ने उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था ने इस विवाद को खत्म कर दिया।