वामपंथियों ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का साथ छोड़ दिया है। इसके बाद उम्मीद की जा रही है कि आर्थिक स्तर पर कुछ सुधार शीघ्र ही देखने को मिल सकते हैं।
इसी कड़ी में सबसे पहले उम्मीद की जा रही है कि अप्रत्यक्ष करों की श्रृंखला में लॉ ऑफ अनजस्ट एनरिचमेंट यानी अनुचित संवर्धन कानून को खत्म किया जाए। इस कानून को 1991 में उत्पाद एवं सीमा शुल्क कानून में शामिल किया गया था और इस कानून को शामिल करने की सिफारिश लोक लेखा समिति की ओर से की गई थी जिसकी अध्यक्षता वामपंथियों ने की थी।
यह भी सच है कि उच्चतम न्यायालय ने मफतलाल इंडस्ट्रीज बनाम यूओआई के मामले में इस कानून की संवैधानिकता को बनाए रखा था। पर उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के आर्थिक पहलुओं की जांच नहीं की थी। हो सकता है कि कोई कानून संविधान की दृष्टि से सही हो पर उसके बाद भी आर्थिक रूप से वह उचित नहीं लगता हो जैसा कि उदाहरण के रूप में हम 1961 के गोल्ड कंट्रोल ऐक्ट को ले सकते हैं।
अब हम सीधे और सरल शब्दों में समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर अनुचित संवर्धन कानून है क्या। मान लीजिए कि कोई उत्पादक (या आयातक) पहले 40 फीसदी डयूटी का भुगतान करता है पर बाद में उसे लगता है कि उचित शुल्क 25 फीसदी ही है। बाद में निर्यातक रिफंड के लिए क्लेम करता है। इस दौरान उसने जितना अधिक शुल्क चुकाया होता है, उसका कुछ भार वह उत्पादन खर्च पर डाल देता है जिसे वह उपभोक्ताओं से वसूल करता है।
हो सकता है कि वह ऐसा करे पर कुछ मामलों में वह ऐसा नहीं भी कर सकता है। पर आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि वह ऊंचे कर का बोझ कुछ हद तक उपभोक्ताओं पर डाल ही देता है। अब अगर 15 फीसदी के जिस रिफंड का उसने दावा किया था, वह उसे मिल जाता है तो यह उसके विंडफॉल गेन्स के दायरे में आता है। तब तक ऐसा ही समझा जाएगा जब तक उत्पादक यह न साबित कर दे कि उसने उस बोझ को उपभोक्ताओं के ऊपर डाल दिया था।
वर्ष 1991 में सीमा कानून की धारा 11 और 27 में संशोधन कर इस कानून को बनाया गया था। इसके साथ ही 1878 से जो प्रैक्टिस जारी थी उसे हरी झंडी दिखा दी गई थी। केंद्रीय उत्पाद कानून में भी इसे स्वीकार कर लिया गया था। अगर उत्पादक रिफंड को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है तो यह राशि कल्याण कोष में डाल दी जाती है। इस वजह से इसे कल्याण कानून भी कहा जा सकता है। कल्याण कानून से मशहूर इस कानून ने उद्योग और कारोबार जगत यहां तक कि विभाग में भी हलचल मचा दी है। यह चर्चा और विवाद का विषय बन चुका है।
इस विषय से जुड़े विभिन्न मसलों में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और ट्रिब्यूनल ने कई फैसले सुनाए हैं लेकिन हर बार इस विषय की अलग अलग तरीके से व्याख्या की गई है। कुछ मामलों को तो उच्चतम न्यायालय की बड़ी बेंच में भी भेजा गया था। इस विषय पर विवाद होने से एक करदाता की जिंदगी में उठा पटक होने लगी है। क्या इन सभी अड़चनों, विवादों और परिणामस्वरूप जो भ्रष्टाचार पैदा होते हैं, उन्हीं से कल्याण हो सकता है। नहीं शायद इनसे इसका उलटा ही होता है।
अगर भारतीय अर्थव्यवस्था जो पूंजीवादी सिद्धांत के अनुरूप चलती है, को जापान, अमेरिका, यूरोप और चीन जैसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं से टक्कर लेनी है तो ऐसा एक समान मंच पर करने की अनुमति दी जानी चाहिए। इन देशों में इस तरह के मुनाफे को रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया है। तब तक तो इन्हें मुनाफा कमाने से नहीं ही रोका जा सकता है जब तक इन्होंने सही सही कर का भुगतान किया हो यानी कि कर के मामले में किसी तरह की धोखाधड़ी न की हो।
अनुचित संवर्धन कानून के हिसाब से कोई भी कंपनी अपने उत्पादों को उसकी लागत और शुल्क के बराबर या अधिक की कीमत पर बेच सकती है। पर ऐसा सही नहीं है। कई सारी कंपनियां हैं जो घाटे में जाने के बाद बीआईएफआर का दरवाजा खटखटाती हैं। इस कानून में नुकसान की भरपाई के लिए कोई प्रावधान नहीं है केवल मुनाफे को लेकर आपत्ति दर्ज की गई है। मुनाफे को विकास का इंजन कहा जा सकता है। अगर कोई कंपनी मुनाफा कमाती है तो ही वह नए प्रयोगों की ओर रुख कर सकती है और अगर कोई कंपनी चुनौतियां लेने और जोखिम उठाने को तैयार है तो ही वह नई तकनीकों से उन्नत हो सकेगी।
हमेशा कीमत का लागत से संबंध हो, ऐसा जरूरी नहीं है। कीमत को तय करने में कई दफा बाजार की ताकतें भी जिम्मेदार होती हैं। अगर चीन में स्टील की मांग बढ़ती है तो भारत में टिस्को और सेल जो स्टील बनाती है उसकी कीमत बढ़ना भी तय है। कुछ ऐसा ही ठीक उलट स्थिति में भी होता है। निष्कर्ष यही निकलता है कि अगर इस कानून को खत्म करने की कोशिश की जाती है तो इस बार वामपंथी पार्टियां इसे संसद में रोक पाने में सफल नहीं हो सकेंगी। उद्योग और कारोबार जगत को और कार्यकुशल तथा चुनौतीपूर्ण बनाने के लिए इस सुधार को अभी लाने की कोशिश की जानी चाहिए।