यूक्रेन और रूस के बीच छिड़ा युद्ध कूटनीतिक नाकामी दिखाता है लेकिन आगामी जी20 शिखर बैठक एक अवसर है जहां कूटनीति अपना बचाव कर सकती है। इस बारे में बता रहे हैं श्याम सरन
आगामी 24 फरवरी को यूक्रेन युद्ध की शुरुआत हुए एक वर्ष हो जाएगा। अब सवाल यह नहीं है कि इस युद्ध में कौन जीतेगा या कौन हारेगा बल्कि अब प्रश्न यह है कि आखिर दोनों पक्ष बिना हार स्वीकार किए इस युद्ध का खात्मा कैसे कर पाएंगे या फिर इसके लिए गहन और कल्पनाशील कूटनीति अपरिहार्य है और इस दिशा में उस देश या उन देशों को पहल करनी चाहिए जिनका दोनों पक्षों में कुछ भी दांव पर न लगा हो। भारत ऐसा देश हो सकता है। वह ब्राजील, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका और शायद तुर्किये जैसे देश इस दिशा में प्रयास कर सकते हैं कि यह जंग रोकी जा सके।
अब समाधान की राजनीति तैयार करने का वक्त आ गया है ताकि मौजूदा शत्रुता को और बढ़ने से रोका जा सके और उसके बाद चरणबद्ध तरीके से उपाय अपनाकर उसे कम किया जा सके। यूक्रेन युद्ध कूटनीतिक नाकामी दर्शाता है। इसकी पहली बरसी के मौके पर यकीनन कूटनीति को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
इस युद्ध से कई अहम सबक लिए जा सकते हैं। रूस के लिए कुछ अहम सबक पहले ही सामने आ चुके हैं:
पहला, मोर्चों पर जीत का मतलब हमेशा युद्ध में जीत नहीं होता। रूस ने इस वर्ष भले ही कई मोर्चों पर जीत हासिल की हो लेकिन वह युद्ध हार चुका है। यूक्रेन मलबे में तब्दील हो चुका है, उसकी जनता रूस और रूसियों के प्रति नफरत से भरी है लेकिन वह भी जीत का दावा नहीं कर सकता है। रूस चाहे जितनी ताकत हासिल करने का दावा करे लेकिन यह जख्म बना रहेगा।
दूसरा, अगर नाटो को रूस की सीमाओं के करीब जाने से रोकना इस युद्ध का लक्ष्य था तो स्वीडन और फिनलैंड का नाटो में शामिल होना तो रूस के लिए और अधिक संकट की बात है। तीसरा, यूक्रेन युद्ध ने एक महाशक्ति के रूप में रूस के पराभव को तेज कर दिया है। अब इस बात का खतरा उत्पन्न हो गया है कि कहीं वह चीन के अधीन देश बनकर न रह जाए।
अमेरिका और यूरोप के लिए यूक्रेन युद्ध एक अहम झटका और मंडराता हुआ खतरा है। अक्सर कहा जाता है कि रूस के आक्रमण के खिलाफ यूक्रेन की मदद का लक्ष्य यह है कि किसी भी सूरत में रूस को सैन्य जीत न हासिल करने दी जाए। परंतु इसमें एक रणनीतिक प्रतिबद्धता बढ़ती सैन्य रणनीति की भी है जो नाटो को सीधे-सीधे रूस के साथ अधिक खतरनाक सैन्य लड़ाई में झोंक सकती है। इससे लड़ाई की प्रकृति बदल जाएगी और परमाणु युद्ध का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हम पहले ही उस दिशा में बढ़ते दिख रहे हैं।
इस स्थिति को पहचानना होगा और बहुत देर होने के पहले इसे रोकना होगा। जैसा कि मैंने कहा अगर रूस पहले ही जंग हार चुका है तो कूटनीतिक सक्रियता दिखानी चाहिए ताकि उसे इससे निकलने और अपने आपको दोबारा स्थापित करने में मदद की जा सके। इससे रूस चीन का अधीनस्थ बनने से भी बच सकेगा। चीन पश्चिमी दबदबे वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए एक बड़ा खतरा है।
पश्चिम रूस और चीन की चुनौती एक साथ नहीं झेल सकता है। समझदारी इसी में है कि रूस से कूटनीति के जरिये निपटा जाए और चीन की गंभीर चुनौती से निपटने पर ध्यान दिया जाए।
चीन की बात करें तो वह रूस के साथ अमेरिका और यूरोप के जूझने को अपने लिए बेहतर मान सकता है क्योंकि इससे उसके पूर्वी मोर्चे पर अमेरिका का दबाव कम होगा। हालांकि अब तक ऐसा नहीं हुआ है। अमेरिका ने एशिया में अपने गठजोड़ और साझेदारियां बढ़ा दी हैं। इस बीच वह यूक्रेन की मदद भी कर रहा है। यूक्रेन में युद्ध का भड़कना चीन के हित में नहीं होगा, खासतौर पर अगर परमाणु
हथियारों के इस्तेमाल का खतरा है। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि क्या चीन भी उभरते देशों के समूह के साथ मिलकर ऐसी कूटनीतिक पहल का हिस्सेदार बनना चाहेगा जिसकी मदद से यूक्रेन युद्ध को रोका जा सके। चीन ऐसा देश है जिसका रूस पर काफी प्रभाव है।
भारत समेत कई विकासशील देशों में यह भावना है कि यह किसी और का युद्ध है जहां किसी एक पक्ष की ओर झुकने से बचना चाहिए। एक नजरिया यह भी है कि यह युद्ध ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां यह अत्यंत कम तीव्रता के साथ निरंतर जारी रह सकता है। यह अदूरदर्शी नजरिया है। हम पहले ही इस युद्ध के चलते बड़ा नुकसान झेल चुके हैं और अगर यह जारी रहा तो तेज आर्थिक वृद्धि की हमारी संभावनाएं बुरी तरह प्रभावित होंगी। ऐसे में हमारा हित इसी में है कि युद्ध जल्दी समाप्त हो। यह भी स्पष्ट है कि युद्ध आगे चलकर और गहरा तथा व्यापक असर वाला होगा।
अब यह संभावना बहुत कम है कि यह युद्ध कम तीव्रता वाले संघर्ष तक सिमट कर रह जाएगा। रूस पूर्वी यूक्रेन पर एक बड़े हमले की तैयारी कर रहा है। साथ ही वह देश के दक्षिणी हिस्से में भी नए सिरे से हमले कर सकता है। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश यूक्रेन को अधिक घातक और उन्नत हथियारों की आपूर्ति करने जा रहे है। अब हमें ऐसे युद्ध के संकेत नजर आ रहे हैं जो आगे और जोर पकड़ सकता है तथा जिसके नियंत्रण से बाहर हो जाने की कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ सकती है।
विकासशील देश इस खतरे को लेकर पूरी तरह सतर्क नहीं हैं कि अगर इस वर्ष युद्ध और जोर पकड़ता है तो उनके सामने किस प्रकार के खतरे आ सकते हैं। इसके गहन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणाम होंगे जिनका बोझ गरीब देशों को वहन करना होगा। भारत की आर्थिक प्रगति तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके उभार की संभावनाओं को भी गहरी क्षति पहुंचेगी।
इसके मानवीय पहलू की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। यूक्रेन की जनता भीषण कष्ट से गुजर रही है और उसे सहानुभूति और समर्थन की आवश्यकता है। जी20 देशों को इस मानवीय पहलू को सामने रखना चाहिए और उन लोगों के लिए राहत जुटानी चाहिए जो इस युद्ध से प्रभावित हुए हैं। जाहिर है भारत को यूक्रेन संकट को हल करने के लिए निरंतर और केंद्रित कूटनीतिक प्रयासों की ओर बढ़ना चाहिए और तत्काल लड़ाई बंद कराने के प्रयास करने चाहिए।
आगामी जी20 शिखर बैठक में यह शीर्ष एजेंडा होना चाहिए। एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य का नारा तब तक मायने नहीं रखेगा जब तक कि हम यूक्रेन युद्ध को हल्के में लेंगे। इसे एक प्रमुख विषय के रूप में देखना होगा।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)