कंपनियां सरकार के नियम के मुताबिक कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (corporate social responsibility -CSR) की रकम तो खर्च कर रही हैं मगर पूर्वोत्तर को इसका बहुत छोटा हिस्सा मिल रहा है। प्राइम इन्फोबेस डॉट कॉम द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2021-22 में पूर्वोत्तर भारत को CSR की रकम में केवल 7.7 फीसदी हिस्सा मिला। वित्त वर्ष 2015 में CSR खर्च अनिवार्य कर दिया गया था, जिसके बाद पूर्वोत्तर में खर्च होने वाली यह दूसरी सबसे कम राशि है। वित्त वर्ष 2017 में CSR का सबसे अधिक 10.1 फीसदी हिस्सा पूर्वोत्तर में खर्च हुआ था।
कंपनियों को अपने मुनाफे का 2 फीसदी CSR परियोजनाओं पर खर्च करना ही होता है। विश्लेषण में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा में CSR फंड से खर्च की जाने वाली राशि को शामिल किया है। इन राज्यों में से असम को सबसे ज्यादा हिस्सा मिला है। वित्त वर्ष 2022 में असम को 319 करोड़ रुपये मिले। पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में से प्रत्येक को औसतन 100 से 130 करोड़ रुपये मिले।
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक को CSR के तहत खर्च किए गए कुल 14,558 करोड़ रुपये का 35 फीसदी से ज्यादा हिस्सा मिला। ये पांच राज्य महामारी के पहले (2018-19 में) मौजूदा कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से सबसे बड़े राज्यों में शामिल थे। CSR मद में इन राज्यों को कुल 5,136.5 करोड़ रुपये मिले जबकि पूर्वोत्तर राज्यों को 1,125.8 करोड़ रुपये ही मिले। वित्त वर्ष 2015 में शीर्ष पांच राज्यों को 2,500 करोड़ रुपये मिले थे और पूर्वोत्तर के हिस्से 650 करोड़ रुपये आए थे।
ऐसे आंवटन का एक कारण यह भी है कि अधिकतर कंपनियां देश के गिने-चुने वाणिज्यिक केंद्रों में स्थित हैं। इनमें मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप CSR खर्च में इनका हिस्सा ज्यादा होता है। पूर्वोत्तर जैसे राज्यों में उद्योग कम हैं, इसलिए विकास लक्ष्यों के लिए उन्हें CSR कोष से कम हिस्सा मिल पाता है।
इस क्षेत्र के विकास पर नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘शुद्ध सकल राज्य घरेलू उत्पाद (त्रिपुरा को छोड़कर) में इस इलाके में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 20 फीसदी से भी कम है। पूर्वोत्तर राज्यों की आय में द्वितीयक क्षेत्रों का 18 फीसदी से ज्यादा योगदान है, जबकि प्राथमिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 31.4 फीसदी है। तृतीयक क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 50 फीसदी है।’
केपीएमजी की ‘भारत की CSR रिपोर्टिंग सर्वेक्षण 2019’ जैसी पहले की रिर्पोर्टों में इस तरह की विषमता का उल्लेख किया गया है। इसमें कहा गया है कि अधिक आंकाक्षी जिलों वाले राज्यों को अमीर राज्यों की तुलना में CSR कोष का छोटा हिस्सा प्राप्त होता है। ऐसा CSR की संरचनात्मक समस्या की वजह से भी हो सकता है, जहां कंपनियों के पास पुनर्वितरण के लिए उतना प्रोत्साहन नहीं होता है जितना सरकारी व्यय में होता है, जिस पर राजनेता वोट के आधार पर निर्णय लेते हैं।
गैर-सरकारी संगठन दासरा और वैश्विक परामर्श फर्म बेन ऐंड कंपनी की 2023 में भारत में परमार्थ रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सरकार अपने सामाजिक क्षेत्र के बजट का 32 फीसदी हिस्सा प्रति व्यक्ति 1 लाख रुपये से कम जीडीपी वाले 6 राज्यों को प्रदान करती है, जबकि CSR के तहत 17 फीसदी आवंटन किया जाता है।’
CSR खर्च के अलग-अलग मद को देखें तो पता चलता है कि कंपनियों ने वित्त वर्ष 2015 से अब तक 5,884 करोड़ रुपये गौशालाओं पर और गायों से संबंधित परियोजनाओं पर खर्च किए हैं। पूर्वोत्तर में अब तक कुल 7,918 करोड़ रुपये CSR मद में खर्च किए गए हैं।