फिल्म तारे जमीन पर (2007) के एक यादगार दृश्य में युवा नायक ईशान अवस्थी को एक चलती बस की सामने वाली खिड़की से बाहर झुकते हुए दिखाया गया है। वह एक सुपरहीरो बनने की कल्पना करते हुए अपनी बाहें फैलाता है। आम तौर पर सार्वजनिक परिवहन वाली बसों में सामने की ओर खुलने वाली ऐसी खिड़कियां नहीं होती हैं। केवल मुंबई की डबल डेकर बसों में ऐसी अनोखी व्यवस्था रही है।
अगर आपको राज्य परिवहन की लुप्त होती इन बसों में सफर करने का अवसर नहीं मिला है तो अब यह नहीं मिलने वाला। दरअसल, मुंबई के सार्वजनिक परिवहन में करीब आठ दशक तक शामिल रहीं लाल डबल डेकर बसों का परिचालन 15 सितंबर से बंद हो है। इन वाहनों का 15 वर्षों का जीवन पूरा हो चुका है और इसलिए इन्हें हमेशा के लिए सड़कों से हटा दिया गया है।
बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई ऐंड ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग (बेस्ट) के एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि 15 सितंबर से इन डबल डेकर बसों का परिचालन बंद कर दिया गया है जबकि ओपन-डेक बसों का परिचालन 5 अक्टूबर से बंद होगा। मुंबई में पहली डबल डेकर बस 8 दिसंबर, 1937 को शुरू हुई थी।
यह मुख्य तौर पर दक्षिण बंबई के मार्गों पर चलती थी। बाद में 1960 के दशक में एक डबल डेकर ट्रेलर बस उतारी गई। 1990 का दशक आते-आते बेस्ट के बेड़े में डबल डेकर बसों की संख्या बढ़कर 900 तक पहुंच गई थी। फिलहाल बेस्ट के बेड़े में 3 ओपन डेक बसों के साथ कुल 7 डबल डेकर बसें हैं।
ओपन डेक बसें खास तौर पर दर्शनीय स्थलों की यात्रा के लिए चर्चित रही हैं। लोगों ने बेस्ट से आग्रह किया है कि इनमें से कम से कम दो बसों को अनिक डिपो के संग्रहालय में संरक्षित किया जाए। उन्होंने इसके लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और राज्य के पर्यटन मंत्री को भी पत्र लिखा है।
इस बीच, बेस्ट ने इस साल फरवरी से इन बसों को पट्टे पर ली गई बैटरी से चलने वाली लाल और काली डबल डेकर बसों से बदलना शुरू कर दिया है। अब तक ऐसी 25 बसें मुंबई की सड़कों पर उतारी जा चुकी हैं। इलेक्ट्रिक डबल डेकर बसों का यह नया बेड़ा भले ही खूबसूरत और शानदार दिख रहा हो, मगर उसके लिए मुंबई की पुरानी रेड कैडिलैक जैसी प्रतिष्ठा हासिल करना आसान नहीं होगा।
मुंबई के हिंदी फिल्म उद्योग के साथ लंबे समय से इसके लगाव को देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि शहर के दैनिक जीवन के साथ यह कितती घुलमिल गई थी। उदाहरण के लिए, तारे जमीन पर के दृश्य में सिंगल डेकर बस का उपयोग करने से ईशान के उस अनुभव एवं रोमांच को व्यक्त नहीं किया जा सकता है जिसे डबल डेकर के जरिये स्पष्ट तौर पर दिखाया गया।
शान (1980) के गाने ‘जानू मेरी जान’ को अगर सिंगल डेकर बस के साथ फिल्माया जाता जो दृश्य उतना शानदार नहीं दिखता।
यहां अमिताभ बच्चन और शशि कपूर ने फिल्म में अपनी प्रेमिका परवीन बाबी और बिंदिया गोस्वामी को लुभाने की कोशिश को डबल डेकर के जरिये शानदार तरीके से दर्शाया गया है। वे खिड़कियों से बाहर निकलते हैं, पगडंडियों एवं सीढ़ियों से झूमते हुए निकलते हैं और एक डबल साइकिल पर सवार होकर बस का पीछा करते हैं।
बेस्ट की डबल डेकर बसें केवल रोमांटिक किस्सों तक ही सीमित नहीं है। इनने 70 के दशक के अंत तक मुंबई के मध्य वर्ग के संघर्षों के साथ अपनी एक अलग जगह बनाई। बासु चटर्जी की फिल्म छोटी सी बात (1976) में अमोल पालेकर ने विद्या सिन्हा को रिझाया तो यह शहर में सहअस्तित्व, बढ़ते अकेलेपन और उभरती आधुनिकता में स्त्री-पुरुष की बदलती भूमिकाओं को दर्शाने के लिए अपने आप में एक छोटी दुनिया बन गई।
फिल्म में पालेकर डबल डेकर बस के पीछे भागते हुए, बस स्टॉप पर इंतजार करते हुए, अपनी प्रेमिका के साथ बात करते हुए और प्रेमिका के न रहने पर खिड़की से झांकते हुए दिखते हैं। इस प्रकार वह नए मध्यवर्ग के नायक के प्रतीक के तौर पर उभरते हैं।
शायद यह उचित ही था कि भारतीय समानांतर सिनेमा के इतिहास में एक निर्णायक क्षण को डबल डेकर पर चलाया गया था। चर्चगेट से मलाड तक चलने वाली सार्वजनिक परिवहन की डबल डेकर बस 1952 में बिमल रॉय प्रोडक्शंस के जन्म का गवाह बनी। हृषीकेश मुखर्जी, रॉय और कुछ अन्य लोग इरोस थिएटर में अकीरा कुरोसावा की राशोमोन देखकर लौट रहे थे। वे डबल डेकर बस को देखकर अचंभित हुए और उससे सफर करने का निर्णय लिया। उसी दौरान उन्होंने उस सिनेमा पर बातचीत की जिसे वे साथ मिलकर बनाना चाहते थे।
साल-दर-दर साल मुंबई की डबल डेकर बसों की लोकप्रियता बढ़ती गई और उन पर चढ़ने वाले संघर्षशील नायकों का गुस्सा भी बढ़ता गया। चाहे अर्धसत्य (1983) में दिखाई गई हताशा हो अथवा जाने भी दो यारों (1983) की कॉमेडी, नायक: द रियल हीरो (2001) की मर्दानगी, डबल डेकर बसों ने शहर के सभी दृश्यों को शानदार तरीके से उकेरने में जबरदस्त भूमिका निभाई।