कॉर्पोरेट दुनिया में नौकरी छोड़ना या अचानक छंटनी का सामना करना पहले से ही दिल को थोड़ी धड़कन बढ़ा देता है। लेकिन इसके बाद जो सच में चिंता जगाता है, वह है आपका हेल्थ इंश्योरेंस! सोचिए, जो सुरक्षा की चादर आपका एम्प्लॉयर आपको देता था, वह अचानक गायब हो जाए, तो क्या होगा।
EDME इंश्योरेंस बोकर्स के MD (इंडस्ट्रीज) नोचिकेता दीक्षित कहते हैं कि ज्यादातर कंपनियां जैसे ही आपका नोटिस पीरियड खत्म होता है, ग्रुप मेडिकल कवर भी वहीं खत्म कर देती हैं। कुछ बड़े संगठनों में थोड़ी राहत मिलती है, लेकिन स्टार्टअप या छोटे सेक्टर में यह सुरक्षा एक झटके में खत्म हो जाती है। और ऐसे में जब कर्मचारियों की उम्र बढ़ती है या हेल्थ पर ध्यान देना पड़ता है, तो प्रीमियम पर असर पड़ता है। छंटनी के बाद इंश्योरेंस का सही विकल्प चुनना अब सिर्फ स्मार्ट रहन-सहन नहीं, बल्कि आर्थिक सुरक्षा का भी सवाल बन जाता है।
छंटनी के बाद कर्मचारियों के पास कुछ विकल्प होते हैं। दीक्षित बताते हैं, “भारत में अमेरिका जैसी COBRA सुविधा नहीं है, लेकिन आप अपने ग्रुप प्लान को पोर्ट या पर्सनल पॉलिसी में बदल सकते हैं। इसके लिए आपको नौकरी छोड़ने से पहले प्रक्रिया शुरू करनी होगी। इससे आप प्री-एक्जिस्टिंग कंडीशन और नो-क्लेम बोनस के फायदे को बरकरार रख सकते हैं। दूसरा विकल्प है नई पर्सनल या फैमिली फ्लोटर पॉलिसी खरीदना, जिसमें वेटिंग पीरियड और मेडिकल अंडरराइटिंग लग सकती है।”
हालांकि, पर्सनल पॉलिसी आम तौर पर महंगी होती हैं। दीक्षित कहते हैं, “कंपनी के ग्रुप प्लान का प्राइस एम्प्लॉयर द्वारा नेगोशिएट किया जाता है। नौकरी छूटने के बाद प्रीमियम काफी बढ़ सकता है, खासकर उम्रदराज कर्मचारियों या फिर जिन्हें ज्यादा स्वास्थ्य समस्याएं हो।”
दीक्षित बताते हैं, “अगर जो लोग छंटनी में जाते हैं वे अगर युवा या स्वस्थ हैं, तो बची हुई टीम में उम्रदराज या हेल्थ से जुड़ी समस्याओं वाले कर्मचारी रह जाते हैं, जिससे भविष्य में प्रीमियम बढ़ सकता है। हालांकि, छंटनी के तुरंत बाद कुल प्रीमियम आम तौर पर कम हो जाता है क्योंकि कर्मचारियों की संख्या घट जाती है।”
कंपनियां आम तौर पर इस अतिरिक्त लागत को खुद उठाती हैं, खासकर जब हेल्थ इंश्योरेंस कर्मचारी बेनेफिट का बड़ा हिस्सा हो। कर्मचारियों पर लागत बढ़ाना या कॉप-पे के जरिए पास करना आम तौर पर तब होता है जब कंपनी को पैसे की दिक्कत के चलते एक नया रूप देना होता है।
बीमाकर्ताओं की नजर में भी छंटनी का असर होता है। दीक्षित बताते हैं, “लार्ज-स्केल छंटनी के बाद इंश्योरेंस कंपनियां कर्मचारियों के उम्र, जेंडर, और क्लेम ट्रेंड्स पर ध्यान रखते हैं। कभी-कभी स्वस्थ कर्मचारी जाने से बची टीम में जोखिम बढ़ जाता है। इसलिए रिन्यूअल पर प्रीमियम बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इंश्योरेंस कंपनियां सिर्फ एक इवेंट देखकर फैसला नहीं लेती। वे पिछले साल या दो साल के डेटा पर निर्णय लेते हैं।”
नीति और रेगुलेटरी मामले भी दीक्षित ने उठाए हैं। उनका कहना है, “भारत में कोई कानून नहीं है जो नौकरी छोड़ने पर हेल्थ इंश्योरेंस जारी रखने को जरूरी करे। कर्मचारियों को आम तौर पर पता ही नहीं होता कि उनके अधिकार क्या हैं या कवरेज कितने दिन तक जारी रहेगा। ग्रुप प्लान को आसान और सस्ते तरीके से व्यक्तिगत पॉलिसी में बदलने की जरूरत है। कंपनियों को भी स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि जब कोई कर्मचारी निकलता है तो उसके विकल्प क्या हैं।”
कई कंपनियां छंटनी के समय एग्जिट पैकेज के हिस्से के रूप में कुछ हफ्तों के लिए कवरेज जारी रखती हैं। दीक्षित कहते हैं, “यह आम तौर पर टेक्नोलॉजी स्टार्टअप में होता है, लेकिन इसे आप पक्का नहीं मान सकते। यह पूरी तरह एम्प्लॉयर पर निर्भर करता है।”
सामाजिक सुरक्षा के विकल्प भी हैं। दीक्षित बताते हैं “यदि योग्य हों तो कर्मचारी आयुष्मान भारत जैसे सरकारी हेल्थ प्रोग्राम्स का फायदा ले सकते हैं। यह 5 लाख रुपये तक फ्री कवरेज देता है, लेकिन ज्यादातर मिडिल क्लास कॉर्पोरेट कर्मचारियों के लिए यह पर्याप्त नहीं है।”
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आखिरकार, छंटनी के बाद हेल्थ इंश्योरेंस को लेकर कर्मचारियों को खुद तैयारी करनी पड़ती है। ग्रुप कवर के खत्म होने के बाद प्रीमियम बढ़ सकते हैं, और कई लोग अपनी पॉलिसी घटाने या छोड़ने के विकल्प पर विचार करने को मजबूर होते हैं। दीक्षित के मुताबिक, कर्मचारियों को समय रहते अपने विकल्पों की जानकारी रखनी चाहिए और यदि संभव हो तो पोर्टिंग के जरिए कवरेज जारी रखना चाहिए।