वैश्विक आर्थिक विकास में आई मंदी से अंतत: कच्चे तेल और धातुओं की कीमत पर लगाम लगी है जो अनियंत्रित रुप से बढ़ रही थी और कॉर्पोरेट, सरकार और लोगों की वित्त व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही थीं।
मूल्यों में गिरावट बिल्कुल उपयुक्त समय पर हुई है क्योंकि घरेलू कॉर्पोरेट सेक्टर महंगाई की अधिकता, ऊंची ब्याज दरों और औद्योगिक विकास में मंदी के दौर से जूझ रहा था। यह सब कच्चे तेल और धातुओं की अधिक कीमतों का सीधा परिणाम था। उच्च ब्याज दर परिस्थितियों में, उत्पादों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी से कर्ज वृध्दि में गिरावट आने के साथ-साथ खपत संबंधी मांग भी कम हो गईं।
लागत की कीमतों में बढ़ोतरी, खास तौर से जुलाई के प्रथम सप्ताह में जब कच्चे तेल का मूल्य मई के 100 डॉलर प्रति बैरल के स्तर से बढ़ कर 145 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया, और महंगाई में असामान्य रूप से होती बढ़ोतरी का असर बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सेंसेक्स में आई गिरावट के रूप में साफ नजर आया जो जुलाई के दूसरे सप्ताह में लुढ़क कर 12,000 के स्तर पर आ गया था।
हालांकि, कच्चे तेल के मई के स्तर से कम होने, कमोडिटी के मूल्यों में नरमी आने और अक्टूबर-नवंबर के त्योहारी सीजन में मांग बढ़ने के अनुमानों को लेकर विशेषज्ञों को भरोसा है कि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ कार्पोरेट-मुनाफा भी पटरी पर आ जाएगा।
अब बात यह है कि इसके लिए बढ़ते मूल्यों को या तो कम होना चाहिए या वर्तमान स्तर पर बने रहना चाहिए जिससे मौद्रिक नीतियों में नरमी, ब्याज दरों में कमी आ सकती है और कॉपोरेट के साथ-साथ उपभोक्ताओं के निवेश और खर्च भी बढ़ सकते हैं। आइए एक नजर डालते हैं कमोडिटी पर, वर्तमान परिस्थितियों में जिसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
तेल का समीकरण
अपनी अर्थव्यवस्था के पहिए को ऊर्जा देने वाले सभी जिंसों के आयात में कच्चे तेल की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। हमारी जरुरतों के 70 फीसदी का आयात किया जाता है जिसका इस्तेमाल प्राथमिक तौर पर परिवहन और ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए किया जाता है। कच्चे तेल की कीमतों में हुई वृध्दि का असर अधिकांश उत्पादों की कीमतों पर पड़ता है। भारत में सालाना लगभग 9,850 लाख बैरल तेल की खपत की जाती है।
इसकी कीमतों में अगर 1 डॉलर प्रति बैरल की गिरावट होती है तो समझ लीजिए कि राजकोष के 1 अरब डॉलर की बचत होती है। कच्चे तेल की अधिकतम कीमतों में अभी तक 40 डॉलर प्रति बैरल की कमी आई है, जिसका मतलब है कि भारत की अर्थव्यवस्था में 40 अरब डॉलर की बचत होगी।
इस बचत से न केवल राजकोषीय घाटे को कम करने में मदद मिलेगी जो तेल की अधि कीमतों (सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत), खाद पर मिलने वाली छूट, वेतन आयोग द्वारा पिछले बकाए के भुगतान और कर्ज माफी के कारण हुआ था बल्कि यह संसाधन भी उपलब्ध कराएगा जिसके इस्तेमाल बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ करने में किया जा सकता है।
आईडीएफसी म्युचुअल फंड के वरिष्ठ फंड प्रबंधक अजय बोड़के कहते हैं कि जिंसों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी से विकसित देशों में जिंसों की मांग में कमी आई और यह भारतीय कंपनियों के लिए शुभ समाचार है क्योंकि इससे उनके मुनाफे पर पड़ने वाले दबाव में नरमी आएगी। इसका सबसे ज्यादा असल तेल विपणन कंपनियों पर होगा जिन पर पेट्रोलियम उत्पादों पर छूट देने का दबाव होता है।
उल्लेखनीय है कि पेट्रोलियम उत्पादों का आयात अंतरराष्ट्रीय दरों पर किया जाता है लेकिन इनकी बिक्री सब्सिडाइज्ड दरों पर की जती है।
धातुओं की कीमतों में कमी और महंगाई
तेल की कीमतों में तेजी से गिरावट आई लेकिन धातुओं के मूल्यों में धीरे-धीरे कमी आ रही है। कमोडिटी रिसर्च ब्यूरो इंडेक्स, जो प्रमुख धातुओं के हाजिर मूल्यों पर नजर रखता है, के अनुसार मई की उच्चतम कीमतों से अब तक धातुओं के मूल्य में 23 प्रतिशत की कमी आई है।
विश्लेषक कहते हैं कि इसका प्रभाव स्टील जैसे धातुओं पर सकारात्मक होगा जिसका इस्तेमाल उपभोक्ता उत्पाद बनाने में विनिर्माताओं द्वारा कच्चे माल या लागत के तौर पर किया जाता है। इससे जिन सेक्टरों को लाभ होने की संभावना है उनमें अभियांत्रिकी, ऑटो, पूंजीगत वस्तुएं और विनिर्माण शामिल हैं।
रेलिगेयर सिक्योरिटीज के प्रेसिडेंट (इक्विटी) अमिताभ चक्रवर्ती कहते हैं कि भारत में 40 प्रतिशत स्टॉक कमोडिटी स्टॉक हैं। इसलिए, इस सीमा तक, उनके ईबीआईडीटीए लाभ दबाव में रहेंगे। जबकि धातु सेक्टर नकारात्मक रूप से प्रभावित होने जा रहे हैं। धातुओं की मांग में आई कमी से लौह अयस्क की कीमतों में गिरावट आई है इससे स्टील उत्पादकों के लागत मूल्यों में कमी आएगी।
वैश्विक बाजार में केवल स्टील की कीमतों में ही गिरावट नहीं आई है बल्कि चीनी को छोड़ कर लगभग सभी कृषि जिंसों की कीमतों में कमी आ रही है। अनाजों के बढ़ते बफर स्टॉक और मॉनसून सामान्य होने से अगले दो महीनों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में कमी आ सकती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इससे महंगाई दर में कमी आएगी। उनके अनुसार जनवरी 2009 तक महंगाई दर इकाई में आ जाएगी और मार्च 2009 तक यह 7 प्रतिशत के स्तर पर आ जाएगी। महंगाई दरों में कमी आने से आरबीआई भी ब्याज दरों में कटौती कर सकता है।
रुपये में आती गिरावट
एक तरफ जहां जिंसों की कीमतों में आती गिरावट से लागत मूल्यों में कमी आई है वहीं अगस्त 2008 से रुपये में हुआ लगभग 8 प्रतिशत का अवमूल्यन (इस वर्ष की शुरूआत से 15 प्रतिशत से अधिक) कॉर्पोरेट और अर्थव्यवस्था के एक हिस्से में सेंध लगा रहा है।
एनसीडीईएक्स के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनविस कहते हैं कि रुपये के मूल्य में आती कमजोरी से भुगतान का संतुलन बिगड़ा है और हम तेल और गैर तेल आयातों की अधिकता के कारण चालू खाते में घाटे की दौर से गुजर रहे हैं।
एक तरफ जहां यह (तेल और गैर-तेल आयात) इशारा करता है कि कॉर्पोरेट-विस्तार में मजबूती आई है वहीं दूसरी तरफ जब आप विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा निवेश भुनाए जाने को जोड़ दें तो इससे हमारा राजकोषीय घाटा बढ़ा है।
विश्लेषक कहते हैं कि बहिर्प्रवाह के अंतर्प्रवाह की तुलना में अधिक होने से अगले दो तिमाहियों में रुपये में और अधिक कमजोरी आएगी। यूटीआई म्युचुअल फंड के इक्विटी प्रमुख अनूप भास्कर कहते हैं कि सर्वाधिक नुकसान टेलीकॉम जैसे सेक्टर को होगा जिसने डॉलर के रूप में बाहर से कर्ज लिया है और जिनकी कमाई रुपये में होती है। इससे आईटी और टेक्सटाइल के क्षेत्र को लाभ होगा।
वैश्विक विकास में मंदी
आईएमएफ की भविष्यवाणी है कि वैश्विक आर्थिक विकास साल 2007 के 5 प्रतिशत से घट कर साल 2008 में 4.1 प्रतिशत और साल 2009 में 3.9 प्रतिशत हो जाएगा।
एचएसबीसी म्युचुअल फंड के फंड प्रबंधन (इक्विटी) के प्रमुख मिहिर वोहरा कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यात पर (सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 10 फीसदी) बहुत अधिक निर्भर नहीं करता है, इसलिए अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी भी आती है तो भारत सुरक्षित रहेगा।
हालांकि, वैश्विक निवेशकों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव होसता है जिससे घरेलू बाजार में एफआईआई के निवेश में कमी आ सकती है। इस प्रकार वैश्विक विकास कम होने से जिंसों की कीमतों में और कमी आएगी तथा आने वाले समय में महंगाई बढ़ाने वाली बाहरी कारकों का खतरा कम होने से ब्याज दरों में भी कमी आ सकती है। ब्याज दर संवेदनशील क्षेत्रों जैसे बैंकिंग, ऑटो, विनिर्माण, पूंजीगत वस्तुएं और रियल एस्टेट को दरों के कम होने से लाभ होना चाहिए।
आगे की राह…
भारतीय बाजार, जो काफी अस्थिर रहा है (पिछले 10 दिनों में 1000 अंकों की बढ़ और कमी आई है), को खरीफ फसल, दूसरी तिमाही की आय और राजनीतिक घटनाक्रमों से एक दिशा मिलेगी। घरेलू तौर पर देखें तो अगली तिमाही में फसलों की बंपर कटाई, कृषि ऋण की माफी और 5 लाख केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन में हुई बढ़ोतरी से खपत में वृध्दि होनी चाहिए।
उच्च लागत खर्च और ब्याज दर तथा कम मांग की स्थिति, जो अभी तक बरकरार है, से दूसरी तिमाही में कॉर्पोरेट मुनाफे और आय के कम होने के अनुमान हैं। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय बाजार से पैसे निकाले हैं, जिंसों की कीमतों में आ रही गिरावट से अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया (जो जिंस उत्पादक है) हमारी तुलना में कम आकर्षक होंगे।
अल्पावधि में कुछ अनिश्चितताएं हो सकती है लेकिन दीर्घावधि में जीडीपी की विकास दर 7.5 से 8 प्रतिशत के बीच रहने और घरेलू बचत जीडीपी का 35 प्रतिशत रहेने का अनुमान है। अगले एक साल के प्रतिफल के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह लगभग 15 प्रतिशत रहेगा।
हालांकि, प्रतिफलों पर वैश्विक बाजार के चलन का प्रभाव होगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि ध्यान घरेलू खपत और रक्षात्मक जैसे एफएमसीजी और फार्मास्युटिकल्स पर होनी चाहिए जो सुरक्षित विकल्प हैं और घरेलू मांग बढ़ने से जिन्हें लाभ होगा।
सेक्टर पर प्रभाव- ऑटो
धातु की कीमतों के बढ़ने, ऊंची ब्याज दरें और मांग में आई कमी से अगर किसी क्षेत्र को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा है तो वह ऑटो क्षेत्र है। पर कमोडिटी की कीमतों में गिरावट आने के बाद अब ऑटो कंपनियों को अपना मुनाफा सुधारने में सहूलियत होगी और संभव है कि त्योहारों के मौसम को देखते हुए कंपनियां उत्पाद की कीमतों में कमी कर दें।
जहां वाणिज्यिक वाहनों और ऊंचे सेगमेंट की कारों की बिक्री पर ऊंची ब्याज दरों का प्रभाव पड़ सकता है और इनकी बिक्री में बहुत अधिक बढ़ोतरी होने की उम्मीद नहीं है, वहीं संभावना है कि लो सेगमेंट की कारों और ट्रैक्टरों की बिक्री खासी बढ़ सकती है और इसकी वजह है कि ग्रामीण इलाकों में इनकी तेजी से बढ़ती हुई मांग।
बैंकिंग
पिछले तीन हफ्तों में महंगाई की दर में गिरावट आई है और यह खबर खासतौर पर बैंकिंग क्षेत्र के लिए बड़ी राहत वाली खबर है। आरबीआई की मौद्रिक नीतियों, सरकारी प्रयासों और मॉनसून के बेहतर रहने से ऐसी संभावना है कि आने वाले समय में महंगाई से थोड़ी और राहत मिल सकेगी।
विशेषज्ञों का कहना है कि ब्याज दरें जो फिलहाल चोटी पर पहुंच चुकी हैं उनमें इस साल के अंत तक थोड़ी नरमी आ सकती है। 10 साल वाले सरकारी बांडों से जहां पहले 9.5 फीसदी की आय प्राप्त होती थी वहीं मौजूदा समय में इससे 8.3 फीसदी की वापसी मिल रही है।
दूसरी ओर ऐसी संभावना भी है कि आरबीआई आने वाले समय में ब्याज दरों में 25 आधारभूत अंकों की बढ़ोतरी कर सकता है (अगर यह कहें कि एक तरह से बाजार भी यह मान बैठा है कि आरबीआई ऐसा कोई कदम उठा सकता है तो यह गलत नहीं होगा)।
इधर बैंकों ने भी लंबे समय से चले आ रहे अपने कुछ मसलों जैसे खर्च में कटौती, ऋण देते वक्त ब्याज की गुणवत्ता की जांच करना और मुनाफे पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। उम्मीद है कि मौजूदा समय में एसबीआई, आईसीआईसीआई, यूनियन बैंक और एक्सिस बैंक को लाभ हो सकता है।
अभियांत्रिकी और पूंजीगत वस्तुएं
अधिकांश कंपनियां पहले ही अपने उत्पादों की कीमतें बढ़ा चुकी हैं और अब लागत मूल्य में कमी आने से इसका सीधा फायदा इन कंपनियों को होगा क्योंकि उनके मार्जिन पर पड़ने वाला दबाव कम होगा। हालांकि रुपये के कमजोर होने से आयात महंगा हो रहा है। ब्याज दरों, महंगाई और औद्योगिक और आधारभूत संरचना से जुड़े मुद्दे अब भी चिंता का विषय हैं।
ब्याज दरों में बढ़ोतरी और लागत मूल्य के बढ़ने की वजह से विभिन्न कंपनियां नए निवेश से कतरा रही हैं। साथ ही अगर कंपनियां चाहें कि किसी नई या फिर मौजूदा परियोजना के लिए ही इक्विटी के जरिए धन की उगाही की जाए तो उसके लिए भी समय अनुकूल नहीं है।
बाजार की हालत ऐसी नहीं है कि इक्विटी के जरिए धन की उगाही की जा सके। जब कंपनियों को मांग में तेजी का आश्वासन मिल जाएगा तभी वे नए निवेशों पर विचार कर सकती हैं। अगर वैल्युएशन के संदर्भ में देखा जाए तो विश्लेषकों की पहली पसंद कमिन्स इंडिया, वोल्टास और क्रॉम्पटन ग्रीव्स के शेयर हैं।
धातु- लौह और अलौह
कमोडिटी की कीमतों में आई गिरावट की चोट धातु उत्पादक कंपनियों पर जरूर पड़ेगी। भले ही इनपुट (लौह अयस्क) लागत कम होने से इन कंपनियों को थोड़ी राहत है पर फिर भी कोयले की कीमत अब भी ज्यादा है और इसका असर कंपनियों पर साफ देखने को मिल रहा है। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि भारतीय कंपनियों को आयातित कोयले पर अधिक निर्भर करना पड़ता है।
दूसरी ओर लौह अयस्क की कीमतें घटने से कंपनियों को जो मुनाफा हो रहा है वह भी काफी हद तक इन कंपनियों ने उपभोक्ताओं की झोली में डाल दिया है। वैश्विक बाजार में स्टील की कमजोर की कीमतों की वजह से कंपनियों ने देश में भी स्टील के दामों में कटौती की है।
इस क्षेत्र की बड़ी कंपनियों जैसे सेल और टाटा स्टील को मौजूदा माहौल में सबसे अधिक फायदा होने की उम्मीद है क्योंकि उनके पास खुद का लौह अयस्क का खान है। विश्लेषकों के अनुसार वैश्विक बाजार में कमोडिटी की कीमतों में 20 से 30 फीसदी का सुधार आने से अलौह कंपनियों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ेगा।
एल्यूमीनियम, तांबा और जस्ता बनाने वाली कंपनियों पर सबसे अधिक चोट पहुंचेगी और उनका मार्जिन और मुनाफा घटेगा। रुपये के कमजोर पड़ने से चाहे किसी को कितना भी नुकसान हो रहा हो पर कम से कम अलौह कंपनियों के लिए यह फायदेमंद रहेगा। विश्लेषकों का अनुमान है कि हिंदुस्तान जिंक, हिंडाल्को और नाल्को जैसी कंपनियों के मार्जिन पर सबसे अधिक दबाव होगा।
औषधि
रुपये के कमजोर पड़ने से औषधि कंपनियों (रैनबैक्सी, ग्लेनमार्क, ल्यूपिन) को फायदा पहुंचेगा क्योंकि ये कंपनियां अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा अंतरराष्ट्रीय बाजारों से प्राप्त करती हैं। चीन से आयातित कच्चे माल की कीमतें बढ़ने से और डॉलर के मजबूत होने से आयात महंगा जरूर हुआ है पर इसकी भरपाई निर्यात के जरिए की जा रही है।
सॉफ्टवेयर
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी से परेशान चल रही आईटी कंपनियों के लिए कमजोर रुपया राहत वाली बात होगी। भारतीय आईटी कंपनियों के लिए अमेरिका एक बड़ा बाजार है। डॉलर के मुकाबले रुपये के भाव में एक फीसदी की कमी आने से आईटी कंपनियों का परिचालन मुनाफा 35 से 40 फीसदी तक बढ़ जाता है।
कमजोर रुपये की वजह से वित्त वर्ष 2009 में आईटी कंपनियों की आय में 3 से 5 फीसदी की बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। हालांकि अगर आरबीआई ईसीबी मानकों में कुछ रियायत देता है तो रुपये की कमजोरी के बीच इन कंपनियों का जो मुनाफा अपेक्षित है उसमें कमी आ सकती है। जिन कंपनियों की विदेशी मुद्रा में हेजिंग कम है जैसे सत्यम और इन्फोसिस उन्हें सबसे अधिक फायदा होने की उम्मीद है।
टेक्सटाइल्स
जहां एक ओर रुपये का कमजोर पड़ना टेक्सटाइल इंडस्ट्री के लिए अच्छी खबर है वहीं उद्योग को कच्चे माल की बढ़ी हुई कीमतों की तपिश भी झेलनी पड़ रही है। साथ ही टेक्सटाइल कंपनियों पर अमेरिकी मंदी (मांग पर भी असर पड़ा है) और वियतनाम और बांग्लादेश जैसे देशों में बढ़ रही प्रतियोगिता का असर भी साफ देखा जा रहा है।
पिंक रिसर्च के नीरव शाह बताते हैं, ‘रिवर्स करेंसी मूवमेंट से उद्योग को जितना फायदा हुआ है वह सब कपास की कीमतों के बढ़ने (पिछले एक साल में 30 से 35 फीसदी की बढ़ोतरी) से कम हो सकती हैं।’ गोकलदास और वेलस्पन इंडिया जैसी कंपनियों को सबसे अधिक फायदा पहुंचने की उम्मीद है।