वैश्विक आर्थिक विकास में मंदी आ रही है, यह बात अब छुपी नहीं रही। यह भी वास्तविकता है कि विश्व के सबसे बड़े उपभोक्ता जैसे कि अमेरिका, यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्थाओं में मंदी आ रही है और तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं जैसे चीन और भारत की रफ्तार इस वर्ष और अगले वर्ष मंद रहने का अनुमान है।
चीन में घरेलू निवेश के कमजोर पड़ने (और विनिर्माण संबंधी गतिविधियों में आई मंदी, इनमें से कुछ ओलंपिक से संबध्द है) से मांग पर काफी असर पड़ रहा है।
हालांकि, मंदी की ओर बढ़ते कदम का प्रभाव जिसों की कम होती कीमतों के रूप में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, अधिकांश धातुओं की कीमतों में पिछले छह महीनों में 10 से 40 प्रतिशत की कमी आई है और बही खातों में भंडार बढ़ते जा रहे हैं। उत्पादकों ने आपूर्ति को नियंत्रित रखने के लिए उत्पादन में कटौती शुरू कर दी है।
यद्यपि कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जिंसों की कीमतों के कम होने में अमेरिकी डॉलर में हाल में आई मजबूती का भी हाथ है। पर बड़ा मुद्दा यह है कि जिंसों की मांग का परिदृश्य कमजोर दिखाई देता है। ऐसे में, लौह एवं अलौह उत्पादकों और कंपनियों का क्या है भविष्य, आइए जानते हैं।
लौह धातु
स्टील
वैश्विक स्तर पर चीन, यूरोप और अमेरिका स्टील के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं जो वैश्विक खपत के 61 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। चीन, जिसकी हिस्सेदारी वैश्विक स्टील खपत में 33.8 प्रतिशत की है, की मांग में कमी आने के अनुमान हैं।
पिछले वर्ष इसकी मांग 12-13 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2009 में घट कर 7-8 प्रतिशत रह सकती है। हालिया आंकड़े इस बात के गवाह हैं। इंटरनेशनल आयरन ऐंड स्टील इंस्टीटयूट के अनुसार, जनवरी से अगस्त 2008 के दौरान चीन के क्रूड स्टील उत्पादन में साल दर साल 8.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और यह 3,510 लाख टन रहा, अगस्त 2008 में साल दर साल के हिसाब से उत्पादन में 1.3 प्रतिशत की वृध्दि हुई और यह 426 लाख टन रहा। जुलाई 2008 के मुकाबले यह 5.2 प्रतिशत कम था।
साल 2008 में वैश्विक स्टील खपत में कुल मिला कर 4 से 4.3 प्रतिशत की कमी (12,560 लाख टन) आने का अनुमान है। एक तरफ इसका मतलब यह हुआ कि जहां कंपनियों की वॉल्यूम ग्रोथ कम होगी, वहीं दूसरी तरफ मूल्य की परिस्थितियां भी साथ नहीं दे रही हैं (पिछले महीने वैश्विक कीमतों में 15 से 20 प्रतिशत की गिरावट आई है)।
अगर जल्दी ही कच्चे माल के मूल्य कम नहीं हुए तो इन सब का प्रभाव मुनाफे पर पड़ना तय है। औद्योगिक आकलन के मुताबिक, प्रत्येक टन स्टील बनाने में लगभग एक टन कोकिंग कोयले की जरूरत होती है।
भारत में कोकिंग कोयले के एक महत्वपूर्ण हिस्से का (40 से 45 प्रतिशत) का आयात किया जाता है। कोकिंग कोयले की अंतरराष्ट्रीय कीमतें पिछले एक साल में बढ़ कर लगभग 200 डॉलर (8,400 रुपये प्रति टन, 1 डॉलर=42 रुपये) प्रति टन हो गईं, वर्तमान में इसकी कीमत 380 डॉलर प्रति टन है।
डॉलर के मूल्य में हाल में हुई बढ़ोतरी (बढ़ कर 46 रुपये होने से) से लागत में प्रति टन 1,520 रुपये अतिरिक्त की बढ़ोतरी हुई है।लेकिन, उद्योग का अनुमान है कि इस चलन में परिवर्तन होगा। आधुनिक मेटैलिक्स के प्रबंध निदेशक मनोज कुमार अग्रवाल कहते हैं, ‘स्टील की मांग में आने वाली अनुमानित मंदी और कोकिंग कोयले की बढ़ती कीमतों को देखते हुए कंपनियां अंतरराष्ट्रीय बाजार से ज्यादा खरीदारी नहीं कर रहे हैं।
लौह अयस्क और स्टील की कीमतों में सुधार होने के बाद, हमारा अनुमान है कि अब बारी कोकिंग कोयले की कीमतों में सुधार होने का है, जो महत्वपूर्ण होगा।’
कुछ स्टील उत्पादकों को लौह अयस्क की कीमतों में आई कमी से थोड़ी राहत मिली है। लौह अयस्क की कीमतें (एक टन स्टील बनाने में 1.8 टन लौह अयस्क का इस्तेमाल होता है) हाल में लगभग 27 प्रतिशत कम होकर पिछले तीन महीने में 145 डॉलर प्रति टन हो गई है। लौह अयस्क की कीमतें गैर-एकीकृत स्टील कंपनियों के लिए चिंता की वजह बन गईं थीं।
कंपनियां
यद्यपि, सेसा गोवा के लिए यह बुरी खबर है क्योंकि इसकी आय का 65 प्रतिशत एकमात्र चीन को लौह अयस्क का निर्यात करने से प्राप्त होता है।
उल्लेखनीय है कि, कंपनी द्वारा हाजिर बाजार में अपने उत्पादन का बड़ा हिस्सा बेचे जाने की नीति के कारण इसकी आय और मुनाफा लौह अयस्क की कीमतों के अनुपात में कम हो सकता है। बीएनपी परिबा की विश्लेषक प्रीति दुबे कहती हैं, ‘हमारा अनुमान है कि लौह अयस्क की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में वर्तमान स्तर से 20 प्रतिशत और का सुधार हो सकता है।
इस प्रकार वित्त वर्ष 2009 के लिए सेसा गोवा की आय का आकलन पिछले आकलन की तुलना में 5.9 प्रतिशत कम होकर 32.27 प्रतिशत और वित्त वर्ष 2010 के लिए 20.19 प्रतिशत हो गया है।’
लौह अयस्क का घरेलू हाजिर मूल्य भी अंतरराष्ट्रीय चलन को प्रतिबिंबित करते हुए 15 प्रतिशत कम हो गया है। लेकिन, इससे घरेलू स्टील उद्योग को कम राहत मिलेगी क्योंकि अधिकांश घरेलू कंपनियां अपने लौह अयस्क जरूरतों के लिए या तो आबध्द खानों का सहारा लेती हैं या सब्सिडी वाली दरों (अंतरराष्ट्रीय कीमतों से लगभग 30 प्रतिशत कम) पर एनएमडीसी और अन्य कंपनियों से दीर्घावधि के करार के आधार पर खरीदती हैं।
लेकिन अगर लौह अयस्क की कीमतों में नरमी जारी रही तो ये लाभ अनुबंधों की कम कीमतों में भी परिलक्षित होने चाहिए।
जेएसडब्ल्यू को इससे बड़ा लाभ होगा क्योंकि यह अपनी लौह अयस्क जरुरतों के 50 प्रतिशत की पूर्ति हाजिर बाजार से करता है। इसके अतिरिक्त, सितंबर 2008 के अंत तक विजयनगर में 30 लाख टन की क्षमता के विस्तार का कार्य संपन्न होने का अनुमान है, इससे संयंत्र की क्षमता बढ़ कर 68 लाख टन की हो जाएगी।
इस प्रकार अगले दो वर्षों में 25 से 30 प्रतिशत का वॉल्यूम ग्रोथ स्टील की कीमतों के कम होने से आय पर पड़ने वाले दबाव को कम करने में कुछ हद तक मदद कर सकता है।
कंपनी अपनी जरूरत के कोकिंग कोयले का 100 प्रतिशत बाजार से खरीदती है इसलिए इसकी कीमतों में होने वाली कमी से भी इसे मदद मिलनी चाहिए।
लागत मूल्यों जैसे लौह अयस्क और कोकिंग कोयले की कीमतों की अनिश्चितताओं को देखते हुए विश्लेषक स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) टाटा स्टील जैसी एकीकृत कंपनियों को तरजीह देते हैं। टाटा स्टील को घरेलू परिचालन को लेकर कोई खास समस्या नहीं है (लौह अयस्क और कोयले की आबध्द खानों के कारण)।
लेकिन कंपनी द्वारा मोजांबिक के कोकिंग कोयले की खानों में निवेश किए जाने के बावजूद, इसके विदेशी कारोबार को लेकर कुछ चिंताएं हैं, जो यूरोप जैसे बाजार की मंदी से प्रभावित हो सकता है।
यद्यपि, इन बातों का ख्याल रखते हुए और ऐतिहासिक रूप से कम मूल्यांकन को देखते हुए विश्लेषकों का सुझाव ‘खरीदने’ का है।
आयातित स्टील और घरेलू स्टील की कीमतों का कम होता अंतर भी उद्योग के लिए चिंता का विषय है। पहले इन दोनों में 17 से 20 प्रतिशत का फर्क हुआ करता था जो अब कम होकर मात्र 2 से 3 प्रतिशत का रह गया है।
इसलिए अगर अंतरराष्ट्रीय कीमतों में और अधिक कमी आती है तो इससे भारतीय कंपनियों की चिंताएं बढ़ेंगी। यद्यपि उद्योग से जुड़े लोग आश्वस्त हैं। जेएसडब्ल्यू स्टील के निदेशक (वित्त) शेषगिरि राव का विश्वास है, ‘अगर अंतरराष्ट्रीय कीमतों में और अधिक गिरावट भी आती है तो उन्हें लागत मूल्यों के कम होने का सहारा मिलेगा, इस प्रकार लाभ तब भी सुरक्षित रहेगा।’
कुछ विश्लेषक यह भी कहते हैं कि घरेलू मांगों में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की संभावना है वहीं आपूर्ति लगभग 5 से 6 प्रतिशत कम है, जो उद्योग का वॉल्यूम ग्रोथ सुनिश्चित करेगा।
मनोज कुमार अग्रवाल कहते हैं, ‘हाल में घोषित की गई नई क्षमताओं का लगभग 80 प्रतिशत 2010 से विलंबित होकर 2013-14 हो गया है। इसलिए घरेलू आपूर्ति अभी भी आवश्यकता से कम है।’
अलौह घातुएं
पिछले छह महीने में एल्युमीनियम, तांबा, सीसा, जस्ता और निकल के कीमतों में भी लगभग 15 से 40 फीसदी की कमी आई है और इसका कारण सभी जानते हैं।
चूंकि इन धातुओं की मांग अधिकांशत: औद्योगिक और घरों के खर्चों से संबध्द हैं इसलिए इन जिंसों पर वैश्विक आर्थिक मंदी, औद्योगिक गतिविधियों और आवास क्षेत्र में आई गिरावट का खासा प्रभाव पड़ेगा। मंदी के शुरुआती लक्षण तो दिख ही रहे हैं।
पिछले तीन महीने में एलएमई के बही खातों का स्तर बढ़ गया है, एल्युमीनियम में 11 प्रतिशत, तांबा में 68 प्रतिशत और जस्ता में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
एल्युमीनियम
अलौह धातुओं में सबसे अधिक इस्तेमाल एल्युमीनियम का किया जाता है और इसे परिवहन, पैकेजिंग, बिल्डिंग मैटेरियल और विद्युत उद्योगों में प्रयुक्त किया जाता है।
लंदन मेटल एक्सचेंज पर एल्युमीनियम की कीमतों में लगभग 20 प्रतिशत की गिरावट है जो बही खाते के भंडार में हुई बढ़ोतरी (30 प्रतिशत अधिक) के अनुसार है। सीआरयू के अनुसार मई 2008 को समाप्त हुए पांचवें महीने में एल्युमीनियम की वैश्विक मांग में होने वाली बढ़ोतरी कम होकर 5 प्रतिशत हो गई जबकि साल 2007 में यह 10 फीसदी थी।
इसकी प्रमुख वजह चीनी के मांग का पिछले साल के 38 प्रतिशत से घट कर 12 प्रतिशत होना है। शेष विश्व के लिए 2 प्रतिशत की वृध्दि प्रभावित करने लायक नहीं है।
तांबा
लंदन मेटल एक्सचेंज पर तांबे की कीमतों में जुलाई 2008 से 22 प्रतिशत की कमी आई है क्योंकि बही खातों का के भंडार में 65 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। एक तरफ जहां तांबे की वैश्विक मांग केवल 3 से 4 फीसदी बढ़ सकती है (अमेरिका, यूरोप और चीन की मंदी के कारण) वहीं साल 2008 में आपूर्ति में 2.5 से 2.7 फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है।
हालांकि, यह परिस्थिति साल 2009 में और बदतर हो सकती है क्योंकि आपूर्ति में 6 प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी का अनुमान है।
कंपनियां
एल्युमिना और एल्युमीनियम बनाने वाली कंपनी नाल्को के लाभ और आय दबाव में आ सकते हैं जिसकी वजह एल्युमिना और एल्युमीनियम की कीमतों में हो रही गिरावट है।
एल्युमिना की कीमतें अप्रैल 2006 की तुलना में 40 प्रतिशत कम होकर 370 डॉलर हो गई हैं। उत्पादन अधिक होने से इनकी कीमतों में और अधिक कमी होने का अनुमान है।
इसके अतिरिक्त कंपनी को निर्यात बाजार से और अधिक कोयला खरीदना पड़ सकता है जहां कीमतें अधिक हैं। यही कारण है कि इनकी आय संबंधी अनुमानों का स्तर घटा कर विश्लेषकों ने वित्त वर्ष 2008 के लिए 8 से 9 प्रतिशत और वित्त वर्ष 2010 के लिए 23 से 30 प्रतिशत कर दिया है।
हिंडाल्को, जो एल्युमीनियम व्यवसाय से बिक्री का लगभग 37 प्रतिशत और ईबीआईटी का 83 प्रतिशत प्राप्त करती है , के लिए भी स्थिति उतनी ही चिंताजनक है।
वित्त वर्ष 2008 के दौरान एल्युमीनियम व्यवसाय से आय में 3 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई और वसूली में 11 प्रतिशत की गिरावट आने से इबीआईटी में 17 फीसदी की कमी आई।
इसके बावजूद कंपनी की टॉपलाइन में 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई क्योंकि इसके तांबा व्यवसाय में (बिक्री का 63 प्रतिशत, 4.2 फीसदी का इबीआईटी लाभ) 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
कुल मिला कर चिंता कोयले के मूल्य (लगभग 25 प्रतिशत बाहर से मंगवाया जाता है), मांग में मंदी, कम वसूली, 5,000 करोड़ रुपये के राइट्स इश्यू के प्रस्तावित डायल्यूशन और अमेरिकी सहयोगी कंपनी नोवेलिस इंक के संभावित पतन (अमेरिकी मंदी के कारण) को लेकर है। इसलिए विश्लेषक निवेशकों को सुझाव देते हैं कि वे नाल्को और हिंडाल्को से दूर रहें।