भारत में मंदी की स्थिति अभी उतनी भयावह नहीं है जितनी विकसित अर्थव्यवस्थाओं की है, लेकिन इसे बढ़िया भी नहीं कह सकते।
भारतीय कंपनियों पर भी वैश्विक मंदी का असर पड़ने की आशंका है। अगर आंकड़ों की बात की जाए तो, भारत के कुल निर्यात में अकेले अमेरिका की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत है, उसके बाद अन्य अर्थव्यवस्थाएं जैसे यूएई, चीन, सिंगापुर, ब्रिटेन और हांगकांग की बारी आती है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वैश्विक आर्थिक परिदृश्य अब अनुकूल नहीं रह गया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुमान घटाकर साल 2008 के लिए 3.7 प्रतिशत और साल 2009 के लिए 2.2 प्रतिशत कर दिया गया है जो साल 2007 की 5 प्रतिशत की दर से कम है।
इसी प्रकार, विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए निर्यात कारोबार (वस्तु एवं सेवाएं) की भविष्यवाणी भी घटा कर साल 2008 के लिए 5.8 प्रतिशत कर दी गई है जबकि साल 2007 में यह 9.5 प्रतिशत था।
साल 2009 के लिए इसे 5.3 प्रतिशत आंका गया है। इस मंदी के कारण विकसित अर्थव्यवस्थाएं जैसे अमेरिका, यूरोप और जापान के साथ ही अन्य देशों के आयात में कमी आएगी।
अब अपने देश भारत की बात करते हैं। हालांकि, यहां मंदी की स्थिति उतनी भयावह नहीं है जितनी कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की है, लेकिन इसे बढ़िया भी नहीं कह सकते।
भारतीय कंपनियों पर भी वैश्विक मंदी का प्रभाव पड़ने के आसार हैं। अगर आंकड़ों की बात की जाए तो, भारत के कुल निर्यात में अमेरिका की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत है।
उसके बाद अन्य अर्थव्यवस्थाएं जैसे यूएई, चीन, सिंगापुर, ब्रिटेन और हांगकांग की बारी आती है। जैसा कि तालिका (वैश्विक जीडीपी विकास का आकलन) से स्पष्ट है कि इनमें से किसी भी अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है।
अनुमान यह भी है कि इनके आर्थिक विकास में मंदी आने वाली है और कुछ की स्थिति अगले साल और बुरी हो सकती है।
भारतीय निर्यात, जिसमें अप्रैल से सितंबर 2008 के दौरान 30.8 प्रतिशत की वृध्दि हुई थी, में मंदी के लक्षण पहले ही दिखने शुरू हो गए हैं। सितंबर 2008 के अंत में विकास दर 10.4 प्रतिशत कम थी।
और, एक तरफ जहां 1 दिसंबर 2008 को जब आधिकारिक आंकड़े जारी होने वाले हैं तो विदेश व्यापार के महानिदेशक का कहना है कि साल दर साल आधार पर अक्टूबर में निर्यात पहले ही 15 प्रतिशत कम हुआ है।
विदित हो कि ऐसा 5 साल में पहली बार हुआ है। अन्य विशेषज्ञों का नजरिया भी काफी निराशाजनक है। मूडीज इकानॉमी के अर्थशास्त्री शर्मन चन कहते हैं, ‘अगले कुछ महीनों में निर्यात में तेजी लाना भारत के लिए मुश्किल है क्योंकि वैश्विक संकट गहराता जा रहा है जिससे मांगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
रुपया कमजोर होने के कारण एशियाई निर्यात में भारतीय उत्पादों का आकर्षण बढ़ सकता है लेकिन मांग कम होने से भारतीय निर्यातकों को प्राप्तियों से होने वाला लाभ कम होगा।
यद्यपि भारत अपने पड़ोसी एशियाई देशों की तुलना में निर्यात पर अपेक्षाकृत कम निर्भर है, लेकिन बाहरी कारकों से यह अभी प्रभावित होता है।’
एनाम सिक्योरिटीज के रिसर्च प्रमुख नंदन चक्रवर्ती कहते हैं, ‘वैसी कंपनियां जो निर्यात बाजार या आउटसोर्सिंग पर निर्भर करती है, का भविष्य आने वाले समय में ज्यादा बेहतर नहीं है।
फिलहाल वे डॉलर मजबूत होने के कारण सुरक्षित हैं। लेकिन आगे चलकर कारोबारी गति में कमी आएगी। इसलिए कंपनियों को यह सब सोच कर चलना चाहिए।’
अब सवाल यह है कि निवेशकों को क्या करना चाहिए? सुंदरम बीएनपी परिबा म्युचुअल फंड के फंड प्रबंधक सतीश रामनाथन कहते हैं, ‘ऐसे समय में उन कंपनियों के साथ बने रहने में भलाई है जो निर्यात या आउटसोर्सिंग की अपेक्षा घरेलू विकास से ज्यादा संबध्द हैं।’
इस परिप्रेक्ष्य में स्मार्ट इन्वेस्टर ने विभिन्न क्षेत्रों और कंपनियों का जायजा लिया ताकि वैश्विक मंदी का उन पर क्या असर प्रभाव होगा, यह समझा जा सके।
वस्त्र एवं कपड़ा उद्योग
ऐसा लगता है कि कपड़ा उद्योग की चिंताएं जल्दी समाप्त होने वाली नहीं हैं। एक तरफ जहां पिछले साल रुपये की मजबूती के कारण कपड़ों का निर्यात प्रभावित हुआ था, वहीं इस साल मंदी से जूझ रहे अमेरिका, यूरोप और जापान की मांग कम होने से निर्यात विकास के इस महत्वपूर्ण अंग के प्रभावित होने के आसार हैं।
वस्त्र निर्यातकों के साथ भी यही परेशानी है। एपरेल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (एईपीसी) का आकलन है कि चालू वित्त वर्ष में निर्यात घट कर 8.78 अरब डॉलर रह जाएगा जो एईपीसी द्वारा वित्त वर्ष 2009 के लिए तय किए गए लक्ष्य से 24 प्रतिशत कम है।
पिछले वित्त वर्ष में भारत ने 6.69 अरब डॉलर के वस्त्रों का निर्यात किया था। कई विदेशी रीटेलर जैसे स्टीव ऐंड बैरीज तथा मर्विन्स आदि दिवालिया होने के कगार पर हैं जबकि अन्य जैसे फैशन बग और कैथेराइन्स अपने परिचालन के आकार छोटा बनाने में जुटे हैं।
रिटेलरों द्वारा अपनी बिक्री का बजट कम किए जाने के बाद भी भारतीय कारोबारी विकास में कमी और अपने मार्जिन में कमी का सामना कर रहे हैं। श्रम, ऊर्जा, मुद्रा, निर्यात पर कम छूट आदि जैसी लागत में साल दर साल 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जिससे भारत में प्रतिस्पध्र्दा बढ़ने की संभावना है।
लागत मूल्यों में आई गिरावट इस क्षेत्र के लिए सकारात्मक है। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि कंपनियां अपने इन लाभों को खरीदारों के साथ बांटेगी ताकि कंपनियां अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल करना चालू रख सकें।
वेलस्पन इंडिया का ऋण-इक्विटी अनुपात 3 से अधिक है तथा अमेरिकी बाजार से इसका महत्वपूर्ण संबंध है जो चिंता का विषय है।
इसके यूरोपीय ब्रांड और वितरण कंपनियों, क्रिस्टी और सोरेमा, का प्रदर्शन यूरोपीय बाजारों की मंदी को देखते हुए जोखिम में है। वित्त वर्ष 2009 की दृसरी तिमाही के निराशाजनक परिणामों के बाद गोकलदास एक्सपोर्ट्स का प्रदर्शन भी खराब होने की संभावना है।
इसके व्यवसाय में 95 प्रतिशत हिस्सेदारी निर्यात की है। राजस्व में 50 प्रतिशत की वृध्दि और परिचालन लाभ में 20 प्रतिशत से अधिक बढ़त के बावजूद ऋण-इक्विटी अनुपात 4.1 होने की वजह से आलोक इंडस्ट्रीज ने निवेशकों का भरोसा खोया है। बांबे रेयॉन फैशन की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है।
ऑटो
वैश्विक ऑटो क्षेत्र की मंदी का प्रभाव विकसित देशों के बाजारों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली कंपनियों पर हो रहा है। विश्व के दो बड़े बाजारों, अमेरिका और यूरोप में ऑटो की बिक्री तिमाही दर तिमाही आधार पर सितंबर की तिमाही में क्रमश: 16 और 19 प्रतिशत घटी है।
टाटा मोटर्स जैसी कंपनी, जिसकी समेकित आय का महत्वपूर्ण हिस्स विदेशी बाजारों से आता है, के राजस्व में इस मंदी के कारण अल्पावधि से दीर्घावधि में कमी आएगी।
बजाज ऑटो, जिसके निर्यात की हिस्सेदारी बिक्री कारोबार में आधी है, और टीवीएस मोटर्स, कुल बिक्री में जिसके निर्यात की हिससेदारी 13 प्रतिशत है, पर कम प्रभाव पड़ेगा क्योंकि उनका ध्यान ज्यादातर उभरते बाजारों पर है।
इन कंपनियों का विकास अच्छा हो सकता है क्योंकि उभरते बाजारों में दोपहियों की संख्या कम है। अप्रैल से अक्टूबर की अवधि में बजाज ऑटो ने 4 लाख मोटरसाइकिल का निर्यात किया था (साल दर साल 40 प्रतिशत अधिक) जबकि टीवीएस मोटर्स ने इसी अवधि में 98,000 मोटरसाइकिल का निर्यात किया था।
कम निर्यात के बावजूद दोपहिया के मामले में बाजार की अग्रणी कंपनी हीरो होंडा का ध्यान देश के ग्रामीण बाजारों पर है और कर्ज आधारित बिक्री कम होने के कारण इसकी स्थिति अपनी प्रतिस्पर्ध्दियों की तुलना में ज्यादा बेहतर है।
सवारी कारों की बात की जाए तो हुंडई आई 10 की निर्यात बाजार में सफलता को देखते हुए मारुति सुजुकी भी हाल में लांच किए गए ए-स्टार का चरणबध्द तरीके से सालाना निर्यात बढ़ा कर वित्त वर्ष 2011 तक 2 लाख कारें निर्यात करने का अनुमान लगा रही है।
वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण चालू वित्त वर्ष में टाटा मोटर्स के निर्यात में 20 प्रतिशत की कमी आई है। चालू कैलेंडर वर्ष के पहले नौ महीनों में टाटा मोटर्स की सहयोगी कंपनी जगुआर लैड रोवर के खुदरा कारोबार में साल दर साल आधार पर 5 प्रतिशत की गिरावट आई है।
जगुआर के नए मॉडल एक्सएफ के लांच के बाद बिक्री में 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने के बावजूद खुदरा कारोबार में कमी आई। घरेलू और विदेशी बाजारों की मांग में कमी को देखते हुए फिलहाल मूडीज ने टाटा मोटर्स की रेटिंग बी1 से घटा कर बीए2 कर दी है।
मूडीज का मानना है कि भारत की सबसे बड़ी ऑटो कंपनी का परिदृश्य नकरात्मक रहेगा। विकसित बाजारों में ऑटो की मांग कमजोर है
लेकिन स्टील, कच्च तेल आदि कमोडिटी की कीमतों में कमी, कम ब्याज दर और रुपये के अवमूल्यन से इस क्षेत्र की कंपनियों के परिदृश्य में मजबूती आ सकती है।
कुल मिलाकर, दोपहिया के लिए परिदृश्य सकारात्मक है जबकि अन्य के लिए यह या तो उदासीन है या फिर नकारात्मक।
एफएमसीजी
एमएमसीजी क्षेत्र मुख्य रूप से घरेलू खपत पर निर्भर करता है। इसकी कुल बिक्री में निर्यात की हिस्सेदारी लगभग 4 से 5 फीसदी की है।
हालांकि टाटा टी, डाबर और गोदरेज कंज्यूमर के लिए विदेशी सहयोगी कंपनियों का योगदान महत्पूर्ण है (बिक्री का 20 प्रतिशत से अधिक)। इन कंपनियों को अपने अंतरराष्ट्रीय परिचालनों में मंदी का सामना नहीं करना पड़ा है।
डाबर इंडिया के उपाध्यक्ष अमित बर्मन कहते हैं, ‘वास्तव में डाबर का अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय काफी फल-फूल रहा है। इसकी विकास दर घरेलू विकास दर की तुलना में तीन गुनी अधिक है।
उन्होंने कहा कि विदेशी बाजारों में निरंतर नए उत्पादों को पेश कर अपना कारोबार बढ़ाएंगे, साथ ही नए देशों में भी अपने कारोबार का विस्तार करेंगे।
डाबर का अंतरराष्ट्रीय कारोबार मुख्यत: विकासशील देशों जैसे पश्चिम एशिया और अफ्रीका में है। इस प्रकार वह प्रमुख विकसित देशों के मंदी के प्रभावों से सुरक्षित है।
गोदरेज कंज्यूमर के प्रबंधन का भी मानना है कि ब्रिटेन की कीलाइन (गोदरेज के स्वामित्व वाली कंपनी) बाजार परिस्थितियों के प्रतिकूल होने के बावजूद बेहतर प्रदर्शन कर रही है।
सूचना प्रौद्योगिकी
गोल्डमैन सैक्स की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों (अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और जापान) के सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) पर होने वाले खर्च में साल 2009 में 5 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
यह भारतीय आईटी सेवा प्रदाता कंपनियों के लिए अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इन कंपनियों की आय का 80 प्रतिशत इन्हीं बाजारों से आता है।
बीएसएफआई क्षेत्र, जिसका योगदान अधिकांश भारतीय आई टी कंपनियों के राजस्व में 30 प्रतिशत का है, में कम विकास होने और विलंबित बजट के अतिरिक्त अब आईटी कंपनियां मुद्राओं के मुद्दों से जूझ रही हैं।
एक अक्टूबर 2008 से अब तक डॉलर में यूरो के मुकाबले 10 प्रतिशत और पौंड की तुलना में 16 प्रतिशत का अवमूल्यन हुआ है।
इस कारण इन्फोसिस और सत्यम जैसी कंपनियों को थोड़ी परेशानी हो सकती है। चालू वित्त वर्ष में टीसीएस और इन्फोसिस नई नियुक्तियां योजनानुसार कर रही हैं।
अन्य आई टी कंपनियों ने या तो नियुक्तियों की संख्या घटी दी है या फिर अभी नियुक्तियों को टाल दिया है। आईटी शेयरों में विश्लेषक इन्फोसिस और टीसीएस को तरजीह देते हैं।
इन्फोसिस और टीसीएस बड़े सौदों को मूर्त रूप देने में पूरी तरह सक्षम हैं और लागत बचाने वाली महत्वपूर्ण सेवाओं जैसे बीपीओ और बुनियादी ढांचा प्रबंधन में ये अग्रणी हैं।
तेल एवं गैस
केवल दो कंपनियां रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार ऑयल ने अपने उत्पादन के बेहतर हिस्से का निर्यात किया है। वित्त वर्ष 2009 की दूसरी तिमाही की कुल बिक्री में एस्सार के निर्यात की हिस्सेदारी लगभग 28 प्रतिशत थी।
रिलायंस (कुल बिक्री के 55 प्रतिशत का निर्यात करता है),के कुल निर्यात में 20 प्रतिशत यूरोप से आता है।
वैश्विक मांग में आई कमी और हाल के क्षमता विस्तार के बाद रिफाइनिंग के कारोबार से जुड़ी कंपनियों के मार्जिन पर दबाव बन गया है।
मुबई स्थित एक ब्रोकरेज कंपनी के विश्लेषक कहते हैं, ‘रिलायंस को मार्जिन पर दबाव का सामना करना पड़ेगा, लेकिन निर्यात बाजार में कारोबार का विकास अभी भी ठीक हाल में है।’
धातु
पिछले कुछ वर्षों में कई धातु कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी उपस्थिति निर्यात और अधिग्रहणों के जरिये बढ़ाई है।
वास्तव में हिंडाल्को और टाटा स्टील ने वैसी कंपनियों का अधिग्रहण किया है जो आकार में इनसे बड़ी हैं। यद्यपि, इन कंपनियों (टाटा स्टील, हिंडाल्को, स्टरलाइट इंडस्ट्रीज) को कम लागत वाली धातु उत्पादकों की श्रेणी में रखा गया है।
वैश्विक मंदी से भारतीय धातु कंपनियां प्रभावित हो रही हैं। धातु की वैश्विक कीमतें कम होने से कई कंपनियों ने उत्पादन के साथ-साथ कीमतों में कटौती की है। इसे देखते हुए धातु कंपनियों के शेयरों की कीमतों में भी कमी आई है।
लौह धातु व्यवसाय से जुड़ी कंपनियों में टाटा स्टील स्टैंडएलोन आधार पर निर्यात से 20 प्रतिशत राजस्व प्राप्त करती है लेकिन इसके वैश्विक परिचालनों, जैसे ब्रिटेन स्थित कोरस, को शामिल कर देखा जाए तो समेकित आय का 80 प्रतिशत विदेशी परिचालन से प्राप्त राजस्व का होगा।
यूरोपीय बाजार की मंदी को देखते हुए प्रमुख स्टील कंपनियों जैसे आर्सेलर मित्तल और बाओस्टील उत्पादन में पहले ही कटौती कर चुका है।
कोरस ने भी घोषणा की है कि वह उत्पादन में 30 प्रतिशत की कटौती करेगा। आकलन के मुताबिक, साल 2009 में अकेले यूरोप में स्टील की खपत में लगभग 20 प्रतिशत और साल 2010 में 15 प्रतिशत की कमी आएगी।
स्टील की अन्य कंपनियों में जेएसडब्ल्यू स्टील अपने राजस्व का लगभग 30 प्रतिशत निर्यात बाजारों से प्राप्त करती है। इस कंपनी ने पिछले साल अमेरिका की स्टील पाइप और प्लेट बनाने वाली एक मिल का अधिग्रहण किया था। इसकी क्षमता 17.5 लाख टन है।
कंपनी ने अमेरिकी परिचालनों का ईबीआईटीडीए आकलन घटा कर 1,250 से 1,300 लाख डॉलर कर दिया है जबकि पहले यह 1,550 से 1,600 लाख डॉलर था। सेसा गोवा जैसी कच्चे माल की आपूतिकर्ता कंपनियों पर, जो खनन के साथ-साथ लौह अयस्कों का निर्यात करती है, थोड़ा दबाव रह सकता है।
मंदी की चिंताओं की वजह से लौह अयस्क की कीमतों में 60 से 70 प्रतिशत की कमी आई है। इसके अतिरिक्त लौह अयस्क के निर्यात पर भारत सरकार ने 8 प्रतिशत का शुल्क लगाया है। आकलनों के मुताबिक इससे 60 रुपये प्रति टन का बोझ और बढ़ जाएगा।
सेसा गोवा अपने राजस्व का 93 प्रतिशत निर्यात से प्राप्त करती है। राजस्व का 65 प्रतिशत चीन के निर्यात से प्राप्त होता है। मांग की कमजोरी और मार्जिन कम होने का मतलब है कि सेसा गोवा जैसी कंपनियों के लिए आने वाला समय चुनौतीपूर्ण होगा।