भारत और चीन की तुलना करने वालों कमी नहीं है। कई लोगों का कहना है कि भारत, चीन की बराबरी किसी भी कीमत पर नहीं कर सकता है। उनके मुताबिक वह हम से कहीं आगे निकल चुका है। लेकिन हकीकत में हम उससे कहीं आगे हैं। इस बारे में बता रहे हैं मुकुल पाल
आर्थिक और सामाजिक विकास के बारे में कुछ भी कहने के लिए इतिहास को कभी सबूतों की जरूरत नहीं पड़ती। उसका सबूत वह खुद है। इतिहास के पन्नों से मिले सबक को यादकर हम मौजूदा संकट का हल तलाश सकते हैं।
खुशकिस्मती से मैं एक ऐसे शहर में काम करता हूं, जो चारों से पहाड़ों से घिरा हुआ है। जब आप शहर के बीचोंबीच जाते हैं, तो ऊंचाई बढ़ाती जाती है। इस वजह से जब मैं नीचे झांक कर देता हूं, तो मुझे एक 600 साल ऐसा चर्च दिखाई देता है, जो हर तरफ से खजूर के पेड़ों के घिरा हुआ है।
इसके ऊपर है, घोड़े पर सवार जंग के लिए तैयार एक राजा की मूर्ति। हंगरी के इस राजा का नाम है मताई कोर्विंग, जिसने 1458-1490 तक अपने मुल्क को ओटोमन साम्राज्य (1299-1923) से बचाने के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं।
पुनर्जागरण के वक्त वेनिस के बाशिंदों से खुद को मंगोल से बचाने के लिए शहरों के चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी दी थीं। चीन की महान दीवार ने भी चीनी इतिहास में अहम भूमिका अदा की है। साथ ही, इसने चीन को ओटोमन साम्राज्य के हमलों से बचाने में भी अहम भूमिका अदा की।
चीनियों ने जिस उत्साह के साथ दीवार की अवधारणा को अपनाया है, उसका मुकाबला कोई दूसरा नहीं कर सकता। शायद इसीलिए तो चीन अपनी 4000 साल पुरानी आर्थिक और सामाजिक इतिहास को संजो पाया है।
पिछली सदी की शुरुआत में चीन (1912), तुर्की (1929) और भारत (1947, हर तरफ दीवारें मौजूद थीं। हालांकि, अब तक जंग की रणनीति, विस्तार की नीति और संरक्षणवाद एक अलग रूप ले चुकी थीं। आज हमारे पास कारोबारी नीतियां हैं, मुद्राएं हैं और शेयर बाजार हैं। हमें जरूरत है, आगे बढ़ने की, मुनाफे कमाने, महंगाई को कम रखने की और दहाई अंक वाले विकास दर की।
क्या है अंतर?
अगस्त, 2005 में हर तरफ चीन हैरतंगेज विकास के ही चर्चे चल रहे थे। उसने जिस अंदाज में श्रमिक और पूंजी जुटाई, एक ही पीढ़ी के दौरान प्रति व्यक्ति आय को तिगुना कर दिया, 30 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर आया और विकास की नई कहानियां लिखीं, वह सचमुच लोगों को हैरान कर देने वाला था।
यहां भारत के प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने था ही नहीं। चीन एक काबिल मुल्क था और भारत साफ तौर पर एक नाकाबिल। चीन में जहां सबवे और एक्सप्रेसवे के जाल बिछ चुके थे, तो वहीं भारत में ये सब दूर की कौड़ी नजर आ रहे थे। इसके बाद लोगों ने कहना शुरू किया कि भारत और चीन एक दूसरे के पूरक हैं।
चीन अगर बड़े स्तर पर उत्पादन और बड़े बड़े प्लांट लगा सकता है, तो सॉफ्टवेयर, डिजाइन, सेवाओं और दूसरे मामलों में हमारी भी तूती बोलती है। उनका कहना था कि सोचिए अगर भारत और चीन मिल जाएं तो अमेरिका को भी पीछे हटना पड़ेगा। लेकिन हुआ क्या? हम आज भी इसे अस्तिृत्व की जंग मान रहे हैं।
तादाद पर जोर
अगर थॉमस माल्थस 18वीं सदी में ही 1929 की महामंदी की भविष्यवाणी कर पाए, तो इसकी वजह था वह आबादी वर्क (पॉपुलेशन कर्व) जिसे उन्होंने खुद बनाया था। वक्त को छोड़कर दुनिया में कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जो सदा आगे बढ़ती रहे।
इसका मतलब यह हुआ कि आबादी को विकास के हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने की भी एक सीमा है। पुरानी अवधारणाओं में आबादी को हमेशा भविष्यवाणी करते समय ध्यान में रखा जाता था। अगर आबादी बढ़ती है, तो उपभोग बढ़ता है।
अगर उपभोग में इजाफा होगा, तो विकास तेजी से होगा। इस पॉपुलेशन कर्व में यह भी बताया है कि बढ़ती आबादी के बावजूद विकास दर स्थिर भी रहती है। साथ ही, अगर आबादी हद से ज्यादा हो गया है, तो इसकी वजह से विकास की रफ्तार मंद भी पड़ सकती है।
इसलिए चीन का घरेलू उपभोग के बूते पर इस सदी के बीच तक अमेरिका निकलने की बात एक भुलावा भी साबित हो सकता है। अमेरिकी बाजार में मंदी ने उभरते हुए बाजारों को भी मुसीबत में डाल दिया है।
कार्यकुशलता और उपभोक्तावाद
उपभोक्तावाद को अब आर्थिक इतिहास का एक अंग बना देना चाहिए। पुराने लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखेंगे, क्योंकि उनके जमाने में वे अपनी जरूरतें खुद ही पूरी कर लिया करता था। सच कहूं तो, उपभोक्तावाद को आज की जरूरत बन चुकी है और आप इससे मुंह नहीं मोड़ सकते।
जैसे निवेश करते वक्त आप अटकलबाजी से नहीं बच सकते। आज हमें उपभोक्ताबाद और अटकलबाजी दोनों की जरूरत है। इससे हम वापस पुराने वक्त में पहुंच जाते हैं। इसलिए बाजार कभी कार्यकुशल नहीं हो सकता क्योंकि इसे अटकलबाजी और उपभोक्तावाद इसे चलाते हैं।
इसलिए तो चीन भी कार्यकुशलता के मामले में भारत से पीछे रह गया। आज चीन की आधी पूंजी कमोडिटी, ऑटो और रियल एस्टेट में लगी हुई है। उसकी फैक्टरियां प्रदूषण फैलाती हैं और भारतीय फैक्टरियों की तुलना में कहीं कम कार्यकुशल हैं। आधी से ज्यादा कंपनियां तो अपनी पूंजी तक निकाल नहीं पाती हैं।