दिनोदिन कमजोर होते जा रहे भारतीय शेयर बाजार के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) का तेजी से धन निकालना चिंता का प्रमुख कारण बन गया है।
बीते साल के मुकाबले अब स्थिति बिलकुल उल्टी है। इसलिए कई सवाल उठ रहे हैं। अब भारत के बारे में एफआईआई की समझ क्या है? क्या वे अपना धन भारतीय बाजारों में फिर लगाएंगे?, भारतीय बाजार उससे संबंधित वैल्यूएशन, इकनॉमी और क्षेत्रों से जुड़ी उनकी चिंताएं क्या हैं?
जितेंद्र कुमार के साथ चर्चा में इमर्जिंग, पोर्टफोलियो फंड रिसर्च(ईपीएफआर) के वैश्विक बाजार के वरिष्ठ विश्लेषक केमरन ब्रेंट ने इन सवालों के जवाब दिए और इस बारे में अपने विचार व्यक्त किए। ईपीएफआर एक अमेरिकी फर्म है, जो यह देखती है कि धन कहां से आ रहा और कहां लगाया जा रहा है। इस फर्म की परिसंपत्तियां 100 खरब डॉलर की हैं।
मूल्यांकन और जोखिम के मद्देनजर एफआईआई का भारतीय शेयर बाजार के प्रति क्या नजरिया है?
वर्ष 2003 से 2007 के बीच उभरते बाजारों में आई नकदी की बाढ़ ने जोखिम को डुबो दिया था, लेकिन अब वह फिर उभर आया है। बदली स्थिति ने एफआईआई को उन सभी बाजारों की समीक्षा पर विवश किया। इनमें भारत भी शामिल है। अभी संकेत मिल रहे हैं कि कुछ समय बाद एफआईआई फिर भारतीय बाजार की ओर रुख करेंगे।
इसका कारण यह है कि भारत की कंपनियां दूसरे देशों की कंपनियों की तुलना में कर्जमुक्त हैं। अधिकांश ब्लूचिप कंपनियों उम्मीदों के अनुरूप आय अर्जित कर रही हैं। भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति से निपटने के लिए जल्द ही कारगर कदम उठाने के लिए जाना जाता है। इसके साथ ही, अमेरिकी बाजार में छाई मंदी आईटी और आउटसोर्सिंग गतिविधियों के लिए अवसर प्रदान कर रही है।
भारतीय शेयर बाजार को लेकर एफआईआई की चिंताएं क्या हैं?
तेल की कीमतें, मुद्रास्फीति और आगामी चुनाव तीन प्रमुख चिंताएं हैं। ये तीनों आपस में संबंधित हैं। ऊर्जा की बढ़ी कीमतों, दूसरी वस्तुओं के दाम और ब्याज दरों से प्रभावित आम व्यक्ति को राहत प्रदान करना सरकार के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद है, लेकिन पब्लिक फाइनैंस, भारत की क्रेडिट रेटिंग और अतिरिक्त आर्थिक सुधार की अपेक्षा के लिहाज से यह एक लंबी अवधि का प्रभाव है।
आदर्श स्थिति में सरकार को जितना हो सके उतना बाजार पर छोड़ देना चाहिए और मतदाताओं को अतिरिक्त आर्थिक सुधारों को ध्यान में रखते हुए सही जनादेश देना चाहिए। यथार्थ में गरीबों के हितों की नैतिक और राजनीतिक आधार पर रक्षा की जानी चाहिए। तेल की कीमतों में गई थोड़ी वृध्दि भी वित्तीय वर्ष 2009 की दूसरी तिमाही में पहले ही बाजार के प्रति अनुदार सरकार के लिए परेशानियां बढ़ाएगा।
जनवरी 2008 के बाद एफआईआई भारतीय बाजार में शुध्द बिकवाली ही कर रहे हैं। साल के शेष बचे समय में आपके अनुसार एफआईआई फ्लो की स्थिति क्या रहेगी?
इंडिया कंट्री फंड, जिस पर हमारी कंपनी नजर रखती है, ने इस साल की जोरदार शुरुआत के बाद अब भारतीय बाजारों की तरफ अपना ध्यान हटा लिया है। उसने बाजार में 28 मई से पहले के नौ सप्ताह लगातार धन लगाया। वित्तीय वर्ष 2008 की पहली तिमाही में उसका जो धन आया, वह था 7.4 करोड़ डॉलर, जबकि इसी समयावधि में उसने 74.5 करोड़ डॉलर निकाले।
2007 में इसी तिमाही में उसने 1.1 अरब डॉलर निकाले थे। फंडों के आकड़ों को देखकर लगता है कि जीईएम फंड भारत को कमतर आंक रहे हैं। हालांकि वे मानते हैं कि लंबी अवधि में यह बाजार मजबूत होगा, लेकिन उनकी खरीद गिरी है। मार्च में ईपीएफआर ग्लोबल ट्रैक फंड भारतीय बाजार में शुध्द खरीदार थे जबकि इसी समय वे एशिया के दूसरे बाजारों में जोरदार बिकवाली कर रहे थे। ग्लोबल फंड मैनेजरों का रुख भारत के प्रति मंदी वाला था।
अप्रैल में वे भारतीय बाजार में छह लगातार माह के बाद शुध्द बिकवाली कर रहे थे। बीते साल इंडिया कंट्री फंड ने 76.1 करोड़ डॉलर यहां से निकाले, जबकि ईपीएफआर ग्लोबल ट्रैक फंड की निकासी इस दौरान 85.3 करोड़ डॉलर थी। हालिया रुझान जारी रहने पर 2008 के आंकड़े भी सकारात्मक रह सकते हैं।
ऐसा कोई विशेष क्षेत्र जहां इस साल एफआईआई तेजी या फिर मंदी दिखा सकते हैं?
वित्तीय वर्ष 2008 की पहली तिमाही में आईटी क्षेत्र की आय और अमेरिका में बने अनुकूल हालात को देखते हुए इनमें तेजी देखी जा सकती है। यह क्षेत्र अब तेजी से लागत घटाने और उत्पादकता बढाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। इसके साथ ही,पब्लिक और प्राइवेट धन के भारतीय इन्फ्रास्ट्रक्चर में जाने से इस क्षेत्र में भी तेजी की चर्चा की जा रही है। हालांकि इस बारे में कम ही पता है कि कैसे इस थीम में बेहतर खेल खेला जाए।
आप भारतीय इक्विटी बाजार और दूसरे उभरते बाजारों के बीच मूल्यांकन के आधार पर तुलना किस तरह करेंगे?
हाल-फिलहाल यह उचित स्तर पर हैं।
क्या एफआईआई भारतीय कंपनियों की कमाई पर बने दबाव को लेकर चिंतित हैं? अगर यह सच है तो वे कौन से कारक हैं जो इसके लिए जिम्मेदार हैं?
ऊर्जा और कमोडिटी की कीमतें बढ़ने और इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में दक्ष कामगारों की कमी से साफ तौर पर लागत पर दबाव बना है, लेकिन कमाई की उम्मीदें फिलहाल सबसे निचले स्तर पर हैं। यह स्थिति उनके लिए बेहद प्रतिकूल है जो एफआईआई फंड के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
क्या अब भी एफआईआई की नजरों में भारतीय इक्विटी की छवि एक लंबी रेस के घोड़े जैसी है?
हां। बीते छह माह में यह साफ नजर आया कि इस बाजार को वास्तविक घरेलू समर्थन हासिल है और भारतीय अर्थव्यवस्था में इन कारणों के चलते अभी भी अच्छी संभावनाएं हैं। ये कारण हैं- पूंजीगत उपकरणों में जोरदार निवेश, केंद्रीय बैंक वास्तविक स्वायत्तता दिखा रहा है, ह्युमन कैपिटल रिटर्निंग और निजी उद्यमी अधिक से अधिक क्षेत्रों में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
क्या एफआईआई भारतीय बाजार में उतरने के लिए किसी विशेष स्तर का इंतजार कर रहे हैं? यदि यह सच है तो वह कौन सा लेवल है?
मैं सोचता हूं कि वह लेवल है। सामान्य से किसी विशिष्ट में शिफ्ट होना ही वह लेवल है। इसमें किसी शेयर विशेष पर ब्रॉडर मार्केट लेवल से अधिक ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
कुछ कारणों के चलते भारत सरकार ने कुछ अवसरों पर बाजार में हस्तक्षेप कर नियंत्रण स्थापित किया। क्या आप इसे राजनीतिक जोखिम के रूप में देखते हैं। निवेशकों के निवेश और आय पर पड़ने वाले प्रभावों के मद्देनजर नीति में होने वाले इन परिवर्तन को कैसे लेना चाहिए?
यह सवाल डिग्री का है। अधिकांश एफआईआई समझते हैं कि तेजी से बढ़ते खाद्य संकट और मुद्रास्फीति की बिगड़ती स्थिति को संभालने के लिए सरकार उद्योगों को मुक्त करने की जगह अपने परंपरागत आर्थिक उपायों के साथ सामने आ रही है। इसके लिए उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसलिए वे इनके बीच में ही रहना चाहते हैं। इससे उन्हें किसी विशेष क्षेत्र अल्पावधि में आय पर पड़ने वाले असर को झेलने को तैयार रहना चाहिए। खासकर तब जब सरकार इस समयावधि का उपयोग किसी बेहतर समाधान के लिए कर रही है।