वित्तीय वर्ष 2007-08 में भारत का विदेशों में किया जाने वाला प्रत्यक्ष निवेश (आउटवर्ड एफडीआई) 29.6 फीसदी बढ़कर 17.4 अरब डॉलर हो गया है।
भारतीय कॉर्पोरेट जगत द्वारा बड़ी संख्या में किए गए अधिग्रहण, उनमें बढ़ी विदेशों में कारोबार फैलाने की लालसा और एनर्जी एसेट की तलाश में किए गए निवेश ने इस वृध्दि में अहम भूमिका निभाई। यहां फंड महज उस स्थिति में निवेश नहीं किया गया, जहां रिटर्न के लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है।
यह इंफ्लो लाभांश, लोन के रीपेमेंट और लाइसेंस फीस के रूप में हुआ। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 2007-08 में बाहरी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 76.7 फीसदी बढ़कर 91.6 करोड़ डॉलर हो गया। इससे पिछले वित्तीय वर्ष 2006-07 में यह 51.8 करोड़ डॉलर था।
बाहरी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वह निवेश है जो किसी भारतीय फर्म और उसकी सहयोगी फर्म ने विदेश में पूरी तरह से अपने स्वामित्व वाली किसी कंपनी के लिए किया हो। इसमें तेल की खोज के लिए किए गए प्रॉडक्ट शेयरिंग समझौते के लिए भेजा गया धन शामिल नहीं है। इसमें किसी व्यक्ति और बैंक द्वारा किया गया निवेश शामिल नहीं है। 2007-08 को हुए कुल निवेश में 81.6 फीसदी निवेश इक्विटी के रूप में और बाकी का 18.4 फीसदी लोन के रूप में था। इसी दौरान बाहरी एफडीआई के 95 फीसदी निवेश के प्रस्ताव 50 लाख डॉलर से अधिक के थे।
भारतीयों के विदेशों में बढ़ते निवेश पर आरबीआई ने कहा था कि इस बाहरी एफडीआई में 2006-07 के बाद से तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। इसका प्रमुख कारण विदेशों में निवेश की उदार नीतियों का होना है। विनिर्माण क्षेत्र बाहरी एफडीआई में सबसे अग्रणी रहा। इसका कुल इस तरह के निवेश में 43 फीसदी हिस्सा है। इसके बाद गैर-वित्तीय सेवाओं (11 फीसदी), ट्रेडिंग (4 फीसदी) का नंबर आता है। विनिर्माण क्षेत्र के पास वर्तमान में इलेक्ट्रानिक उपकरण, उर्वरक, कृषि और इससे संबंधित प्रॉडक्ट, रत्न और आभूषण आदि में प्रस्ताव तलाश रहा है।
गैर वित्तीय सेवाओं के पास दूरसंचार, चिकित्सा सेवा और साफ्टवेयर डेवलपमेंट सेवा आदि के प्रस्ताव हैं। वित्तीय वर्ष 2007-08 में बाहरी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में से 65 फीसदी निवेश टैक्स के लिहाज से माकूल स्थानों में हुआ। इसमें 35 फीसदी बाहरी विदेशी निवेश सिंगापुर में, 23 फीसदी हालैंड में और 7 फीसदी ब्रिटिश वर्जिन आयरलैंड में किया गया।