भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर वाई वी रेड्डी ने आखिरी सालाना क्रेडिट पॉलिसी पेश की।
उन्होंने सिध्दार्थ से रिजर्व बैंक के सामने विकास और महंगाई को संतुलित करने की चुनौतियों के बारे में बात की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश
आपका कार्यकाल अब जबकि समाप्त हो रहा है तो इस बदली परिस्थिति में क्या चुनौतियां देख रहे हैं?
रिजर्व बैंक ऐसी संस्था है जिसमें निरंतरता की जड़े काफी गहराई तक फैली हुई है। यहां जो भी फैसले किए जातें हैं वो संस्थागत फैसले होते हैं। जहां तक गवर्नर की बात है तो वह सार्वजनिक दायित्व वाला होता है और साथ ही अपने आप में अलग होता है। जब कभी भी कोई बदलाव होते हैं वो बदलते परिस्थितियों के संदर्भ में होते हैं तथा एक बड़े सुधार का हिस्सा होता है।
इस संदर्भ में मुझे खुश होना चाहिए क्योंकि मैंने जिन बातों पर ध्यान केन्द्रित किया वह प्रत्येक स्तर पर एक टीम भावना के तहत थी जिसमें कि मौद्रिक नीति पर सलाहकार समिति भी शामिल थी। इसका नीतिगत फैसला करने के समय गुणवत्ता सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। कोई भी विभागीय समस्या होती है उसका निपटारा सामूहिक योगदान से करने में काफी मदद मिलती है।
इन सारी बातों से बैंक में पेशेवर नजरिया विकसित करने में मदद मिलती है। यह सी रंगराजन के समय में शुरू हुई थी। हमलोग अपने कार्य के प्रति काफी समर्पित हाते हैं और हमारी ताकत हमारे लोग है। इन सारी बातों का बहुत ही साकारात्मक असर पड़ता है और आरबीआई निश्चित तौर पर उम्दा कार्य करती रहेगी।
आपके भाषण में दो चीजों पर ज्यादा ध्यान दिया गया है एक महंगाई और दूसरी विससित देशों में हुई वित्तीय संकट का प्रभाव। इन दोनों में से आप किसे ज्यादा बडा मानते हैं?
मुझे लगता है कि हमें अतीत में जाकर उन मुद्दों पर एक नजर दौड़ानी चाहिए जिसे हमने आनेवाले समय की बड़ी चुनौतियों के रूप में दुखा था। जब मैंने पदभार लिया था उस समय बैंकों की धीमी रफ्तार एक समस्या है जबकि अभी बैंकों की तेज गति एक समस्या बन बैठी है। उस समय विकास को गति प्रदान करना एक मुख्य मुद्दा थी।
उस समय किसने सोचा था कि ओवरहीटिंग भारतीय बाजार के लिए कोई मुददा बन पाएगी । उस समय किसने सोचा था कि जब विकास दर 9 प्रतिशत से नीचे जाएगी तो लोग मंदी की बातें करने लगेंगे। उस समय वर्तमान वैश्विक बाजार की अनिश्चितताओं के बारे में भी किसी ने नहीं सोचा होगा।
अभी जो अमेरिका की स्थिति है क्या उसके बारे में किसी ने अनुमान लगाया होगा कि वो इस तरह से बिखर जाएगी। निश्चित तौर पर केन्द्रीय बैंकों के भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए कमर कस के तैयार रहना पड़ेगा।शायद पहले दौर के वित्तीय संकट का असर इक्विटी मार्केट तक ही सीमित रहेगा और मुझे नहीं लगता कि वहां काई खास परेशानी होगी।
दूसरी बात यह कि रियल सेक्टर पर भी वित्तीय क्षेत्र का असर दूसरे तेजी से उभरते अर्थव्यवस्था के मुकाबले कम ही होगी क्योंकि हमारे निर्यात उनकी अपेक्षा अधिक विविधता लिए हुए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की एक बड़ी मजबूती यह है कि हमारे बचत और निवेश संतुलित है। हमारी अर्थव्यवस्था घरेलू मांग से ज्यादा वास्ता रखती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी रिटेल बैंकों का अधिक महत्व है जबकि इनवेस्टमेंट बैंकों का असर कुछ खास नहीं है। जाहिर है हमारा लक्ष्य विकास को बरकरार रखना है और मध्यावधि में 8 प्रतिशत की विकास दर को बरकरार रखा जा सकता है।
क्या यह कहना सही होगा कि महंगाई से निपटना हमारी नीति की प्राथमिकता है जबकि विकास के लक्ष्य को पूरा किया जा चुका है?
मुल्यों में संतुलन और महंगाई से निपटना प्राथमिकताओं की सूची में सबसे उपर है। 8 प्रतिशत के विकास लक्ष्य को बरकरार रखने के लिए मूल्यों और महंगाई पर नियंत्रण रखना अत्यावश्यक है।
हाल के कुछ सप्ताहों में कई कंपनियों ने डेरिवेटिव संबंधित घाटे को दिखाया है। आप इस स्थिति को किस रूप में देखते हैं?
यह एक नई चीज है और इसे समझने में कुछ गलतफहमियों की गुंजाईश बन जाती है। जहां तक हमारी बात है तो हमने इस संबंध में स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किए हैं। जहां भी हमारे दिशा-निर्देशों का पालन ठीक ढ़ंग से हुआ हैं वहां विवाद की काई गुंजाइश ही नहीं रहती। अगर दिशा- निर्देश का पालन नहीं किया जाता है तब उस स्थिति में विवाद की स्थिति बन जाती है।
इस मामले में कुछ ही बैंक संलग्न हैं और हम उनसे कई बार इस मुद्दे पर बात कर चुके हैं। कु छ कॉरपोरेट संगठनों ने इस बारे में शिकायत दर्ज की है और हम इनकी समीक्षा कर रहें है। लेकिन मै दोहराना चाहूंगा कि इसमें कोई सिस्टेमेटिक रिस्क नहीं है।
ऐसे क्या कारण रहे जिनके चलते एनबीएफसी को लेकर महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ा?
यह वित्तीय स्थायित्व फोरम से और हालिया वैश्विक वित्तीय बाजार के विकास से जुडा मामला है। इसमें से एक ऑफ-बैंलेंस शीट आइटम है हम इसे देखना चाहेंगे। ऐसे बहुत कम बैंक हैं जिनका इन आइटमों से कभी सामना हुआ हो और एनबीएफसी भी इसी में शामिल हैं। वे बहुत सारे कार्यो में संलग्न रहते हैं साथ ही ये तेजी से विकास कर रहें हैं और वे एनबीएफसी को लेकर बहुत चिंतित हैं। वित्तीय स्थिरिता के लिए यह जरूरी है कि केन्द्रीय बैंक गैर -बैंकिंग संस्थाओं पर उतना ही ध्यान दे।